सरदारशहर के गांघी विद्या मन्दिर स्थित इंजनियरिंग कोलेज मैदान में आज सुबह ८:३० तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारवे आचार्य के रूप में आचार्य श्री महाश्रमण का विधिवत आचार्यपट पर अभिषेक हुआ!. सम्पूर्ण धर्म संघ कि ओर से मुनि सुमेरमलजी ने नव नियुक्त आचार्य महाश्रमण जी कों उत्तरीय (पछेवड़ी)ओढाकर आचार्य पदाभिषेक परम्परा का निर्वहन किया! साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी ने नवीन धर्मध्वज रजोहरण व प्रमार्जनी समर्पित कर गुरु के प्रति आस्था प्रकट क़ी. साध्वी प्रमुखा कनक प्रभाजी एवं मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुतविभा समेत सम्पूर्ण धर्म संघ ने अपने नये गुरु क़ी वन्दना क़ी. समारोह में देश विदेश से करीब ५० हजार लोगो कि उपस्थिति दर्ज हुई. मुंबई से स्पेशल ट्रेन क़ी व्यवस्था कि गई थी. भारत के पूर्व प्रधान मंत्री लालक्रष्ण आडवाणी, श्री राजनाथसिह एवं अनेक सासद मंत्री विधायक भी ईस शुभ अवसर पर उपस्थित रहे! प्रशानिक अधिकारी पुरे लावलस्कर के साथ व्यवस्था बनाए रखने में योगदान कर रहे थे! पूरा कर्यक्रम पांच चरणों में विभाजित था!
आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ के संदेशो क़ी कैसेट बजते ही पूरा पंडाल धर्ममय हो गया! कोलकता के कारीगरों द्वारा ख़ास रूप से तैयार किया गया सूर्य क़ी आकृति के बिच पट्ट के बीचो बिच संखनाद क़ी मधुर आवाजो एवं मन्त्रो उच्चारण के साथ आचार्य महाश्रमण आचार्य के पट्ट पर बिराजे! इस मुख्य घटना कों टीवी के माध्यम देश विदेश के लाखो लोगो ने देखा एवं नव नियुक्त आचार्य क़ी जय जयकार पुरे ब्रह्माण्ड में गूंजी..
यशस्विता के शिखर की और निरंतर बढ़ते हुए मानव मात्र को शान्ति और आनंदमय जीवन जीने का बोध पाठ सुनाते सुनाते लोकमहर्षि आचार्य महाप्रज्ञ ९ मई २०१० को अचानक मोंन हो गये !
अनुव्रत अनुशास्ता महाप्रज्ञ मूलत: जैन तेरापंथ धर्मसंघ के दसवे आचार्य थे. पद्रह वर्ष के अपने छोटे- से आचार्य काल में महाप्रज्ञ ने अनेक उल्लेखनीय कार्य किये और उनकी ख्याति विश्व के बोद्धिक जगत में व्याप्त हो गई!
तेरह वर्ष पूर्व अपने शिष्य महाश्रमण मुदित को युवाचार्य पद देकर तेरापंथ का भावी आचार्य घोषित कर दिया था ! और अब आचार्य महाश्रमण तेरापंथ के ग्यारवे आचार्य है.
तेरापंथ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु श्रमण परंपरा के महान संवाहक थे। वि.स. १८३२ में आचार्य भिक्षु ने अपने प्रमुख शिष्य भारमलजी को अपना उतराधिकारी घोषित किया। उसी समय संघीय मर्यादाओं का भी निर्माण किया। उन्होंने पहला मर्यादा पत्र इसी वर्ष मार्ग शीर्ष कृष्णा सप्तमी को लिखा। उसके बाद समय समय पर नई मर्यादाओं के निमार्ण से संघ को सुदृढ करते रहे। एक आचार्य में संघ की शक्ति को केन्द्रित कर उन्होंने सुदृढ संगठन की निव डाली। इससे अपने अपने शिष्य बनाने की परंपरा का विच्छेद हो गया। भावी आचार्य के चुनाव का दायित्व भी उन्होंने वर्तमान आचार्य को सौंपा। आज तेरापंथ धर्म संघ अनुशासित - मर्यादित और व्यवस्थित धर्म संघ है, इसका श्रेय आचार्य भिक्षु कृत इन्हीं मर्यादाओं को है।
तेरापंथ धर्म संध के आचार्य पद का महत्व आचार्य भिक्षु ने दो पक्तियों में विस्तृत किया
तात्पर्य स्पष्ट है की पूरा घर्म संघ एक आचार्य के अनुशासन में रहे! ९०० साधू, साध्वीया, श्रमण , श्रमणीया, श्रावक श्राविकाए सभी एक आचार्य के शासन में चले! कोई भी अपने टोले (ग्रुप ) बनाकर धर्ममत विभाजन नही कर सकता! आचार्य के अधिकार में है साधू-साध्वी, श्रमण- श्रमणीयो के शिक्षा, दीक्षा, विहार, चातुर्मास इत्यादि, ...
