गातांक से आगे....
दिगम्बर आम्नाय में गणभेद -
दिगम्बर मान्यतानुसार महावीर निर्वाण के पश्चात् ६८३ वर्ष की आचार्य परम्परा का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। कहा गया है कि तत्पश्चात् किसी समय अर्हद्बलि आचार्य हुए। उन्होंने पंचवर्षीय युगप्रतिक्रमण के समय एक विशाल मुनिसम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें सौ योजन के यति एकत्र हुए। उनकी भावनाओं पर से उन्होंने जान लिया कि अब पक्षपात का युग आ गया। अतएव, उन्होंने नंदि, वीर, अपराजित, देव, पंचस्तूप, सेन, भद्र, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामों से भिन्न भिन्न संघ स्थापित किये, जिनसे कि निकट अपनत्व की भावना द्वारा धर्म-वात्सल्य और प्रभावना बढ़ सके।
दर्शनसार के अनुसार, विक्रम के ५२६ वर्ष पश्चात् दक्षिण मथुरा अर्थात् मदुरा नगर में पूज्यपाद के शिष्य वज्रनंदि द्वारा द्राविडसंघ की उत्पत्ति हुई। इस संघ के मतानुसार बीजों में जीव नहीं होता, तथा प्राशुक-अप्राशुक का कोई भेद नहीं माना जाता; एवं बसति में रहने, वाणिज्य करने व शीतल नीर से स्नान करने में भी मुनि के लिये कोई पाप नहीं होता। वि. के २०५ वर्ष पश्चात् कल्याणनगर में श्वेताम्बर मुनि श्रीकलश द्वारा यापनीय संघ की स्थापना हुई कही गई है। वि. की पांचवीं-छठी शताब्दी के ताम्रपटों आदि में भी यापनीय संघ के आचार्यों का उल्लेख मिलता है। काष्ठासंघ की उत्पत्ति वि. सं. के ७५३ वर्ष पश्चात् नंदीतट ग्राम में कुमारसेन मुनि द्वारा हुई। इस संघ में स्त्रियों को दीक्षा देने, तथा पीछी के स्थान में मुनियों द्वारा चौरी रखने का विधान पाया जाता है। माथुरसंघ की स्थापना, काष्ठासंघ की स्थापना से २०० वर्ष पश्चात् अर्थात् वि. सं. के ९५३ वर्ष व्यतीत होने पर मथुरा में रामसेन मुनि द्वारा हुई कही गई है। इस संघ की विशेषता यह बतलाई गई है कि इसमें मुनियों द्वारा पीछी रखना छोड़ दिया गया। काष्ठासंघ की उत्पत्ति से १८ वर्ष पश्चात् अर्थात् वि. सं. ९७१ में दक्षिणदेश के विन्ध्यपर्वत के पुष्कल नामक स्थान पर वीरचन्द्र मुनि द्वारा भिल्लक संघ की स्थापना हुई। उन्होंने अपना एक अलग गच्छ बनाया, प्रतिक्रमण तथा मुनिचर्या की भिन्न व्यवस्था की, तथा वर्णाचार को कोई स्थान नहीं दिया। इस संघ का दर्शनसार के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु इस एक उल्लेख पर से भी प्रमाणित होता है कि नौंवी दसवीं शताब्दी में एक जैन मुनि ने विन्ध्यपर्वत के भीलों में भी धर्म प्रचार किया और उनकी क्षमता के विचारानुसार धर्मपालन की कुछ विशेष व्यवस्थाएं बनाई।
श्रवणबेलगोला से प्राप्त हुए ५०० से भी अधिक शिलालेखों द्वारा हमें अनेक शताब्दियों की विविध आम्नायों तथा आचार्य-परम्पराओं का विवरण मिलता है। सिद्धरबस्ति के एक शिलालेख में कहा गया है कि अर्हद्बलि ने अपने दो शिष्यों, पुष्पदंत और भूतबलि, द्वारा बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त की और उन्होंने मूल संघ को चार शाखाओं में विभाजित किया-सेन, नंदि, देव और सिंह। अनेक लेखों में जो संघों, गणों, गच्छों आदि के उल्लेख मिलते हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं :- मूलसंघ, नंदिसंघ, नमिलूरसंघ, मयूरसंघ, किट्टूरसंघ, कोल्लतूरसंघ, नंदिगण, देशीगण, द्रमिल (तमिल) गण, काणूर गण, पुस्तक या सरस्वती गच्छ, वक्रगच्छ, तगरिलगच्छ, मंडितटगच्छ, इंगुलेश्वरबलि, पनसोगे बलि, आदि।
क्रमश .....16
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान
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बहुत आभार.
बहुत सुंदर श्रंखला, शुभकामनाएं.
रामराम.
Semlani ji
aabhaaree hoon
sheeghr sampark karataa hoon