जैन साहित्य इतिहास -27

Posted: 22 जून 2010
गतांक  से  आगे......
५. भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति (वियाह-पण्णन्त्ति) –

इस संक्षेप में केवल भगवती नाम से भी उल्लिखित किया जाता है। इसमें ४१ शतक हैं और प्रत्येक शतक अनेक उद्देशकों में विभाजित है। आदि के आठ शतक, तथा १२-१४, तथा १८-२० ये १४ शतक १०, १० उद्देशकों में विभाजित हैं। शेष शतकों में उद्देशकों की संख्या हीनाधिक पाई जाती है। पन्द्रहवें शतक में उद्देशक-भेद नहीं है। यहाँ मंखलिगोशाल का चरित्र एक स्वतंत्र ग्रन्थ जैसा प्रतीत होता है। कहीं कहीं उद्देशक संख्या विशेष प्रकार के विभागानुसार गुणित क्रम से बतलाई गई है; जैसे ४१ वें शतक में २८ प्रकार की प्ररूपणा के गुणा मात्र से उद्देशकों की संख्या १९६ हो गई है। ३३ वें शतक में १२ अवान्तर शतक हैं, जिनमें प्रथम आठ, ग्यारह के गुणित क्रम से ८८ उद्देशकों में, एवं अन्तिम चार, नौ उद्देशकों के गुणित क्रम से ३६ होकर सम्पूर्ण उद्देशकों की संख्या १२४ हो गई है। इस समस्त रचना का सूत्र-क्रम से की विभाजन पाया जाता है, जिसके अनुसार कुल सूत्रों की संख्या ८६७ है। इस प्रकार यह अन्य श्रुतांगों की अपेक्षा बहुत विशाल है। इसकी वर्णन शैली प्रश्नोत्तर रूप में है। गौतम गणधर जिज्ञासा-भाव से प्रश्न करते हैं, और स्वयं तीर्थंकर महावीर उत्तर देते हैं। टीकाकार अभयदेव ने इन प्रश्नोत्तरों की संख्या ३६००० बतलाई है। प्रश्नोत्तर कहीं बहुत छोटे छोटे हैं। जैसे भगवन् ज्ञान का फल क्या है?-विज्ञान। विज्ञान का क्या फल है? प्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान का क्या फल है? संयम; इत्यादि। और कहीं ऐसे बड़े कि प्रायः एक ही प्रश्न के उत्तर में मंखलिगोशाल के चरित्र सम्बन्धी पन्द्रहवाँ शतक ही पूरा हो गया है। इन प्रश्नोत्तरों में जैन सिद्धान्त व इतिहास तथा अन्य सामयिक घटनाओं व व्यक्तियों का इतना विशाल संकलन हो गया हैं कि इस रचना को प्राचीन जैन-कोष ही कहा जाय तो अनुचित नहीं। स्थान स्थान पर विवरण अन्य ग्रन्थों, जैसे पण्णवणा, जीवाभिगम, उववाइय, रायपसेणिज्ज, णंदी आदि का उल्लेख करके संक्षिप्त कर दिया गया है, और इस प्रकार उद्देशक के उद्देशक भी समाप्त कर दिये गये हैं। ये उल्लिखित रचनायें निश्चय ही ग्यारह श्रुतांगों से पश्चात्-कालीन हैं। नंदीसूत्र तो वल्लभी बाचना के नायक देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की ही रचना मानी जाती है। उसका भी इस ग्रन्थ में उल्लेख होने से, तथा यहाँ के विषय-विवरण को उसे देखकर पूर्ण कर लेने की सूचना से यह प्रमाणित होता है कि इस श्रुतांग को अपना वर्तमान रूप, नंदीसूत्र की रचना के पश्चात् अर्थात् वीर. निर्वाण से लगभग १००० वर्ष पश्चात् प्राप्त हुआ है। यही बात प्रायः अन्य श्रुतांगों के सम्बन्ध में भी घटित होती है। तथापि इसमें सन्देह नहीं कि विषय-वर्णन प्राचीन है, और आचार्य-परम्परागत है। इसमें हमें महावीर के जीवन के अतिरिक्त उनके अनेक शिष्यों गृहस्थ-अनुयायियों तथा अन्य तीर्थकों का परिचय मिलता है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक मंखलि गोशाल के जीवन का जितना विस्तृत परिचय यहां मिलता है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं। स्थान-स्थान पर पार्श्वापत्यों अर्थात् पार्श्वनाथ के अनुयाइयों, तथा उनके द्वारा मान्य चातुर्याम धर्म के उल्लेख मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि महावीर के समय में यह निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय स्वतंत्र रूप से प्रचलित था। उसका महावीर द्वारा प्रतिपादित पंचमहाव्रत रूप धर्म से बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध था, एवं उसका क्रमशः महावीर के सम्प्रदाय में समावेश होना प्रारम्भ हो गया था। ऐतिहासिक व राजनैतिक दृष्टि से सातवें शतक में उल्लिखित, वैशाली में हुए महाशिलाकण्टक संग्राम तथा रथ-मुसल संग्राम, इन दो महायुद्धों का वर्णन अपूर्व है। कहा गया है कि इन युद्धों में एक ओर वज्जी एवं विदेहपुत्र थे, और दूसरी ओर नौ मल्लकी, नौ लिच्छवी, काशी, कौशल एवं अठारह गणराजा थे। इन युद्धों में वज्जी, विदेहपुत्र कुणिक (अजातशत्रु) की विजय हुई। प्रथम युद्ध में ८४ और दूसरे युद्ध में ९६ लाख लोग मारे गये। २१, २२ और २३ वें शतक वनस्पति शास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ नानाप्रकार से बनस्पति का वर्गीकरण किया गया है; एवं उनके कंद, मूल, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज के सजीवत्व, निर्जीवत्व की दृष्टि से विचार किया गया है।


क्रमश २७........
इसके मूल लेखक है -
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए., डी.लिट्., एल.एल.बी.,

2 comments:

  1. Udan Tashtari 22 जून, 2010

    आभार महत्वपूर्ण जानकारी का.

  2. राज भाटिय़ा 23 जून, 2010

    बहुत ही सुंदर जानकारी धन्यवाद

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