तेरापंथ धर्म संध की सघीय व्यवस्थाओं को देख मै दंग रह जाता हु ! इतनी महत्वपूर्ण एवं अनुशासित ढंग से संघ एवं धर्म की पालना करते हुए एक आचार्य सफलता पूर्वक अपने दातित्व का निर्वाह कैसे करते होंगे ?
९०० साधू- साध्वीया, श्रमण- श्रमणीयो, एवं सैकड़ो श्रावक- श्राविकाओं को सम्भालना एवं धर्म संघ एवं आस्था से बांधे रखना बड़ा ही दुर्लभ है! आज के युग में हम एक परिवार को एक धागे में पिरोके नही रख सकते तब तेरापंथ धर्मसंघ के इस विटाट स्वरूप को एक धागे में पिरोकर रखना, वास्तव में कोई महान देव पुरुष ही होगा जो तेरापंथ के आचार्य पद को शुभोषित कर रहे है!
राजस्थान के इतिहासिक नगर सरदारशहर में पिता झुमरमल एवं माँ नेमादेवी के घर १३ मई १९६२ को जन्म लेने वाला बालक मोहन के मन में मात्र १२ वर्ष की उम्र में धार्मिक चेतना का प्रवाह फुट पड़ा एवं ५ मई १९७४ को तत्कालीन आचार्य तुलसी के दिशा निर्दशानुसार मुनि श्री सुमेरमलजी "लाडनू " के हाथो बालक मोहन दीक्षित होकर जैन साधू बन गये ! धर्म परम्पराओ के अनुशार उन्हें नया नाम मिला "मुनि मुदित"
९ सितम्बर १९८९ को लाडनू शहर में मुनि मुदित को महाश्रमण पद दिया गया! परम्परा के अनुशार जब आचार्य तुलसी नही रहे और आचार्य महाप्रज्ञ विधिवत आचार्य बने तो महाश्रमण मुदित को अपना उतराधिकारी घोषित करते हुए युवाचार्य महाश्रमण नाम दिया ! आज तेरापंथ धर्म संध को सूर्य से तेज लिए चाँद भरी धार्मिक,आध्यात्मिक मधुरता लिए ११ वे आचार्य के रूप में आचार्य महाश्रमण मिल गया है! विश्व के कोने कोने में भैक्षव (भिक्षु) शासन की जय जयकार हो रही है!
आचार्य महाप्रज्ञ एवं आचार्य तुलसी से शासन प्रसासन के गुण सीखते हुए आचार्य महाश्रमण
आचार्य श्री महाश्रमण मानवता के लिए समर्पित जैन तेरापंथ के उज्जवल भविष्य है। प्राचीन गुरू परंपरा की श्रृंखला में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा अपने उतराधिकारी के रूप में मनोनीत युवाचार्य महाश्रमण विनम्रता की प्रतिमूर्ति है। अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी की उन्होंने अनन्य सेवा की। तुलसी-महाप्रज्ञ जैसे सक्षम महापुरूषों द्वारा वे तराशे गये है। १६ फरवरी १९८६, उदयपुर में महाप्रज्ञ के अंतरंग सहयोगी बने। १३ मई १९८६, ब्यावर में वे अग्रगण्य (ग्रुप लीडर) बने। वे अल्पभाषी है।
जन्ममात प्रतिभा के धनी आचार्य महाश्रमण अपने चिंतन को निर्णय व परिणाम तक पहुंचाने में बडे सिद्धहस्त हैं। उसी की फलश्रुति है कि उन्होंने आचार्य महाप्रज्ञ को उनकी जनकल्याणकारी प्रवृतियों के लिए युगप्रधान पद हेतु प्रस्तुत किया। हमारे ग्यारवे आचार्य श्री महाश्रमण उम्र से युवा है, उनकी सोच गंभीर है युक्ति पैनी है, दृष्टि सूक्ष्म है, चिंतन प्रैढ़ है तथा वे कठोर परिश्रमि है। उनकी प्रवचन शैली दिल को छूने वाली है। महाश्रमण की प्रज्ञा एवं प्रशासनिक सूझबूझ बेजोड़ है।
जैन तेरापंथ के आध्यप्रवत्क आचार्य भिक्षु प्रथम आचार्य बने . ३०० वर्षो में तेरापंथ धर्मसंघ ने एक से एक प्रखर विद्द्वान आचार्यो का वर्धहस्त मिला है. इसी परम्परा के पूर्व दस आचार्यो कों चित्र के माध्यम से वन्दन करते है!
