मैं काफी समय से सुबह सुबह सबसे जय जिनेंद्र के साथ सुप्रभात कर एक कोई भी सुवाक्य संलग्न भेजता हूं। अभी पिछले दिनों की ही बात है एक सुवाक्य भेजा था
आस्था हमेशा भक्त के चित्त और मन में होती है,
वरना कमी निकालने वालों को तो परमात्मा में भी कमी नजर आती है
तो मैं इस बारे में विचार कर रहा था, सोचा आस्था के बारे में कुछ लिखूँ। सोचते सोचते विचार आया आस्था भक्ति है, आस्था निष्ठा है, आस्था श्रद्धा है, या फिर ये आस्था है क्या? आस्था किसी व्यक्ति विशेष के लिए या दल विशेष के लिए या किसी राष्ट्र के लिए या किसी धर्म या संप्रदाय के प्रति या समाज विशेष के लिए - किसके लिए? आस्था गूढ़ शब्द है। आस्था के बारे में लोगों के मन में जो कई भाव आते हैं, उन भावों पर विचार करता हूं। एक आत्मा का दूसरी आत्मा के प्रति जो विशुद्ध, निर्मल एकात्मक भाव आता है, जो उसे उसके प्रति जोड़ने का कार्य होता है, वह आस्था है।
मैं पाता हूं, कि आचार्य भिक्षु की दृढ़ आस्था आगम के प्रति या भगवान महावीर के प्रति थी और वह सारी उम्र उस पर दृढ़ रहे। उसी दृढ़ता के आधार पर उन्होंने नए संप्रदाय का सर्जन भी किया। आस्था के कारण कितनी भी कठिनाई आई पर वे अडिग रहे। आस्था धार्मिक आलंबन हैं, आस्था का एक आधार है, व आस्था आध्यात्मिक मूल्य पर विश्वास है।
एक आस्था मैं देखता हूं, मीरा की कृष्ण के प्रति - उनकी इतनी दृढ़ आस्था की राणा जी ने जहर का प्याला भेजा और उसको भी अमृत समझ के पी लिया। उस जहर का मीरा पर कोई असर नहीं हुआ। इतनी प्रीतम के प्रीत की आस्था। अंत में कहा यह जाता है कि वे कृष्ण में समाधिस्थ हो गई, यह आस्था की पराकाष्ठा है। आस्था जुनुन है, आस्था मन व चित्त भाव है और आस्था तादम्यता का पूर्ण विराम है।
जैसा कि सुवाक्य में कहा गया आस्था चित्त व मन का भाव है, अगर गलती परमात्मा में निकालते हैं तो फिर यह आस्था नहीं है, वहां आपकी आस्था में कमी है या फिर कोई और बात है। परमात्मा तो परमात्मा है उसमें कमी निकालना हमारा कार्य नहीं है, आस्थावान व्यक्ति अपनी आस्था मे जुड़कर परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखे ये काम्य है। आज हम वहां तक पहुंच पाए तो फिर हम समझते हैं कि यह आस्था का एकात्मकता का भाव है अन्यथा मैं कई बार कईयों को देखता हूं आज यहां धोक लगा रहे हैं, कल वहाँ धोक लगा रहे हैं, परसों और कहीं। उन्हें भरोसा अपने आप पर ही नहीं हैं, तो परमात्मा पर क्या भरोसा करेंगे?
