जैन साहित्य इतिहास -28
Posted:
04 जुलाई 2010 –
10:12 am
६. ज्ञातृधर्म कथा (नायाधम्मकहाओ) –
यह आगम दो श्रुतस्कंधों में विभाजित हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में १९ अध्याय हैं। इसके नामकी सार्थकता दो प्रकार से समझाई जाती है। एक तो संस्कृत रूपान्तर ज्ञातृधर्मकथा के अनुसार, जिससे प्रगट होता है कि श्रुतांग में ज्ञातृ अर्थात् ज्ञातृपुत्र महावीर के द्वारा उपदिष्ट धर्मकथाओं का प्ररूपण हैं। दूसरा संस्कृत रूपान्तर न्यायधर्मकथा भी सम्भव है, जिसके अनुसार इसमें न्यायों अर्थात् ज्ञान व नीति संबंधी सामान्य नियमों और उनके दृष्टान्तों द्वारा समझाने वाली कथाओं का समावेश है। रचना के स्वरूप को देखते हुए यह द्वितीय संस्कृत रूपान्तर ही उचित प्रतीत होता है, यद्यपि प्रचलित नाम ज्ञातृधर्मकथा पाया जाता है। प्रथम अध्ययन में राजगृह के नरेश श्रेणिक के धारिणी देवी से उत्पन्न राजपुत्र मेघकुमार का कथानक है। जब राजकुमार वैभवानुसार बालकपन को व्यतीत कर, व समस्त विद्याओं और कलाओं को सीखकर युवावस्था को प्राप्त हुआ, तब उसका अनेक राजकन्याओं से विवाह हो गया। एकबार महावीर के उपदेश को सुनकर मेघकुमार को मुनिदीक्षा धारण करने की इच्छा हुई। माता ने बहुत कुछ समझाया, किन्तु राजकुमार नहीं माना और उसने प्रव्रज्या ग्रहण करली। मुनि-धर्म पालन करते हुए एकबार उसके हृदय में कुछ क्षोभ उत्पन्न हुआ, और उसे प्रतीत हुआ जैसे मानों उसने राज्य छोड़, मुनि दीक्षा लेकर भूल की है। किन्तु जब महावीर ने उसके पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाकर समझाया, तब उसका चित्त पुनः मुनिधर्म में दृढ़ हो गया। इसी प्रकार अन्य अन्य अध्ययनों में भिन्न भिन्न कथानक तथा उनके द्वारा तप, त्याग व संयम संबंधी किसी नीति व न्याय की स्थापना की गई है।
७. उपासकाध्ययन (उवासगदसाओ) –
इस श्रुतांग में, जैसा नाम में ही सूचित किया गया है, दश अध्ययन हैं; और उनमें क्रमशः आनंद, कामदेव, चुलनीप्रिय, सुरादेव, चुल्लशतक, कुंडकोलिय, सद्दालपुत्र, महाशतक, नंदिनीप्रिय और सालिहीप्रिय इन दस उपासकों के कथानक हैं। इन कथानकों के द्वारा जैन गृहस्थों के धार्मिक नियम समझाये गये हैं, और यह भी बतलाया गया है कि उपासकों को अपने धर्म के परिपालन में कैसे कैसे विघ्नों और प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है। प्रथम आनन्द अध्ययन में पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों-इन बारह व्रतों तथा उनके अतिचारों का स्वरूप विस्तार से समझाया गया है। इनका विधिवत् पालन वाणिज्य ग्राम के जैन गृहस्थ आनंद ने किया था। आनंद बड़ा धनी गृहस्थ था, जिसकी धन-धान्य संपत्ति करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं की थी। आनंद ने स्वयं भगवान् महावीर से गृहस्थ-व्रत लेकर अपने समस्त परिग्रह और भोगोपभोग के परिमाण को सीमित किया था।
८. अन्तकृद्दशा-(अंतगडदसाओ) –
इस श्रुतांग में आठ वर्ग हैं, जो क्रमशः १०, ८, १३, १०, १०, १६, १३, और १० अध्ययनों में विभाजित हैं। इनमें ऐसे महापुरुषों के कथानक उपस्थित किये गये हैं, जिन्होंने घोर तपस्या कर अन्त में निर्वाण प्राप्त किया, और इसी के कारण वे अन्तकृत् कहलाये। यहाँ कोई कथानक अपने रूप में पूर्णता से वर्णित नहीं पाया जाता।
९. अनुत्तरोपपातिक दशा (अणुत्तरोवाइय दसाओ) –
इस श्रुतांग में कुछ ऐसे महापुरुषों का चरित्र वर्णित है, जिन्होंने अपनी धर्म-साधना के द्वारा मरणकर उन अनुत्तर स्वर्ग विमानों में जन्म लिया जहाँ से पुनः केवल एक बार ही मनुष्य योनि में आने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। यह श्रुतांग तीन वर्गों में विभाजित है। प्रथम वर्ग में १०, द्वितीय में १३ व तृतीय में १० अध्ययन हैं।
१०. प्रश्न व्याकरण (पण्ह-वागरण) –
यह श्रुतांग दो खंडों में विभाजित है। प्रथम खंड में पाँच आस्रवद्वारों का वर्णन है, और दूसरे में पाँच संवरद्वारों का पाँच आस्रवद्वारों में हिंसादि पाँच पापों का विवेचन है, और संवरद्वारों में उन्हीं के निषेध रूप अहिंसादि व्रतों का। इस प्रकार इसमें उक्त व्रतों का सुव्यवस्थित वर्णन पाया जाता है।
११. विपाक सूत्र (विवाग सुयं) –
इस श्रुतांग में दो श्रुतस्कंध हैं, पहला दुःख-विपाक विषयक और दूसरा सुख-विपाक विषयक। प्रथम श्रुत-स्कंध दूसरे की अपेक्षा बहुत बड़ा है। प्रत्येक में दस-दस अध्ययन हैं, जिनमें क्रमशः जीव के कर्मानुसार दुःख और सुख रूप कर्मफलों का वर्णन किया गया है। कर्म-सिद्धान्त जैन धर्म का विशेष महत्वपूर्ण अंग है।
१२. दृष्टिवाद (दिट्ठिवाद) –
यह श्रुतांग अब नहीं मिलता। समवायांग के अनुसार इसके पाँच विभाग थे-परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका। इन पाँचों के नाना भेद-प्रभेदों के उल्लेख पाये जाते हैं, जिनपर विचार करने से प्रतीत होता है कि परिकर्म के अन्तर्गत लिपि-विज्ञान और गणित का विवरण था। सूत्र के अन्तर्गत छिन्न-छेद नय, अछिन्न-छेद नय, त्रिक नय, व चतुर्नय की परिपाटियों का विवरण था। छिन्न छेद व चतुर्नय परिपाटियां निर्ग्रन्थों की एवं अछिन्न छेद नय और त्रिक नय परिपाटियाँ आजीविकों की थीं। पीछे इन सबका समावेश जैन नयवाद में हो गया। दृष्टिवाद का पूर्वगत विभाग सबसे अधिक विशाल और महत्वपूर्ण रहा है। इसके अन्तर्गत उत्पाद, आग्रायणी, वीर्यप्रवाद आदि वे १४ पूर्व थे जिनका परिचय ऊपर कराया जा चुका है।
क्रमश २9.......
इसके मूल लेखक है -
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए., डी.लिट्., एल.एल.बी.,
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बहुत सुंदर ओर ग्याण वर्धक लेख.धन्यवाद