जैन सिद्धान्त में जीव का मुख्य लक्षण उपयोग माना गया है। उपयोग के दो भेद हैं-दर्शन और ज्ञान। दर्शन शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। सामान्य भाषा में दर्शन का अर्थ होता है-किसी पदार्थ को नेत्रों द्वारा देखने की क्रिया। शास्त्रीय दृष्टि से दर्शन का अर्थ है-जीवन व प्रकृति सम्बन्धी व्यवस्थित ज्ञान, जैसे सांख्य, वेदान्त या जैन व बौद्ध दर्शन। किन्तु जैन सिद्धान्त में जीव के दर्शन रूप गुण का अर्थ होता है-आत्म-चेतना। प्रत्येक जीव में अपनी सत्ता के अनुभवन की शक्ति का नाम दर्शन है, व बाह्य पदार्थों को जानने समझने की शक्ति का नाम है ज्ञान। जीव के इन्हीं दो अर्थात् दर्शन और ज्ञान, अथवा स्वसंवेदन व पर-संवेदन रूप गुणों को उपयोग कहा गया है। जिन पदार्थों में यह उपयोग-शक्ति है, वहां जीव व आत्मा विद्यमान हैं; और जहां इस उपयोग गुण का सर्वथा अभाव है, वहां जीव का अस्तित्व नहीं माना गया। इस प्रकार जीव का निश्चित लक्षण चैतन्य है। इस चैतन्य-युक्त जीव की पहचान व्यवहार में पांच इन्द्रियों, मन, वचन व काय रूप तीन बलों, तथा श्वासोच्छ्वास और आयु, इन दस प्राण रूप लक्षणों की हीनाधिक सत्ता के द्वारा की जा सकती है-
पंच वि इंदियपाणा मनवचकायेसु तिण्णि बलपाणा।
आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दस पाणा ।।
(गो. जी. १२९)
जीव के और भी अनेक गुण हैं। उसमें कर्तृत्व-शक्ति है, और उपभोग का सामर्थ्य भी। वह अमूर्त्त है; और जिस शरीर में वह रहता है उसके समस्त अंग-प्रत्यंगों को व्याप्त किये रहता है-
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेह-परिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो मुत्तो सो विस्ससोड्ढगई ।।
(द्रव्यसंग्रह, गा.-२)
संसार में इसप्रकार के जीवों की संख्या अनन्त है। प्रत्येक शरीर में विद्यमान जीव अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है, और उस अस्तित्व का कभी संसार में या मोक्ष में विनाश नहीं होता। इस प्रकार जीव के संबंध में जैन विचारधारा वेदान्त दर्शन से भिन्न है, जिसके अनुसार ब्रह्म एक है, और उसका दृश्यमान अनेकत्व सत्य नहीं, मायाजाल है।
जैन दर्शन में संसारवर्ती अनन्त जीवों को दो भागों में विभाजित किया गया है-साधारण और प्रत्येक। प्रत्येक जीव वे हैं, जो एक-एक शरीर में एक-एक रहते हैं, और वे इन्द्रियों के भेदानुसार पांच प्रकार के हैं-एकेन्द्रिय जीव वे हैं जिनके एक मात्र स्पर्शेन्द्रिय होती है। इनके पांच भेद हैं-पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय। स्पर्श और रसना जिन जीवों के होता है, वे द्वीन्द्रिय हैं, जैसे लट आदि। इसी प्रकार चींटी वर्ग के स्पर्श, रसना और घ्राण युक्त प्राणी त्रीन्द्रिय, भ्रमरवर्ग के नेत्र सहित चतुरिन्द्रिय, एवं शेष पशु, पक्षी व मनुष्य वर्गों के श्रोत्रेन्द्रिय सहित जीव पंचेन्द्रिय कहलाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर और द्वीन्द्रियादि इतर सब जीवों को त्रस संज्ञा दी गई है। इन एक-एक शरीर-धारी वृक्षादि समस्त प्राणियों के शरीरों में ऐसे साधारण जीवों की सत्ता मानी गई है, जिनकी आहार, श्वासोच्छ्वास आदि जीवन-क्रियाएं सामान्य अर्थात् एक साथ होती है। उनके इस सामान्य शरीर को निगोद कहते हैं, और प्रत्येक निगोद में एक साथ जीने व मरने वाले जीवों की संख्या अनन्त मानी गई है-