मैं यहां थोड़ा सा लौकिक और लोकोत्तर के बारे में भी बात करूंगा। लौकिक में तो हमने यह भी देखा है कि राजनेताओं की आस्था पलटते देर नहीं लगती। वहां तो दलबदलूओं की भीड़ हमेशा मौजूद रही है। किसी एक दल के प्रति आस्था या किसी एक व्यक्ति के प्रति आस्था या किसी एक सिद्धांत के प्रति आस्था - भारतीय राजनीति में विशेष तौर से मैंने बहुत कम देखी। गांधीजी जैसे व्यक्ति विरले ही होते हैं जो कि अपनी बात पर अडिग रहते हैं। सत्य के प्रति गांधीजी की आस्था अपने आप में एक अनुकरणीय उदाहरण हैं। उनको अंग्रेजों ने कितने ही कष्ट दिए - चाहे दक्षिण अफ्रीका हो या भारत। वे अपने सत्य पर अडिग रहे और सत्य के प्रति उनकी आस्था डिगी नहीं। उसी आस्था के बल पर, अहिंसा के हथियार से भारत को स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों पर विजय दिलवाई। यह है आस्था का एक दृढ़ मनोबल। अन्यथा यहां राजनीति वाले लालों का नाम इसमें ज्यादा प्रसिद्ध है जो कि अपनी आस्था के विचलन के लिए जाने जाते हैं। हां, इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि उनकी आस्था कुर्सी के प्रति पक्की है। उसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं। यह खेल हम पिछले 75 सालों से भारतीय राजनीति में बराबर देख रहे हैं, सत्ता के प्रति आस्था इस देश की सबसे बड़ी आस्था का केंद्र बन गया है।
राजनीति अपनी जगह है - धर्म अपनी जगह है और आस्था का अपना एक अलग स्थान पिछले दिनों में जो एक धार्मिक स्थलों पर दो-तीन दशकों से भीड़ देख रहा हूं क्या वह आस्था के बल पर आ रही है? या फिर केवल मात्र भेड़ चाल के आधार पर आ रही है? कई बार इस विषय पर मैंने आचार्य महाप्रज्ञ जी से सुना है अनुयायी तो बढ़ रहे हैं पर श्रावक नहीं बढ़ रहे हैं। उनके कहने का जो मैं भावार्थ समझ पाया वह यह था लोगों में वह दृढ़ आस्था नहीं है, केवलमात्र देखा देखी ज्यादा बढ़ रही है। तो यह देखा देखी हमें किस और ले जा रही है? इस पर हम विचार करें।
मैंने सोचता हुँ कि मेरे को जाना है जोधपुर से मुंबई तो जिनेंद्र अगर सांचौर होकर जा रहा है, उस रास्ते की तरफ गया। फिर देखा नहीं श्रेयांस तो जालौर होकर निकल गया तो मैं उधर गया, फिर देखा मैंने अविनाश सिरोही होकर निकल रहे हैं तो मैं उधर गया, बस मैं केवल दूसरों को देखता रहा - अपना गंतव्य और रास्ता भूल गया और केवल इधर-उधर भटकता रहा। क्या यह भटकाव ही मेरी आस्था का विचलन नहीं है? हम भी केवल इसी रूप में भटक कर समय व्यतीत कर रहे हैं, ओर अंत में नतीजा सिफर। आत्मा से परमात्मा तक का मार्ग एक ही है और हमें अगर उस ओर बढ़ना है तो उसके प्रति व अपने आप पर आस्था रखनी पड़ेगी। हम इधर उधर भटकते रहेंगे तो यह जो उचित राह है वह राह भी नहीं मिल पाएगी। मैंने कहीं एक किस्सा पढ़ा था । एक पंडित जी और मौलवी जी थे, दोनों बहस कर रहे थे कि मेरा खुदा बड़ा है - मौलवी जी ऐसा बोलते हैं और पंडित जी बोले नहीं हमारे बजरंगबली बड़े हैं। अब दोनों तकरार करने लगे तो दोनों ने शर्त लगाई कि इस दो मंजिली बिल्डिंग से नीचे कूदेंगें और जो सही सलामत नीचे पहुंच जाए उसका रहनुमा बड़ा है। पहले पंडित जी कूदे और पंडित जी ने