(मेरा भाग्य रहा है क़ी मुझे समय समय पर आचार्य महाश्रमण जी के दर्शन एवं सेवा का लाभ मिला है. कई बार गुरु से आशीर्वाद स्वरूप ज्ञान भी मिला मार्गदर्शन भी मिला जो मेरे सामाजिक कार्यो में एवं मेरे जीवन उपयोगी रहा! )
(हरियाणा के भिवानी में जब आपश्री का चतुर्मास था तब गुरु चरणों में मुझे अपनी बात रखने का अवसर मिला! )
आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ के संदेशो क़ी कैसेट बजते ही पूरा पंडाल धर्ममय हो गया! कोलकता के कारीगरों द्वारा ख़ास रूप से तैयार किया गया सूर्य क़ी आकृति के बिच पट्ट के बीचो बिच संखनाद क़ी मधुर आवाजो एवं मन्त्रो उच्चारण के साथ आचार्य महाश्रमण आचार्य के पट्ट पर बिराजे! इस मुख्य घटना कों टीवी के माध्यम देश विदेश के लाखो लोगो ने देखा एवं नव नियुक्त आचार्य क़ी जय जयकार पुरे ब्रह्माण्ड में गूंजी..
(आचार्य महाश्रमण, आचार्य महाप्रज्ञ एवं आचार्य तुलसी के संग )
तेरापंथ के ११ वे आचार्य के रूप में पदाभिषेक आचार्य श्री महाश्रमण, युगप्रधान गणाधिपति आचार्यश्री तुलसी, एवं आचार्य महाप्रज्ञ के सक्षम उतराधिकारी हैं। बुद्धि,प्रज्ञा,विनय और समर्पण का उनके जीवन में अद्भुत संयोग है। यशस्विता के शिखर की और निरंतर बढ़ते हुए मानव मात्र को शान्ति और आनंदमय जीवन जीने का बोध पाठ सुनाते सुनाते लोकमहर्षि आचार्य महाप्रज्ञ ९ मई २०१० को अचानक मोंन हो गये !
अनुव्रत अनुशास्ता महाप्रज्ञ मूलत: जैन तेरापंथ धर्मसंघ के दसवे आचार्य थे. पद्रह वर्ष के अपने छोटे- से आचार्य काल में महाप्रज्ञ ने अनेक उल्लेखनीय कार्य किये और उनकी ख्याति विश्व के बोद्धिक जगत में व्याप्त हो गई!
तेरह वर्ष पूर्व अपने शिष्य महाश्रमण मुदित को युवाचार्य पद देकर तेरापंथ का भावी आचार्य घोषित कर दिया था ! और अब आचार्य महाश्रमण तेरापंथ के ग्यारवे आचार्य है.
तेरापंथ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु श्रमण परंपरा के महान संवाहक थे। वि.स. १८३२ में आचार्य भिक्षु ने अपने प्रमुख शिष्य भारमलजी को अपना उतराधिकारी घोषित किया। उसी समय संघीय मर्यादाओं का भी निर्माण किया। उन्होंने पहला मर्यादा पत्र इसी वर्ष मार्ग शीर्ष कृष्णा सप्तमी को लिखा। उसके बाद समय समय पर नई मर्यादाओं के निमार्ण से संघ को सुदृढ करते रहे। एक आचार्य में संघ की शक्ति को केन्द्रित कर उन्होंने सुदृढ संगठन की निव डाली। इससे अपने अपने शिष्य बनाने की परंपरा का विच्छेद हो गया। भावी आचार्य के चुनाव का दायित्व भी उन्होंने वर्तमान आचार्य को सौंपा। आज तेरापंथ धर्म संघ अनुशासित - मर्यादित और व्यवस्थित धर्म संघ है, इसका श्रेय आचार्य भिक्षु कृत इन्हीं मर्यादाओं को है।
तेरापंथ धर्म संध के आचार्य पद का महत्व आचार्य भिक्षु ने दो पक्तियों में विस्तृत किया
"तेरापंथ की क्या पहचान ?
एक गुरु और विधान !!"
तात्पर्य स्पष्ट है की पूरा घर्म संघ एक आचार्य के अनुशासन में रहे! ९०० साधू, साध्वीया, श्रमण , श्रमणीया, श्रावक श्राविकाए सभी एक आचार्य के शासन में चले! कोई भी अपने टोले (ग्रुप ) बनाकर धर्ममत विभाजन नही कर सकता! आचार्य के अधिकार में है साधू-साध्वी, श्रमण- श्रमणीयो के शिक्षा, दीक्षा, विहार, चातुर्मास इत्यादि, ...
तेरापंथ धर्म संध की सघीय व्यवस्थाओं को देख मै दंग रह जाता हु ! इतनी महत्वपूर्ण एवं अनुशासित ढंग से संघ एवं धर्म की पालना करते हुए एक आचार्य सफलता पूर्वक अपने दातित्व का निर्वाह कैसे करते होंगे ?