एग-निगोद-सरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा।
सिद्धेहिं अनन्तगुणा, सव्वेण विदीदकालेण ।।
(गो. जी. १९४)
इन निगोदवतीं जीवों का आयु-प्रमाण अत्यल्प माना गया है; यहां तक कि एक श्वासोच्छ्वास काल में उनका अठारह बार जीवन व मरण हो जाता है। यही वह जीवों की अनन्त राशि है जिसमें से क्रमशः जीव ऊपर की योनियों में आते रहते व मुक्त जीवों के संसार से निकलते जाने पर भी संसारी जीवनधारा को अनन्त बनाये रखते हैं। इस प्रकार के साधारण जीवों की मान्यता जैन सिद्धान्त की अपनी विशेषता है। अन्य दर्शनों में इस प्रकार की कोई मान्यता नहीं पाई जाती। वर्तमान वैज्ञानिक मान्यतानुसार एक मिलीमीटर (१/२६") प्रमाण रक्त में कोई ५० लाख जीवकोष (सेल्स) गिने जा चुके हैं। आश्चर्य नहीं जो जैन दृष्टाओं ने इसी प्रकार के कुछ ज्ञान के आधार पर उक्त निगोद जीवों का प्ररूपण किया हो। उक्त समस्त जीवों के शरीरों को भी दो प्रकार का माना गया है-सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म शरीर वह है जो अन्य किसी भी द्रव्य से बाधित नहीं होता, और जो बाधित होता है, वह बादर (स्थूल) शरीर कहा गया है। पूर्वोक्त पंचेन्द्रिय जीवों के पुनः दो भेद किये गये हैं-एक संज्ञी अर्थात् मन सहित, और दूसरे असंज्ञी अर्थात् मनरहित।
इन समस्त संसारी जीवों की दृश्यमान दो गतियां मानी गई हैं-एक मनुष्यगति और दूसरी पशु-पक्षि आदि सब इतर प्राणियों की तिर्यंचगति। इनके अतिरिक्त दो और गतियां मानी गयीं हैं-एक देवगति और दूसरी नरकगति। मनुष्य और तिर्यंच गतिवाले पुण्यवान् जीव अपने सत्कर्मों का सुफल भोगने के लिये देवगति प्राप्त करते हैं, और पापी जीव अपने दुष्कर्मों का दंड भोगने के लिये नरक गति में जाते हैं। जो जीव पुण्य और पाप दोनों से रहित होकर वीतराग भाव और केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार की इन चारों गतियों से निकल कर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। संसारी जीवों की शरीर-रचना में भी विशेषता है। मनुष्य और तिर्यंचों का शरीर औदारिक अर्थात् स्थूल होता है, जिसमें उसी जीवन के भीतर कोई विपरिवर्तन संभव नहीं। किन्तु देवों और नरकवासी जीवों का शरीर वैक्रियिक होता है, अर्थात् उसमें नाना प्रकार की विक्रिया या विपरिवर्तन संभव है। इन शरीरों के अतिरिक्त संसारी जीवों के दो और शरीर माने गये हैं-तैजस और कार्मण। ये दोनों शरीर समस्त प्राणियों के सदैव विद्यमान रहते हैं। मरण के पश्चात् दूसरी गति में जाते समय भी जीव से इनका संग नहीं छूटता। तैजस शरीर जीव और पुद्गल प्रदेशोंमें संयोग स्थापित किये रहता है, तथा कार्मण शरीर उन पुद्गल परमाणुओं का पुंज होता है, जिन्हें जीव निरन्तर अपने मन-वचन-काय की क्रिया के द्वारा संचित करता रहता है। इन दो शरीरों को हम जीव का सूक्ष्म शरीर कह सकते हैं। इन चार शरीरों के अतिरिक्त एक और विशेष प्रकार का शरीर माना गया है, जिसे आहारक शरीर कहते हैं। इसका निर्माण ऋद्धिधारी मुनि अपनी शंकाओं के निवारणार्थ दुर्गम प्रदेशों में विशेष ज्ञानियों के पास जाने के लिये अथवा तीर्थवन्दना के हेतु करते हैं।
