गातांक से आगे.....
अर्द्धमागधी भाषा -
उपर्युक्त ४५ आगम ग्रन्थों की भाषा अर्द्धमागधी मानी जाती है। अर्द्ध-मागधी का अर्थ नाना प्रकार से किया जाता है - जो भाषा आधे मगध प्रदेश में बोली जाती थी, अथवा जिसमें मागधी भाषा की आधी प्रवृत्तियां पाई जाती थी। यथार्थतः ये दोनों ही व्युत्पत्तियां सार्थक हैं, और इस भाषा के ऐतिहासिक स्वरूप को सूचित करती हैं। मागधी भाषा की मुख्यतः तीन विशेषताएं थीं। (१) उसमें र का उच्चारण ल होता था, (२) तीनों प्रकार के ऊष्म ष, स, श वर्णों के स्थान पर केवल तालव्य `श' ही पाया जाता था; और (३) अकारान्त कर्त्ताकारक एक वचन का रूप `ओ' के स्थान पर `ए' प्रत्यय द्वारा बनता था। इन तीन मुख्य प्रवृत्तियों में से अर्द्ध-मागधी में कर्ताकारक की एकार विभक्ति बहुलता से पाई जाती है। र का ल क्वचित् ही होता है, तथा तीनों सकारों के स्थानपर तालव्य `श' कार न होकर दन्त्य `स' कार ही होता है। इस प्रकार इस भाषा में मागधी की आधी प्रवृत्तियां कही जा सकती हैं।
विद्वानों का यह भी मत है कि मूलतः महावीर एवं बुद्ध दोनों के उपदेशों की भाषा उस समय की अर्द्धमागधी रही होगी, जिससे वे उपदेश पूर्व एवं पश्चिम की जनता को समान रूप से सुबोध हो सके होंगे। किन्तु पूर्वोक्त उपलभ्य आगम ग्रन्थों में हमें उस प्राक्तन अर्द्धमागधी का स्वरूप नहीं मिलता। भाषा-शास्त्रियों का मत है कि उस काल की मध्ययुगीन आर्य भाषा में संयुक्त व्यजनों का समीकरण अथवा स्वर-भक्ति आदि विधियों से भाषा का सरलीकरण तो प्रारंभ हो गया था, किन्तु उसमें वर्णों का विपरिवर्तन जैसे क-ग, त-द, अथवा इनके लोप की प्रक्रिया प्रारंभ नहीं हुई थी। यह प्रक्रिया मध्ययुगीन आर्य भाषा के दूसरे स्तर में प्रारंभ हुई मानी जाती है; जिसका काल लगभग दूसरी शती ई. सिद्ध होता है। उपलभ्य आगम ग्रन्थ इसी स्तर की प्रवृत्तियों से प्रभावित पाये जाते हैं। स्पष्टतः ये प्रवृत्तियां कालानुसार उनकी मौखिक परम्परा के कारण उनमें समाविष्ट हो गई हैं।
सूत्र या सूक्त? -
इन आगमों के सम्बन्ध में एक बात और विचारणीय है। उन्हें प्रायः सूत्र नाम से उल्लिखित किया जाता है, जैसे आचारांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि। किन्तु जिस अर्थ में संस्कृत में सूत्र शब्द का प्रयोग पाया जाता है, उस अर्थ में ये रचनाएं सूत्र रूप सिद्ध नहीं होतीं। सूत्र का मुख्य लक्षण संक्षिप्त वाक्य में अधिक से अधिक अर्थ व्यक्त करना है, और उनमें पुनरावृत्ति को दोष माना जाता है। किन्तु ये जैन श्रुतांग न तो वैसी संक्षिप्त रचनाएं हैं, और न उनमें विषय व वाक्यों की पुनरावृत्ति की कमी है। अतएव उन्हें सूत्र कहना अनुचित सा प्रतीत होता है। अपने प्राकृत नामानुसार ये रचनाएं सुत्त कही गई हैं, जैसे आयारंग सुत्त, उत्तराध्ययन सुत्त आदि। इस सुत्त का संस्कृत पर्याय सूत्र भ्रममूलक प्रतीत होता है। उसका उचित संस्कृत पर्याय सूक्त अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। महावीर के काल में सूत्र शैली का प्रारंभ भी सम्भवतः नहीं हुआ था। उस समय विशेष प्रचार था वेदों के सूक्तों का। और संभवतः वही नाम मूलतः इन रचनाओं को, तथा बौद्ध साहित्य के सुत्तों को, उसके प्राकृत रूप में दिया गया होगा।
शौरसेनी जैनागम -
उपर्युक्त उपलभ्य आगम साहित्य जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सुप्रचलित है, किन्तु दिग. सम्प्रदाय उसे प्रामाणिक नहीं मानता। इस मान्यतानुसार मूल आगम ग्रंथों का क्रमशः लोप हो गया, जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है। उन आगमों का केवल आंशिक ज्ञान मुनि-परम्परा में सुरक्षित रहा। पूर्वों के एकदेश-ज्ञाता आचार्य धरसेन माने गये हैं, जिन्होंने अपना वह ज्ञान अपने पुष्पदंत और भूतबलि नामक शिष्यों को प्रदान किया और उन्होंने उस ज्ञान के आधार से षट्खंडागम की सूत्ररूप रचना की। यह रचना उपलभ्य है, और अब सुचारु रूप से टीका व अनुवाद सहित २३ भागों में प्रकाशित हो चुकी है। इसके टीकाकार वीरसेनाचार्य ने प्रारंभ में ही इस रचना के विषय का जो उद्गम बतलाया है, उससे हमें पूर्वों के विस्तार का भी कुछ परिचय प्राप्त होता है।
क्रमश २७........
इसके मूल लेखक है -
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए., डी.लिट्., एल.एल.बी.
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आभार जानकारी का.
महावीर जी, जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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पाँच मुँह वाला नाग?
साइंस ब्लॉगिंग पर 5 दिवसीय कार्यशाला।