कहा जय बजरंगबली और पंडित जी सही सलामत से नीचे पहुंच गए फिर मौलवी जी कूदे या-खुदा बोलकर बीच में उन्हें लगा कहीं खुदा ने नहीं बचाया तो मेरा क्या होगा? तो पंडित जी को तो बजरंगबली ने बचाया ही है, इसलिए मैं भी आवाज बजरंगबली को ही दूं और उन्होंने भी बीच में जय बजरंगबली आवाज लगाई जाए। वह नीचे गिरे तो पैर में फेक्चर हो गया। उन्होंने मन ही मन खुदा को कोसा आप के कारण मेरे फैक्चर हुआ और आप मुझे बचाने भी नहीं आए। कहते हैं खुदा ने उन्हें कहा मैं तो तुम्हें बचाने आ रहा था कि लेकिन बीच में तुमने बजरंग बली को याद कर लिया तो फिर न तो बजरंगबली आये न मैं आ पाया। यह था तुम्हारी आस्था का विचलन - इस तरह से किसी एक के प्रति आस्था न रखना या फिर मन में कई दूसरे भावों का आना और देखा देखी इधर-उधर भटकना यह सब हमारी आस्था के प्रति विचलन ही है।
कई चरित्र आत्माओं को जिन्होंने कुछ वर्षों तक साधु का वेश धारा और बाद में पता नहीं किस आकर्षण में उस भेष के विपरीत आचरण करने लगे, यह विपरीत आचरण भी क्या है? आस्था का विचलन है। उन्होंने सही रूप में धर्म का स्वरूप को समझा ही नहीं। धर्म न तो किसी भेष में है नहीं किसी वेश में है। धर्म तो है आत्मा की शुद्धि का साधन उसके प्रति अडिग रहना है। एक व्यक्ति ने दीक्षा ग्रहण की जैन श्वेतांबर तेरापंथ संप्रदाय में कुछ साल - वहां पर साधु रहे, उसके बाद वहां से अलग होकर मंदिरमार्गी संप्रदाय साधु हो गए, वहां भी कुछ समय तक रहे और वहां से स्थानकवासी संप्रदाय में चले गए। यह अस्थिरता क्या दर्शाती है? इस पर हम चिंतन मनन करें। हम अपनी आस्था को पुष्ट नहीं कर पाए और केवल भटकते रहे तो इस 84 लाख जीवा योनि के अंदर भटकते भटकते पता नहीं कब तक यों ही अस्थिर-मना गोते खाते रहेंगे और वह आस्था हमें कब मिलेगी? हमारे अंदर मीरा की आस्था कब आएगी? आचार्य भिक्षु की सी आस्था कब पैदा होगी? केवल इनके नाम लेने से या इन महापुरुषों को याद करने से आस्था नहीं आ सकती।
एक घटना तुलसीदास जी की मैंने कहीं पढ़ी या सुनी थी। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस लिखी और वे रामचरितमानस भक्तों को सुनाते थे। उन्होंने उस कथा सुनाने के दौरान लंका की अशोक वाटिका का वर्णन कर रहे थे तो वहां उन्होंने बताया अशोक वाटिका में कनेर के सफेद फूलों के पेड़ लगे हुए थे। कहा यह जाता है कि उनकी रामचरितमानस को सुनने हनुमान जी स्वयं आते थे और हनुमान जी ने बीच कथा में खड़े होकर कहा कि तुलसीदास जी अशोक वाटिका के फूल लाल थे सफेद नहीं। तुलसीदास जी बोले प्रणाम बजरंगबली, पर मैंने जहां तक जाना है वह फूल सफेद थे। हनुमान जी बोले मैं तो स्वयं वहाँ देख कर आया था आपको क्या पता है? तुलसीदास जी बोले यहां भक्तों की भीड़ में भगवान श्री राम जी भी विराजे हैं - वह बताएं हमें फूल सफेद थे या लाल थे, तो कहते हैं रामचरितमानस के श्रवण करने वालों में भगवान राम स्वयं उपस्थित थे और भगवान राम बोले बजरंग बली तुलसीदास जी ठीक कह रहे हैं फुल सफेद ही थे पर तुम्हें क्रोध आया हुआ था और क्रोध में फूल तुम्हें लाल नजर आए। तो यह है भक्ति की पराकाष्ठा आस्था की पूर्णता भगवान राम के जीवन पर रामचरितमानस तुलसीदास जी ने लिखी - वही भगवान राम स्वयं भक्त तुलसीदास के मुंह से अपनी कथा सुनने श्रोताओं में आते थे। ऐसी आस्था, श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा होना प्रबल पुण्य का योग है और आस्था इसी भांति की होनी चाहिए।