शरीरधारी संसारी जीव अपने-अपने कर्मानुसार भिन्न-भिन्न लिंगधारी होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के तिर्यंच एवं नारकी जीव नियम से नपुंसक होते हैं। पंचेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यंच पुरुष-वेदी, स्त्रीवेदी न नपुंसकवेदी तीनों प्रकार के होते हैं। देवों में नपुंसक नहीं होते। उनके केवल देव और देवियां, ये दो ही भेद हैं।
जीवों का शरीरधारण रूप जन्म भी नानाप्रकार से होता है। मनुष्य व तिर्यंच जीवों का जन्म दो प्रकार से होता है-गर्भ से या सम्मूर्छन से। जो प्राणी माता के गर्भ से जरायु-युक्त अथवा अंडे या पोत (जरायु रहित अवस्था) रूप में उत्पन्न होते हैं, वे गर्भज हैं, और जो गर्भ के बिना बाह्य संयोगों द्वारा शीत उष्ण आदि अवस्थाओं में जीवों की उत्पत्ति होती है, उसे संमूर्छन जन्म कहते हैं। देव और नारकी जीवों की उत्पत्ति उक्त दोनों प्रकारों से भिन्न उपपाद रूप बतलाई गई है।
अजीव तत्व -
अजीव द्रव्यों के पांच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें रूपवान् द्रव्य पुद्गल है, और शेष सब अरूपी हैं। जितने भी मूर्तिमान् पदार्थ विश्व में दिखाई देते हैं, वे सब पुद्गल द्रव्य के ही नाना रूप हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु-ये चारों तत्व, तथा वृक्षों, पशु-पक्षी आदि जीवों व मनुष्यों के शरीर, ये सब पुद्गल के ही रूप हैं। पुद्गल का सूक्ष्मतम रूप परमाणु है, जो अत्यन्त लघु होने के कारण इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं होता। अनेक परमाणुओं के संयोग से उनमें परिमाण उत्पन्न होता है; और उनमें स्पर्श, रस, गंध व वर्ण-ये चार गुण प्रकट होते हैं, तभी वह पुद्गल-स्कन्ध (समूह) इन्द्रिय-ग्राह्य होता है। शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, अन्धकार, छाया, व प्रकाश, ये सब पुद्गल द्रव्य के ही विकार माने गये हैं। पुद्गलों का स्थूलतम रूप महान् पर्वतों व पृथिवियों के रूप में दिखाई देता है। इनसे लेकर सूक्ष्मतम कर्म-परमाणुओं तक पुद्गल द्रव्य के असंख्यात भेद और रूप पाये जाते हैं। पुद्गल स्कन्धों का भेद और संघात निरन्तर होता रहता है। और इसी पूरण व गलन के कारण इनका पुद्गल नाम सार्थक होता है। पुद्गल शब्द का उपयोग जैन सिद्धान्त के अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थों में भी पाया जाता है, किन्तु वहां उसका अर्थ केवल शरीरी जीवों से है। अचेतन जड़ पदार्थों के लिये वहां पुद्गल शब्द का प्रयोग नहीं पाया जाता।
धर्म-द्रव्य-