९०० साधू- साध्वीया, श्रमण- श्रमणीयो, एवं सैकड़ो श्रावक- श्राविकाओं को सम्भालना एवं धर्म संघ एवं आस्था से बांधे रखना बड़ा ही दुर्लभ है! आज के युग में हम एक परिवार को एक धागे में पिरोके नही रख सकते तब तेरापंथ धर्मसंघ के इस विटाट स्वरूप को एक धागे में पिरोकर रखना, वास्तव में कोई महान देव पुरुष ही होगा जो तेरापंथ के आचार्य पद को शुभोषित कर रहे है!
राजस्थान के इतिहासिक नगर सरदारशहर में पिता झुमरमल एवं माँ नेमादेवी के घर १३ मई १९६२ को जन्म लेने वाला बालक मोहन के मन में मात्र १२ वर्ष की उम्र में धार्मिक चेतना का प्रवाह फुट पड़ा एवं ५ मई १९७४ को तत्कालीन आचार्य तुलसी के दिशा निर्दशानुसार मुनि श्री सुमेरमलजी "लाडनू " के हाथो बालक मोहन दीक्षित होकर जैन साधू बन गये ! धर्म परम्पराओ के अनुशार उन्हें नया नाम मिला "मुनि मुदित"
९ सितम्बर १९८९ को लाडनू शहर में मुनि मुदित को महाश्रमण पद दिया गया! परम्परा के अनुशार जब आचार्य तुलसी नही रहे और आचार्य महाप्रज्ञ विधिवत आचार्य बने तो महाश्रमण मुदित को अपना उतराधिकारी घोषित करते हुए युवाचार्य महाश्रमण नाम दिया ! आज तेरापंथ धर्म संध को सूर्य से तेज लिए चाँद भरी धार्मिक,आध्यात्मिक मधुरता लिए ११ वे आचार्य के रूप में आचार्य महाश्रमण मिल गया है! विश्व के कोने कोने में भैक्षव (भिक्षु) शासन की जय जयकार हो रही है!
आचार्य महाप्रज्ञ एवं आचार्य तुलसी से शासन प्रसासन के गुण सीखते हुए आचार्य महाश्रमण
आचार्य श्री महाश्रमण मानवता के लिए समर्पित जैन तेरापंथ के उज्जवल भविष्य है। प्राचीन गुरू परंपरा की श्रृंखला में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा अपने उतराधिकारी के रूप में मनोनीत युवाचार्य महाश्रमण विनम्रता की प्रतिमूर्ति है। अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी की उन्होंने अनन्य सेवा की। तुलसी-महाप्रज्ञ जैसे सक्षम महापुरूषों द्वारा वे तराशे गये है। १६ फरवरी १९८६, उदयपुर में महाप्रज्ञ के अंतरंग सहयोगी बने। १३ मई १९८६, ब्यावर में वे अग्रगण्य (ग्रुप लीडर) बने। वे अल्पभाषी है।
जन्ममात प्रतिभा के धनी आचार्य महाश्रमण अपने चिंतन को निर्णय व परिणाम तक पहुंचाने में बडे सिद्धहस्त हैं। उसी की फलश्रुति है कि उन्होंने आचार्य महाप्रज्ञ को उनकी जनकल्याणकारी प्रवृतियों के लिए युगप्रधान पद हेतु प्रस्तुत किया। हमारे ग्यारवे आचार्य श्री महाश्रमण उम्र से युवा है, उनकी सोच गंभीर है युक्ति पैनी है, दृष्टि सूक्ष्म है, चिंतन प्रैढ़ है तथा वे कठोर परिश्रमि है। उनकी प्रवचन शैली दिल को छूने वाली है। महाश्रमण की प्रज्ञा एवं प्रशासनिक सूझबूझ बेजोड़ है।
जैन तेरापंथ के आध्यप्रवत्क आचार्य भिक्षु प्रथम आचार्य बने . ३०० वर्षो में तेरापंथ धर्मसंघ ने एक से एक प्रखर विद्द्वान आचार्यो का वर्धहस्त मिला है. इसी परम्परा के पूर्व दस आचार्यो कों चित्र के माध्यम से वन्दन करते है!
(मेरा भाग्य रहा है क़ी मुझे समय समय पर आचार्य महाश्रमण जी के दर्शन एवं सेवा का लाभ मिला है. कई बार गुरु से आशीर्वाद स्वरूप ज्ञान भी मिला मार्गदर्शन भी मिला जो मेरे सामाजिक कार्यो में एवं मेरे जीवन उपयोगी रहा! )
(हरियाणा के भिवानी में जब आपश्री का चतुर्मास था तब गुरु चरणों में मुझे अपनी बात रखने का अवसर मिला! )
आभार जानकारी का.
सुन्दर जानकारी.