तेरपंथ के द्वितीय आचार्य श्री भारमलजी का जन्म वि.स. १८०३ मुहां ग्राम (मेवाड़) में ओसवंच्च के लोढ़ा परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम किच्चनो जी तथा माता का नाम धारिणी था। दस वर्ष की लघु वय में उन्होंने स्थानकवासी संप्रदाय में स्वामीजी के हाथ से दीक्षा ग्रहण की। वे बचपन से ही सहज,सरल एवं विनित होने के साथ साथ सत्य के महान पक्षधर थे। आचार्य भिखणजी जब विचार भेद के कारण स्थानकवासी संप्रदाय से अलग हुऐ तब भारमलजी स्वामी ने उनका अनुगमन किया। आचार्य भिखणजी के च्चिक्षयों में मुनि भारमलजी उनके परम भक्त और प्रमुख च्चिक्षय थे। आचार्य भिक्षु के आदेच्च को वे जीवन से भी अधिक मुल्य देते थे।
मुनि भारमल जी स्थिरयोगी, प्रज्ञावान और सतत श्रमच्चील थे। उनकी च्चिक्षा, दीक्षा आचार्य भिक्षु की सान्निधि में ही हुई। थोड़े ही समय में सहस्त्रों गाथाओं को कण्ठस्थ कर उन्होंने अपनी प्रखर प्रतिभा का परिचय दिया। स्वाध्याय में उनकी विच्चेष रूचि थी। अनेक बार सांयकालिन प्रतिक्रमण के बाद एक प्रहर रात्री तक वे खडे खडे उतराध्ययन सूत्र की दो हजार गाथाओं का स्वाध्याय कर लेते। वे लिपि कला में बहुत दक्ष थे। उनके अक्षर सुगढ़ और सुडोल थे। उन्होंने स्वामीजी द्वारा रचित प्रयाय सभी ग्रथों की प्रति लिति की। आज भी उनकी वे प्रतिया स्वामीजी के ग्रथों की प्रमाणिक प्रतियों के रूप में मान्य है। आचार्य भिक्षु जो रचना करते, च्चिक्षा देते, लेख व मर्यादा बनाते, भारीमलजी स्वामी उन्हें लिपिबद्ध कर स्थायित्व कर देते जाते। उन्होंने अपने जीवन में पांच लाख गाथाओं का लेखन किया। तेरापंथ संघ में इतना लेखन आज तक शायद और किसी ने नहीं किया।
भारमलजी स्वामी का जीवन आचार्य भिक्षु की प्रयोगच्चाला था। स्वामी जी संघ में कोई भी नियम लागू करना चाहते तो उसका प्रथम प्रयोग भारमलजी पर ही करते। इसका परिणाम यह होता की दूसरे साधुओं पर उसका स्वंय उसका असर पडता।
एक बार भारमलजी स्वामी को कसौटी पर कसते हुए आचार्य भिक्षु ने कहा यदि किसी वयक्ति द्वारा तुम्हारी कोई गलती निकाली जाएं तो तुम्हें दण्ड स्वरूप एक तेला करना होगा। भारमलजी स्वामी ने पुछा - गुरूदेव ! तेला गलती की सत्यता पर करना होगा या मिथ्या अधियोग में भी ? स्वामीजी ने कहा - तेला तो करना ही होगा। गलती हो तो उसका प्रायच्च्िचत समझना और गलती न हो तो कर्मो का उदय समझना। भारमलजी स्वामी ने सहर्ष गुरूआज्ञाा को सिरोधारय कर लिया। प्रत्येक मर्यादा के प्रति वे सजग थे। कहते है, जीवन भर में गलती निकालने का उन्होंने अवसर ही नहीं आने दिया। मुनि भारमल जी स. १८३२ मार्घ शीर्ष कृष्णा सप्तमी को युवाचार्य के रूप में नियुक्त हुए। स्वामी जी के द्विवन्गत होन के बाद स. १८६० भाद्रव शुक्ला त्रयोदच्ची के दिन वे आचार्य बनें। आचार्य भारमलजी महान सहासी थे। कष्टों में घबराना उन्होंने कभी नहीं सीखा था।