दूसरा अजीवद्रव्य धर्म है। यह अरूपी है, और समस्त लोक में व्याप्त है। इसी द्रव्य की व्याप्ति के कारण जीवों व पुद्गलों का एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन सम्भव होता है, जिसप्रकार कि जल मछली के गमनागमन का माध्यम बनता है। इस प्रकार `धर्म' शब्द का यह प्रयोग शास्त्रीय है, और उसकी नैतिक आचरण आदि अर्थवाचक `धर्म' से भ्रान्ति नहीं करनी चाहिये।
अधर्म-द्रव्य -
जिसप्रकार धर्म द्रव्य जीव और पुद्गलों के स्थानान्तरण रूप गमनागमन का माध्यम है, उसीप्रकार अधर्म-द्रव्य चलायमान पदार्थ के रुकने में सहायक होता है, जिसप्रकार कि वृक्ष की छाया श्रान्त पथिक को रुकने में निमित्त होती है।
आकाश-द्रव्य -
चौथा अजीवद्रव्य आकाश है, और उसका गुण है-जीवादि अन्य सब द्रव्यों को अवकाश प्रदान करना। आकाश अनन्त है; किन्तु जितने आकाश में जीवादि अन्य द्रव्यों की सत्ता पाई जाती है वह लोकाकाश कहलाता है, और वह सीमित है। लोकाकाश से परे जो अनन्त शुद्ध आकाश है, उसे अलोकाकाश कहा गया है। उसमें अन्य किसी द्रव्य का अस्तित्व न है, और न हो सकता; क्योंकि वहां गमनागमन के साधनभूत धर्म द्रव्य का अभाव है। आकाश द्रव्य का अस्तित्व सभी दर्शनों तथा आधुनिक विज्ञान को भी मान्य है। किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्यों की कल्पना जैन दर्शन की अपनी विशेषता है। द्रव्य की आकाश में स्थिति होती है, गमन होता है और रुकावट भी होती है। सामान्यतः ये तीनों अर्थक्रियाएं आकाश गुण द्वारा ही सम्भव मानी जाती हैं। किन्तु सूक्ष्म विचारानुसार एक द्रव्य द्वारा अपने शुद्ध रूप में एक ही प्रकार की क्रिया सम्भव मानी जा सकती है। विशेषतः जब वे क्रियाएं परस्पर कुछ विभिन्नता को लिये हुए हों, तब हमें यह मानना ही पड़ेगा कि उनके कारण व साधनभूत द्रव्य भिन्न भिन्न होंगे। इसी विचारधारानुसार लोकाकाश में उक्त तीन अर्थ-क्रियाओं के साधनरूप तीन पृथक्-पृथक् द्रव्य अर्थात् आकाश, धर्म और अधर्म की कल्पना की गई है। आधुनिक भौतिक वैज्ञानिकों का एक ऐसा भी मत है कि आकाश में जहांतक भौतिक तत्वों की सत्ता पाई जाती है, उसके परे उनके गमन में वह आकाश रुकावट उत्पन्न करता है। जैन सिद्धान्तानुसार यह परिस्थिति इस कारण उत्पन्न होती है, क्योंकि उस अलोकाकाश में गमन के साधनभूत धर्म द्रव्य का अभाव है।
काल-द्रव्य -
पांचवां अजीव द्रव्य काल है, जिसका स्वरूप दो प्रकार से निरूपण किया गया है-एक निश्चयकाल और दूसरा व्यवहारकाल। निश्चयकाल अपनी द्रव्यात्मक सत्ता रखता है, और वह धर्म और अधर्म द्रव्यों के समान समस्त लोकाकाश में व्याप्त है। तथापि उक्त समस्त द्रव्यों से उसकी अपनी एक विशेषता यह है कि वह उनके समान अस्तिकाय अर्थात् बहुप्रदेशी नहीं है, उसके एक-एक प्रदेश एकत्र रहते हुए भी अपने-अपने रूप में पृथक् हैं; जिस प्रकार कि एक रत्नों की राशि, अथवा बालुकापुंज, जिसका एक-एक कण पृथक्-पृथक् ही रहता है, और जल या वायु के समान एक काय निर्माण नहीं करता। ये एक-एक काल-प्रदेश समस्त पदार्थों में व्याप्त हैं, और उनमें परिणमन अर्थात् पर्याय-परिवर्तन किया करते हैं। पदार्थों में कालकृत सूक्ष्मतम विपरिवर्तन होने में अथवा पुद्गल के एक परमाणु को आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाने के लिये जितना अध्वान या अवकाश लगता है, वह व्यवहार काल का एक समय है। ऐसे असंख्यात समयों की एक आवलि, संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास, सात उच्छ्वासों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, ३८ १/२ लवों की एक नाली, २ नालियों का एक मुहूर्त और ३० मूहूर्त का एक अहोरात्र होता है। अहोरात्र को २४ घंटे का मानकर उक्त क्रम से १ उच्छ्वास का प्रमाण एक सेकंड का २८८०/३७७३ वां अंश अर्थात् लगभग ३/४ सेकंड होता है। इसके अनुसार एक मिनट में उच्छ्वासों की संख्या ७८६ आती है, जो आधुनिक वैज्ञानिक व प्रायोगिक मान्यता के अनुसार ही है। आवलि व समय का प्रमाण सेकन्ड से बहुत अधिक सूक्ष्म सिद्ध होता है। अहोरात्र से अधिक की कालगणना-पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, पूर्वांग, पूर्व, नयुतांग, नयुत आदि क्रम से अचलप्र तक की गई है जो ८४ को ८४ से ३१ वार गुणा करने के बराबर आती है। ये सब संख्यात-काल के भेद हैं, जिसका उत्कृष्ट प्रमाण इससे कई गुणा बड़ा है। तत्पश्चात् असंख्यात-काल प्रारम्भ होता है, और उसके भी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट भेद बतलाये गये हैं। उसके ऊपर अनन्तकाल का प्ररूपण किया गया है, और उसके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद बतलाये गये हैं। जिसप्रकार यह व्यवहार-काल का प्रमाण उत्कृष्ट अनन्त (अनन्तानन्त) तक कहा गया है, उसी प्रकार आकाश के प्रदेशों का, समस्त द्रव्यों के अविभागी प्रतिच्छेदों का, एवं केवल ज्ञानी के ज्ञान का प्रमाण भी अनन्तानन्त कहा गया है।
द्रव्यों के सामान्य लक्षण -
जैन दर्शनानुसार ये ही जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल नामक छह मूलद्रव्य हैं, जिनसे विश्व के समस्त सत्तात्मक पदार्थों का निर्माण हुआ है। इस निर्माण में जो वैचित्र्य दिखलाई देता है वह द्रव्य की अपनी एक विशेषता के कारण सम्भव है। द्रव्य वह है जो अपनी सत्ता रखता है (सद् द्रव्य-लक्षणम्)। किन्तु जैन सिद्धान्त में सत् का लक्षण वेदान्त के समान कूटस्थ-नित्यता नहीं माना गया। यहां सत्का स्वरूप यह बतलाया गया है कि जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, इन तीनों लक्षणों से युक्त हो (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्)। तदनुसार उक्त सत्तात्मक द्रव्यों में प्रतिक्षण कुछ न कुछ नवीनता आती रहती है, कुछ न कुछ क्षीणता होती रहती है, और इस पर भी एक ऐसी स्थिरता भी बनी रहती है जिसके कारण वह द्रव्य अपने द्रव्य-स्वरूप से च्युत नहीं हो पाता। द्रव्य की यह विशेषता उसके दो प्रकार के धर्मों के कारण सम्भव है। प्रत्येक द्रव्य गुणों और पर्यायों से युक्त है (गुण-पर्ययवद् द्रव्यम्) गुण वस्तु का वह धर्म है, जो उससे कभी पृथक् नहीं होता, और उसकी ध्रुवता को सुरक्षित रखता है। किन्तु पर्याय द्रव्य का एक ऐसा धर्म है जो निरन्तर बदलता है, और जिसके कारण उसके स्वरूप में सदैव कुछ नवीनता और कुछ क्षीणता रूप परिवर्तन होता रहता