आस्था का विचलन या आस्था का भ्रष्ट होना मानव जीवन का सबसे बड़ा अमंगलकारी कदम है, कार्य है। मैं इस बात के माध्यम से आप सब से इतना ही अनुरोध करूंगा अपनी आस्था को पुष्ट करें अपने आराध्य के प्रति इतनी आस्था रखें आप उसके बारे में कहीं कोई गलत बात ना सुने, न करें , ना सोचे। आपकी आस्था आराध्य के प्रति इतनी अटूट होनी चाहिए आराध्य स्वयं आपके हर कार्य में सहायक बने और आप अपने आराध्य को इतना अपने प्रति रिझा लें कि वह आप जैसे भक्तों को पाके स्वयं भी अपने को धन्य माने।
आस्था के चमत्कार के कई किस्से कथाएं ना केवल हमने पढ़े हैं, वरन् देखे भी हैं। मेरे बुआ जी चम्पा बाई जिनकी आंखों की रोशनी चली गई थी। उनकी प्रगाढ़ आस्था अपने आराध्य आचार्य भिक्षु के प्रति थी। आचार्य भिक्षु स्वयं उन्हें दर्शन देने पधारे और उनकी आंखों में रोशनी आ गई। यह तो घटना मेरे स्वयं के परिवार में हुई है। हमारी आस्था हमें उन आचार्य भिक्षु , मीरा, तुलसीदास, सूरदास, कबीरदास, रैदास, रसखान आदि की श्रेणी में तक ले जाकर भक्ति की पराकाष्ठा तक अपने आराध्य के प्रति पहुंचाएँ और अपनी आस्था को दृढ़ ही नहीं दृढ़तर बनाना है। तभी हमारा मानव जीवन में आना सार्थक होगा अन्यथा तो पशु योनि में भी एक श्वान (कुत्ता) या कोई भी जानवर अपने मालिक के प्रति वफादार रहता है। हमें आस्था रखनी है और वह भी दृढ़ता के साथ रखनी है, निरंतर रखनी है, समझकर रखनी है। भटकाव व अस्थिरता से छुटकारा पाना है। गंगा गए गंगादास जमुना गए जमुनादास ऐसा नहीं होना है यह दृढ़ संकल्प हमारा रहे।
मैं मेरी बात का समापन पापा जी श्री सोहन राज जी कोठारी की कविता से करना चाहूंगा ----
मीरा पहुंची वृंदावन में,तुम्हारे मंदिर के द्वार
महंत ने स्त्री देखकर प्रवेश देने से कर दिया इनकार
तब मीरा ने मर्माहत होकर कहा
"कृष्ण के सिवाय वह किसी को पुरुष मानती नहीं
उसकी उपस्थिति में कोई समर्पित प्राणी
पुरुष होने का दावा कर सकता कहीं"
भक्त सारे स्त्रैण चित्त बनकर ही पा सकते हैं भगवान्
समर्पण भावना से ही खिल उठते हैं भक्त के प्राण
तुम्हारी भक्ति का तब महंत ने जान लिया मर्म
झिझक गया, उसको अपनी बात पर आ गई शर्म
मीरा ने तुमको प्रियतम मान, किया कण कण में स्वीकार
प्राणों की धड़कन, पावों की थिरकन में तुम छा गए साकार
स्मरण की भाव - विह्वलता में, नाच उठे उसके रोम-रोम अंग
दिन की कल्पनाओं व रात के स्वपनों में तुमने
उसके जीवन में भर दिया नवरंग
नृत्य की मस्ती में जब चल पड़ते उसके चरण
सम्मोहित होकर वह तुम्हारा कर लेती वरण
अपनी चेतना मे पूर्णतया तुमने उसे लिया रमा
तभी तो वह तुम्हारी दिव्य मूर्ति में गई समा।।
रचनाकार:
मर्यादा कुमार कोठारी
(आप युवादृष्टि, तेरापंथ टाइम्स के संपादक व अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं)
साभार- ज्ञानम ज्ञान
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