जैन:प्राचीन इतिहास-18

Posted: 15 फ़रवरी 2010
गातांक से आगे....          

कदम्ब राजवंश -
कदम्बवंशी अविनीत महाराज के दानपत्र में उल्लेख है कि उन्होंने देसीगण, कुन्दकुन्दान्वय के
चन्द्रनंदि भट्टारक को जैनमंदिर के लिये एक गांव का दान दिया। यह दानपत्र शक सं. ३८८ (ई. सं. ४६६) का है और मर्करा नामक स्थान से मिला है। इसी वंश के युवराज काकुत्स्थ, द्वारा भगवान् अर्हन्त के निमित्त श्रुतकीर्त्ति सेनापति को भूमि का दान दिये जाने का उल्लेख है। इसी राजवंश के एक दो अन्य दानपत्र बड़े महत्वपूर्ण हैं। इनमें से एक में श्रीविजय शिवमृगेश वर्मा द्वारा अपने राज्य के चतुर्थ वर्ष में एक ग्राम का दान उसे तीन भागों में बांटकर दिये जाने का उल्लेख है। एक भाग `भगवत् अर्हद् महाजिनेन्द्र देवता' को दिया गया, दूसरा `श्वेतपट महाश्रमण संघ' के उपभोग के लिए, और तीसरा `निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ' के उपयोग के लिए। दूसरे लेख में शान्ति वर्मा के पुत्र श्री मृगेश द्वारा अपने राज्य के आठवें वर्ष में यापनीय, निर्ग्रन्थ और कूर्चक मुनियों के हेतु भूमि-दान दिये जाने का उल्लेख है। एक अन्य लेख में शान्तिवर्मा द्वारा यापनीय तपस्वियों के लिये एक ग्राम के दान का उल्लेख है। एक अन्य लेख में हरिवर्मा द्वारा सिंह सेनापति के पुत्र मृगेश द्वारा निर्मापित जैनमंदिर की अष्टान्हिका पूजा के लिये, तथा सर्वसंघ के भोजन के लिए एक गांव कूर्चकों के वारिषेणाचार्य संघ के हाथ में दिये जाने का उल्लेख है। इस वंश के और भी अनेक लेख हैं जिनमें जिनालयों के रक्षणार्थ व नाना जैन संघों के निमित्त ग्रामों और भूमियों के दान का उल्लेख है। उससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि पांचवीं छठी शताब्दी में जैन संघ के निर्ग्रन्थ (दिगम्बर), श्वेतपट, यापनीय वा कूर्चक शाखाएं सुप्रतिष्ठित सुविख्यात, लोकप्रिय और राज्य-सम्मान्य हो चुकी थीं। इनमें के प्रथम तीन मुनि-सम्प्रदायों का उल्लेख तो पट्टावलियों व जैन साहित्य में बहुत आया है, किन्तु कूर्चक सम्प्रदाय का कहीं अन्यत्र विशेष परिचय नहीं मिलता।

गंग राजवंश -

श्रवणबेलगोला के अनेक शिलालेखों तथा अभयचन्द्रकृत गोम्मटसार वृत्ति की उत्थानिका में उल्लेख मिलता है कि गंगराज की नींव डालने में जैनाचार्य सिंहनंदि ने बड़ी सहायता की थी। इस वंश के अविनीत नाम के राजा के प्रतिपालक जैनाचार्य विजयकीर्ति कहे गये हैं। सुप्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के कर्त्ता आचार्य पूज्यपाद देवनंदि इसी वंश के सातवें नरेश दुर्विनीत के राजगुरू थे, ऐसे उल्लेख मिलते हैं। इनके तथा शिवमार और श्रीपुरुष नामक नरेशों के अनेक लेखों में जैन मन्दिर निर्माण व जैन मुनियों को दान के उल्लेख भी मिलते हैं। गंगनरेश मारसिंह के विषय में कहा गया है कि उन्होंने अनेक भारी युद्धों में विजय प्राप्त करके नाना दुर्ग और किले जीतकर एवं अनेक जैन मंदिर और स्तम्भ निर्माण करा कर अन्त में अजितसेन भट्टारक के समीप बंकापुर में संल्लेखना विधि से मरण किया, जिसका काल शक सं. ८९६ (ई. सं. ९७४) निर्दिष्ट है। मारसिंह के उत्तराधिकारी राचमल्ल (चतुर्थ) थे, जिनके मंत्री चामुण्डराज ने श्रवणबेलगोल के विन्ध्यगिरि पर चामुण्डराय बस्ति निर्माण कराई और गोमटेश्वर की उस विशाल मूर्त्ति का उद्घाटन कराया जो प्राचीन भारतीय मूर्त्तिकला का एक गौरवशाली प्रतीक है। चामुण्डराय का बनाया हुआ एक पुराण ग्रन्थ भी मिलता है जो कन्नड भाषा में है। इसे उन्होंने शक सं. ९०० में समाप्त किया था। उसमें भी उन्होंने अपने ब्रह्मक्षत्र कुल तथा अजितसेन गुरु का परिचय दिया है। अनेक शिलालेखों में विविध गंगवंशी राजाओं, सामन्तों, मंत्रियों व सेनापतियों आदि के नामों, उनके द्वारा दिये गये दानों आदि धर्मकार्यों, तथा उनके संल्लेखना पूर्वक मरण के उल्लेख पाये जाते हैं। कन्नड कवि पोन्न द्वारा सन् ९३३ में लिखे गये शान्तिपुराणकी सन् ९७३ के लगभग एक धर्मिष्ट महिला आतिमब्बे ने एक सहस्त्र प्रतियाँ लिखाकर दान में बटवा दीं।