है। उदाहरणार्थ-सुवर्ण धातु के जो विशेष गुरुत्व आदि गुण हैं, वे कभी उससे पृथक् नहीं होते। किन्तु उसके मुद्रा, कुंडल, कंकण आदि आकार व संस्थान रूप पर्याय बदलते रहते हैं। इसप्रकार दृश्यमान जगत् के समस्त पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का परिपूर्ण निरूपण जैन दर्शन में पाया जाता है; और उसमें अन्य दर्शनों में निरूपित द्रव्य के आंशिक स्वरूप का भी समावेश हो जाता है। जैसे, बौद्ध दर्शन में समस्त वस्तुओं को क्षणध्वंसी माना गया हैं, जो जैन दर्शनानुसार द्रव्य में निरन्तर होनेवाले उत्पाद-व्यय रूप धर्मों के कारण है; तथा वेदान्त में जो सत् को कूटस्थ नित्य माना गया है, वह द्रव्य की ध्रौव्य गुणात्मकता के कारण है।
आस्रव-तत्व -
जैन सिद्धान्त के सात तत्वों में प्रथम दो अर्थात् जीव और अजीव तत्वों का निरूपण ऊपर किया जा चुका है। अब यहां तीसरे और चौथे आस्रव व बंध नामक तत्वों की व्याख्या की जाती है। यह विषय जैन कर्म-सिद्धान्त का है, जिसे हम आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली में जैन मनोविज्ञान (साइकोलौजी) कह सकते हैं। सचेतन जीव संसार में किसी न किसी प्रकार का शरीर धारण किये हुए पाया जाता है। इस शरीर के दो प्रकार के अंग-उपांग हैं, एक हाथ पैर आदि; और दूसरे जिह्वा, नासिका नेत्रादि। इन्हें क्रमशः कर्मेन्द्रियां और ज्ञानेन्द्रियां कहा गया है, और इन्हीं के द्वारा जीव नानाप्रकार की क्रियाएं करता रहता है। विकसित प्राणियों में इन क्रियाओं का संचालन भीतर से एक अन्य शक्ति द्वारा होता है जिसे मन कहते हैं; और जिसे नोइन्द्रिय नाम दिया गया है। जिह्वा द्वारा, सना के अतिरिक्त, शब्द या वाणी के उच्चारण का काम भी लिया जाता है। इस प्रकार जीव की क्रियाओं में काय, वाक् और मन, ये विशेषरूप से प्रबल साधन सिद्ध होते हैं, और इनकी ही क्रिया को जैन सिद्धान्त में योग कहा गया है। इनके अर्थात् काययोग, वाग्योग और मनोयोग के द्वारा आत्मा के प्रदेशों में एक परिस्पंदन होता है, जिसके कारण आत्मा में एक ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाती है, जिसमें उसके आसपास भरे हुए सूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गल परमाणु आत्मा से आ चिपटते हैं। इसी आत्मा और पुद्गल परमाणुओं के संपर्क का नाम आश्रव है; एवं संपर्क में आनेवाले परमाणु ही कर्म कहलाते हैं; क्योंकि उनका आगमन उपर्युक्त काय, वाक् व मन के कर्म द्वारा होता है। इसप्रकार आत्मा के संसर्ग में आनेवाले उन पुद्गल परमाणुओं की कर्म संज्ञा लाक्षणिक है।
काय आदि योगों रूप आत्म-प्रदेशों में उत्पन्न होने वाला उपर्युक्त परिस्पंदन दो प्रकार का हो सकता है-एक तो किसी क्रोध, मान आदि तीव्र मानसिक विकार से रहित साधारण क्रियाओं के रूप में; और दूसरा क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार तीव्र मनोविकार रूप कषायों के वेग से प्रेरित। प्रथम प्रकार का कर्मास्रव ईर्यापथिक अर्थात् मार्गगामी कहा गया है, क्योंकि उसके द्वारा आत्म और कर्मप्रदेशों का कोई स्थिर बंध उत्पन्न