जैन साहित्य इतिहास -26

Posted: 20 जून 2010
गतांग से आगे ....
४. समवायांग -

इस श्रुतांग में २७५ सूत्र हैं। अन्य कोई स्कंध, अध्ययन वा उद्देशक आदि रूपसे विभाजन नहीं हैं। स्थानांग के अनुसार यहां भी संख्या के क्रम से वस्तुओं का निर्देश और कहीं कहीं उनके स्वरूप व भेदोपभेदोंका वर्णन किया गया है। आत्मा एक है; लोक एक है; धर्म अधर्म एक-एक हैं; इत्यादि क्रम के २,३,४ वस्तुओं को गिनाते हुए १७८ वें सूत्रमें १०० तक संख्या पहुंची है, जहां बतलाया गया है कि शतविषा नक्षत्र में १०० तारे हैं, पार्श्व अरहंत तथा सुधर्माचार्य की पूर्णायु सौ वर्ष की थी, इत्यादि।

इसके पश्चात् २००, ३०० आदि क्रम से वस्तु-निर्देश आगे बढ़ा है। और यहां कहा गया है कि श्रमण भगवान् महावीर के तीन सौ शिष्य १४ पूर्वों के ज्ञाता थे, और ४०० वादी थे। इसी प्रकार शतक्रम से १९१ वें सूत्र पर संख्या दस सहस्त्र पर पहुंच गई है। तत्पश्चात् संख्या शतसहस्त्र (लाख) के क्रमसे बढ़ी है, जैसे अरहन्त पार्श्व के तीन शत-सहस्त्र और सत्ताईस सहस्त्र उत्कृष्ट श्राविका संघ था। इस प्रकार २०८ वें सूत्रतक दशशत-सहस्त्र पर पहुंचकर आगे कोटि क्रमसे कथन करते हुए २१० वें सूत्रमें भगवान् ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थंकर महावीर वर्द्धमान तक का अन्तर काल एक सागरोपम कोटाकोटि निर्दिष्ट किया गया है।

तत्पश्चात् २११ वें से २२७ वें सूत्र तक आयारांग आदि बारहों अंगों के विभाजन और विषय का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। यहां इन रचनाओं को द्वादशांग गणिपिटक कहा गया है। इसके पश्चात् जीवराशि का विवरण करते हुए स्वर्ग और नरक भूमियों का वर्णन पाया जाता है।

२४६ वें सूत्र से अन्त के २७५ वें सूत्रतक कुलकरों, तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, तथा बलदेव और वासुदेवों एवं उनके प्रतिशत्रुओं (प्रतिवासुदेवों) का उनके पिता, माता, जन्मनगरी, दीक्षास्थान आदि नामावली-क्रम से विवरण किया गया है। इस भाग को हम संक्षिप्त जैन पुराण कह सकते हैं। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि सूत्र क्र. १३२ में उत्तम (शलाका) पुरुषों की संख्या ५४ निर्दिष्ट की गई है, ६३ नहीं, अर्थात् नौ प्रतिवासुदेवों को शलाका पुरुषों में सम्मिलित नहीं किया गया।

४६ संख्या के प्रसंग में दृष्टिवाद अंग के मातृकापदों तथा ब्राह्मी लिपि के ४६ मातृका अक्षरों का उल्लेख हुआ है। सूत्र १२४ से १३० वें सूत्र तक मोहनीय कर्म के ५२ पर्यायवाची नाम गिनाये गये हैं, जैसे क्रोध, कोप, रोष, द्वेष, अक्षम, संज्वलन कलह, आदि। अनेक स्थानों में (सू. १४१, १६२) ऋषभ अरहंत को कोसलीय विशेषण लगाया गया है, जो उनके कोशल देशवासी होने का सूचक है। इससे महावीर के साथ जो अन्यत्र `वेसालीय' विशेषण लगा पाया जाता हैं, उससे उनके वैशाली के नागरिक होने की पुष्टि होती है। १५० वें सूत्र में लेख, गणित, रूप, नाट्य, गीत, वादित्र आदि बहत्तर कलाओं के नाम निर्दिष्ट हुए हैं।

इस प्रकार जैन सिद्धान्त व इतिहास की परम्परा के अध्ययन की दृष्टि से यह श्रुतांग महत्वपूर्ण है। अधिकांश रचना गद्य रूप है, किन्तु बीच बीच में नामावलियां व अन्य विवरण गाथाओं द्वारा भी प्रस्तुत हुए हैं।
क्रमश २७........
इसके मूल लेखक है -
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए., डी.लिट्., एल.एल.बी.,

1 comments:

  1. Udan Tashtari 20 जून, 2010

    बहुत आभार इस पोस्ट के लिए.

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