
माणकगणी को पिता का वात्सल्य एवं माता की ममता अधिक समय तक प्राप्त नहीं हो सकी। उनकी शैच्चव अवस्था में ही माता पिता दोनों का देहावसान हो गया। लाला लिछमनदास ने अत्यन्त स्नेह के साथ बालक माणक का पालन पोषण किया एवं उसे धार्मिक संस्कारों से संस्कारित किया। बालक माणक भी अपने बाबा के प्रति अत्यन्त विन्रम था एवं उनके प्रति विच्चेष आदर भाव रखता था।
वि.स. १९२८ का चातुर्मास जयाचार्य ने जयपुर किया। उस चातुर्मास में बालक माणक को वैराग्य हुआ। बालक ने तत्वज्ञान सीखा और स्वंय को साधना के लिए तैयार कर लिया। वि.स. १९२८ फाल्गुन शुक्ला एकादच्ची को जयाचार्य द्वारा लाडनूं में माणकगणी की दीक्षा संस्कार सम्पन्न हुआ। उस समय उनकी आयु साढे सोलह वर्ष की थी।
मणाकगणी प्रकृति से विनम्र थे। उनकी बुद्धि तीक्षण थी। वे हर बात को बडी शीघ्रता से ग्रहण कर लेते थे।दीक्षा लेने के बाद कुछ ही वर्षो में उन्होंने आगमों का गंभीर और तलस्पर्च्ची ज्ञान प्राप्त किया। उनकी विच्चेषताओं से प्रभावित होकर जयाचार्य ने उन्हें दीक्षा के तीन वर्ष बाद ही अग्रणी बना दिया।
जयाचार्य के स्वर्गवास के पच्च्चात मघवागणी की अनुच्चासन में उन्होंने अपने जीवन का विकास किया। वि.स. १९४९ चैत्र कृष्णा द्वितीय को मघवागणी ने उन्हें अपना उतराधिकारी नियुक्त किया। युवाचार्य अवस्था में रहने का उन्हें केवल चार दिन का ही अवसर मिला। वि.स. १९४९ चैत्र कृष्णा अष्टमी को सरदारच्चहर में वे आचार्य पद पर आसीन हुए।
माणकगणी का वर्ण गौर, कद लम्बा और कण्ठ मधुर व तेज था। शारीरिक प्रकृति से वे इतने कोमल थे कि सर्दी लगने पर एक लौंग लिया करते। यदि उससे अधिक ले लेते तो उन्हें गर्मी का आभास होने लगता। वे लम्बी यात्राएं पसन्द करते थे। तेरापंथ के आचार्यो में हरियाणा में सर्वप्रथम पधारने वाले माणकगणी ही हैं। संघ विकास की दृष्टि से माणकगणी ने अपना समय उन क्षेत्रों को अधिक दिया जहां पूर्वाचयोर्ं का विराजना कम हो सका था।
माणकगणी का चिन्तन परम्परापोषित व रूढ नहीं था। उनके द्वारा धर्मसंघ में कई नये उन्मेष आने की संभावना थी। लेकिन धर्मसंघ उनकी शासना से लम्बे समय तक लाभान्वित नहीं हो सका। बयालीस वर्ष की अल्पायु में ही वि.स. १९५४ कार्तिक कृष्णा तृतीया को सुजानगढ में उनका अचानक स्वर्गवास हो गया है। वे आचार्य के रूप में पांच वर्ष ही संघ को सेवा दे सके। इस अल्प आचार्य काल के कारण ही वे अपने पीछे किसी उतराधिकारी को नियुक्त नहीं कर सके।
तेरापंथ धर्मसंघ एक आचार्य केन्द्रित धर्मसंघ है। माणकगणी दिवंगत हो गए। पीछे कोई युवाचार्य के रूप में नियुक्त नहीं। कौन दायित्व संभाले। समूचे धर्मसंघ के लिए एक महान चिन्ता का विषय था। पर दसरे शब्दों में कहें तो चिन्ता नहीं, कसौटी का समय था। उस समय समूचे संघ ने एकमत से सप्तम आचार्य के रूप में डालगणी को चुनकर कसौटी पर खरे उतरने का एक अपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किया।
माणकगणी के आचार्य काल में चालीस दीक्षाएं हुई। उनमें पन्द्रह साधु और पच्चीस साध्वियां थी।
6th Acharya
Achraya Shree Manaklalji |
Date of Birth | V. S. 1912. Bhadrakrishna Chaturti. |
Place of Birth | Jaipur Dhundad |
Father's Name | Hukmichandji |
Mother's Name | Chotanji |
Marital Status | Unmarried |
Gotra | Ravad (Shrimal) |
Caste | Beesa Oswal |
Date of Diksha | V. S. 1928 Phulgun. Shukla Eakadashi |
Diksha By | A. Shri Jeetmalji |
Place of Diksha | Ladnun |
Teacher (Guru) | A. Shir Jeetmalji |
Appointment of Successor and Place (Yuvacharya) | V. S. 1949. Chaitra Krishna Dwitiya. Sardarsahar |
Appointment as Acharya and Place | V. S. 1949.Chaitra Krishna Ashtami. Sardarsahar. |
Number of Sadhu & Sadhvi at the time of appointment as Acharya | Sadhu:71 Sadhvi: 193 |
New Diksha of Sadhu & Sadhvis during Acharya period. | Sadhu: 15 Sadhvi: 25 |
Date of passing away (Devlok) | V. S. 1954. Kartik Krishna Tritiya(Sujangad). 1 Muhurta more. |
Number of Maryada Mohotsav | 4 |
Tenure as Acharya | 4 years and 7 months. |
Maximum Chaturmas | One in each place. |
No of Sadhu & Sadhvi at the time of passing away. | Sadhu: 72 Sadhvi: 194 |
Sadhvi Pramukha during Acharya period | Sadhvi Navalaji. |
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