गतांक से आगे ......
दक्षिण भारत व लंका में जैन धर्म तथा राजवंशों से संबंध -
एक जैन परम्परानुसार मौर्यकाल में जैनमुनि भद्रबाहु ने चन्द्रगुप्त सम्राट् को प्रभावित किया था और वे राज्य त्याग कर, उन मुनिराज के साथ दक्षिण को गए थे। मैसूर प्रान्त के अन्तर्गत श्रवणबेलगोला में अब भी उन्हीं के नाम से एक पहाड़ी चन्द्रगिरि कहलाती है, और उस पर वह गुफा भी बतलाई जाती है, जिसमें भद्रबाहु ने तपस्या की थी, तथा राजा चन्द्रगुप्त उनके साथ अन्त तक रहे थे। इस प्रकार मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के काल में जैनधर्म का दक्षिणभारत में प्रवेश हुआ माना जाता है। किन्तु बौद्धों के पालि साहित्यान्तर्गत महावंश में जो लंका के राजवंशों का विवरण पाया जाता है, उसके अनुसार बुद्धनिर्वाण से १०६ वर्ष पश्चात् पांडुकाभय राजा का अभिषेक हुआ और उन्होंने अपने राज्य के प्रारंभ में ही अनुराधपुर की स्थापना की, जिसमें उन्होंने निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए अनेक निवासस्थान बनवाए। इस उल्लेख पर से स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि बुद्ध निर्वाण सं. के १०६ वें वर्ष में भी लंका में निर्ग्रन्थों का अस्तित्व था। लंका में बौद्ध धर्म का प्रवेश अशोक के पुत्र महेन्द्र द्वारा बुद्धनिर्वाण से २३६ वर्ष पश्चात् हुआ कहा गया है। इस पर से लंका में जैन धर्म का प्रचार, बौद्ध धर्म से कम से कम १३० वर्ष पूर्व हो चुका था, ऐसा सिद्ध होता है। संभवतः सिंहल में जैनधर्म दक्षिणभारत में से ही होता हुआ पहुँचा होगा। जिस समय उत्तरभारत में १२ वर्षीय दुर्भिक्ष के कारण भद्रबाहु ने सम्राट् चन्द्रगुप्त तथा विशाख मुनि संघ के साथ दक्षिणापथ की ओर विहार किया, तब वहाँ की जनता में जैनधर्म का प्रचार रहा होगा और इसी कारण भद्रबाहु को अपने संघ का निर्वाह होने का विश्वास हुआ होगा, ऐसा भी विद्वानों का अनुमान है। चन्द्रगुप्त के प्रपौत्र सम्प्रति, एक जैन परम्परानुसार, आचार्य सुहस्ति के शिष्य थे, और उन्होंने जैनधर्म का स्तूप, मंदिर आदि निर्माण कराकर, देशभर में उसी प्रकार प्रचार किया जिसप्रकार कि अशोक ने बौद्धधर्म का किया था। रामनद और टिन्नावली की गुफाओं में ब्राह्मीलिपि के शिलालेख यद्यपि अस्पष्ट हैं, तथापि उनसे एवं प्राचीनतम तामिल ग्रंथों से उस प्रदेश में अति प्राचीनकाल में जैनधर्म का प्रचार सिद्ध होता है। तामिल काव्य कुरल व ठोलकप्पियम पर जैनधर्म का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
मणिमेकलइ यद्यपि एक बौद्ध काव्य है, तथापि उसमें दिगम्बर मुनियों और उनके उपदेशों के अनेक उल्लेख आये हैं। जीवक चिन्तामणि, सिलप्पडिकारं, नीलकेशी, यशोधर काव्य आदि तो स्पष्टतः जैन कृतियाँ ही हैं। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य समन्नभद्र के कांची से सम्बंध का उल्लेख मिलता है। कुन्दकुन्दाचार्य का सम्बंध, उनके एक टीकाकार, शिवकुमार महाराज से बतलाते हैं। प्राकृत लोक-विभाग के कर्ता सर्वनन्दि (सन् ४५८) कांची नरेश सिंहवर्मा के समकालीन कहे गये हैं। दर्शनसार के अनुसार द्राविड संघ की स्थापना पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि द्वारा मदुरा में सन् ४७० में की गई थी। इस प्रकार के अनेक उल्लेखों और नाना घटनाओं से सुप्रमाणित होता है कि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में तामिल प्रदेश में जैन धर्म का अच्छा प्रचार हो चुका था।
क्रमश .....18
**********
इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान च्छा प्रचार हो चुका था।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी अमुल्य टीपणीयो के लिये आपका हार्दिक धन्यवाद।
आपका हे प्रभु यह तेरापन्थ के हिन्दी ब्लोग पर तेह दिल से स्वागत है। आपका छोटा सा कमेन्ट भी हमारा उत्साह बढता है-