एक बार उदयपुर के राणा भीमसिंह जी को कुछ विरोधि लोगो ने बताया की तेरापंथ के पुज्य भारमल जी दया-दान के निषेधक है। ये जहां रहते है वहां वर्षा नहीं होती यदि इनका चर्तुमास यहां हुआ तब प्रजा को भारी कष्ट होगा। राणाजी ने उनकी बाते सही समझ भारमलजी स्वामी को शहर छोड कर चले जाने की आज्ञा दे दी। साधुत्व के नियम अनुसार वे वहां से विहार कर राजनगर पधार गये। बाद में वहां के निवासी केच्चरजी भण्डारी ने एकांत अवसर मिलने पर राणा से कहा - महाराज ! जो संत चिंटी को भी नहीं सताते उनको आप ने नगर से निकाल दिया है। अब सुनता हूं , मेवाड़ से निकाल देने का विचार किया जा रहा है। परन्तु आप इस बात की गाठं बाधं ले की जिस राज्य मे संतों को सताया जाता है, प्रकृति उसे कभी क्षमा नहीं करती। संतो को निकाल देने के पच्च्चात यहां जो अप्रिय घटनाएं घटी है वे प्रकृति के रोष का ही परिणाम है। केच्चरजी ने महाराणा को सारी वस्तु स्थिती से अवगत कराया। महाराणा को अपनी भूल का पच्च्चाताप हुआ।
महाराणा ने तत्काल अपने हाथों से भारमलजी स्वामी को एक पत्र दिया। उसमें लिखा- आप दुष्टता करने वाले उन दुष्टों की ओर न देखें। मेरी तथा नगर की प्रजा की ओर देख कर दया करें। यह पत्र अपने आदमी को दें, उसे आचार्य श्री भारमलजी के पास भेंजा जिसमें वापस उदयपुर आने के लिए प्राथना की थी। भारमलजी स्वामी वृद्धावस्था के कारण दूसरी बार वहां नहीं पधारे। राणाजी ने दूसरा रुक्का फिर भेजा ओर वहां पधारने की प्राथना की । तब भारमलजी स्वामी ने उनके विच्चेष आग्रह पर मुनि हेमराज जी, मुनि रायचंद जी और मुनि जीतमल जी आदि तेरह संतो को उदयपुर भेंजा। भारमलजी स्वामी के जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं है। जिनसे उनके सहज गुणें की आभा झलकती है। उनके शासन काल में ३८ साधु और ४४ साध्वियां दीक्षित हुई।
वि.स. १८७८ माद्य कृष्णा अष्टमी के दिन आचार्य भारमलजी का स्वर्गवास हो गया। अन्तिम समय में उन्हें छः प्रहर का सागारी अनच्चन और तीन प्रहर का चौविहार अनच्चन आया
2nd Acharya
Achraya Shree Barmalji |
Date of Birth | V. S. 1804 |
Place of Birth | Muhagram. Mewad zilla Bhilwada |
Father's Name | Kishanoji |
Mother's Name | Dharniji |
Marital Status | Unmarried |
Gotra | Lodha |
Caste | Beesa Oswal |
Date of Diksha | Dra. Di. V. S. 1813. Bhav Dhi. V. S. 1817 Asaad Shukla Purnima |
Diksha By | Dra. Di. Muni Bhikhanji Bhav. Di. A. Shri Bhikhanji |
Place of Diksha | Bagor Kelwa |
Teacher (Guru) | A. Shri Bhikhanji |
Appointment of Successor and Place (Yuvacharya) | V. S. 1832. Mrigsar Krishna Saptmi. Bhithoda |
Appointment as Acharya and Place | V. S. 1860. Bhadra Va. Shukla Trayodashi. Siriyari. |
Number of Sadhu & Sadhvi at the time of appointment as Acharya | Sadhu: 21 Sadhvi: 27 |
New Diksha of Sadhu & Sadhvis during Acharya period. | Sadhu: 38 Sadhvi: 44 |
Date of passing away (Devlok) | V. S. 1878. Madh Krishna Ashtami. Rajsamand. 9 prahar |
Number of Maryada Mohotsav | NA |
Tenure as Acharya | 18 years |
Maximum Chaturmas | Nathdwara Pali 3 |
No of Sadhu & Sadhvi at the time of passing away. | Sadhu: 35 Sadhvi: 42 |
Sadhvi Pramukha during Acharya period | Sadhvi Hiraji |
आचार्य श्री भारमलजी के बारे पढ कर उन के विचार ओर उपदेश पढ कर बहुत अच्छा लगा, धन्यवाद
अच्छी जानकारी दी..