राष्ट्रकूट राजवंश -

सातवीं शताब्दी से दक्षिण-भारत में जिस राजवंश का बल व राज्य-विस्तार बढ़ा, उस राष्ट्रकूट वंश से तो जैनधर्म का बड़ा घनिष्ठ संबंध पाया जाता है। राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष प्रथम ने स्वयं प्रश्नोत्तर-रत्नमालिका की रचना की थी, जिसका तिब्बती भाषा में उसकी रचना के कुछ ही पश्चात् अनुवाद हो गया था और जिस पर से यह भी सिद्ध होता है कि राजा अमोघवर्ष राज्य छोड़कर स्वयं दीक्षित हो गये हो गये थे। उनके विषय में यह भी कहा पाया जाता है कि वे आदिपुराण के कर्ता जिनसेन के चरणों की पूजा करते थे। शाकटायन व्याकरण पर की अमोघवृत्ति नामक टीका उनके नाम से संबद्ध पाई जाती है, और उन्हीं के समय में महावीराचार्य ने अपने गणितसार नामक ग्रंथ की रचना की थी। वे कन्नड अलंकारशास्त्र `कविराजमार्ग' के कर्ता भी माने जाते हैं। उनके उत्तराधिकारी कृष्ण-तृतीय के काल में गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण को पूरा किया, इन्द्रनन्दि ने ज्वाला-मालिनी-कल्प की रचना की; सोमदेव ने यशस्तिलक चम्पू नामक काव्य रचा तथा पुष्पदंत ने अपनी विशाल, श्रेष्ठ अपभ्रंश रचनाएँ प्रस्तुत कीं। उन्होंने ही कन्नड के सुप्रसिद्ध जैन कवि पोन्न को उमय-भाषा चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित किया। उनके पश्चात् राष्ट्रकूट नरेश इन्द्रराज-चतुर्थ ने शिलालेखानुसार अपने पूर्वज अमोधवर्ष के समान राज्यपाट त्याग कर जैन मुनि दीक्षा धारण की थी, और श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर समाधिपूर्वक मरण किया था। श्रवणबेलगोला के अनेक शिलालेखों में राष्ट्रकूट नरेशों की जैनधर्म के प्रति आस्था, सम्मान-वृद्धि और दानशीलता के उल्लेख पाये जाते हैं। राष्ट्रकूटों के संरक्षण में उनकी राजधानी मान्यखेट एक अच्छा जैन केन्द्र बन गया था, और यही कारण है कि संवत् १०२९ के लगभग जब धारा के परमारवंशी राजा हर्षदेव के द्वारा मान्यखेट नगरी लूटी और जलाई गई, तब महाकवि पुष्पदंत के मुख से हठात् निकल पड़ा कि "जो मान्यखेट नगर दीनों और अनाथों का धन था, सदैव बहुजन पूर्ण और पुष्पित उद्यानवनों से सुशोभित होते हुए ऐसा सुन्दर था कि वह इन्द्रपुरी की शोभा को भी फीका कर देता था, वह जब धारानाथ की कोपाग्नि से दग्ध हो गया तब, अब पुष्पदंत कवि कहाँ निवास करें"। (अप. महापुराण-संधि ५०)
क्रमश .....19


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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान

2 comments:

  1. ताऊ रामपुरिया 15 फ़रवरी, 2010

    भौत सुंदर ऐतिहासिक जानकारी मिल रही है. बहुत आभार.

    रामराम.

  2. राज भाटिय़ा 15 फ़रवरी, 2010

    बहुत सुंदर जानकारी जी

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