नहीं होता। वह आया और चला गया; जिस प्रकार कि किसी विशुद्ध सूखे वस्त्र पर बैठी धूल शीघ्र ही झड़ जाती है; देर तक वस्त्र से चिपटी नहीं रहती। इस प्रकार का कर्मास्रव समस्त संसारी जीवों में निरन्तर हुआ करता है, क्योंकि उनके किसी न किसी प्रकार की मानसिक, शारीरिक या वाचिक क्रिया सदैव हुआ ही करती है। किन्तु उसका कोई विशेष परिणाम आत्मा पर नहीं पड़ता। परन्तु जब जीव की मानसिक आदि क्रियाएं कषायों से युक्त होती हैं, तब आत्म-प्रदेशों में एक ऐसी परपदार्थग्राहिणी दशा उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण उसके संपर्क में आने वाले कर्मपरमाणु उससे शीघ्र पृथक् नहीं होते। यथार्थतः क्रोधादि विकारों की इसी शक्ति के कारण उन्हें कषाय कहा गया है। सामान्यतः वटवृक्ष के दूध के समान चेपवाले द्रव पदार्थों को कषाय कहते हैं, क्योंकि उनमें चिपकाने की शक्ति होती है। उसी प्रकार क्रोध, मान, आदि मनोविकार जीव में कर्मपरमाणुओं का आश्लेष कराने में कारणीभूत होने के कारण कषाय कहलाते हैं। इस सकषाय अवस्था में उत्पन्न हुआ कर्मास्रव साम्परायिक कहलाता है, क्योंकि उसकी आत्मा में सम्पराय चलती है, और वह अपना कुछ न कुछ प्रभाव दिखलाये बिना आत्मा से पृथक् नहीं होता।
बन्ध तत्व -
उक्त प्रकार जीव की सकषाय अवस्था में आये हुए कर्म-परमाणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ संबंध हो जाने को ही कर्मबंध कहा जाता है। यह बंध चार प्रकार का होता है-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश। प्रकृति वस्तु के शील या स्वभाव को कहते हैं; अतएव कर्म परमाणुओं में जिस प्रकार की परिणाम-उत्पादक शक्तियां आती हैं, उन्हें कर्मप्रकृति कहते हैं। कर्मों में जितने काल तक जीव के साथ रहने की शक्ति उत्पन्न होती है, उसे कर्म-स्थिति कहते हैं। उनकी तीव्र या मन्द फलदायिनी शक्ति का नाम अनुभाग है, तथा आत्मप्रदेशों के साथ कितने कर्म-परमाणुओं का बंध हुआ, इसे प्रदेश बंध कहते हैं। इस चार प्रकार की बंध-व्यवस्था के अतिरिक्त कर्म सिद्धान्त में कर्मों के सत्व, उदय, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उपशम, निधत्ति और निकाचना का भी विचार किया जाता है। बंधादि ये ही दश कर्मों के करण अर्थात् अवस्थाएं कहलाती हैं। बंध के चार प्रकारों का उल्लेख किया ही जा चुका है। बंध होने के पश्चात् कर्म किस अवस्था में आत्मा के साथ रहते हैं, इसका विचार सत्व के भीतर किया जाता है। अपनी सत्ता में विद्यमान कर्म जब अपनी स्थिति को पूरा कर फल देने लगता है, तब उसे कर्मों का उदय कहते हैं। कभी कभी आत्मा अपने भावों की तीव्रता के द्वारा कर्मों की स्थिति पूरी होने से पूर्व ही उन्हें फलोन्मुख बना देता है, इसे उदीरणा कहते हैं। जिस प्रकार कच्चे फलों को विशेष ताप द्वारा उनके पकने के समय से पूर्व ही पका लिया जाता है, उसी प्रकार यह कर्मों की उदीरणा होती है। कर्मों के स्थिति-काल व अनुभाग (फलदायिनी शक्ति) में विशेष भावों द्वारा वृद्धि करने का नाम उत्कर्षण है। उसी प्रकार उसके स्थिति-काल व अनुभाग को घटाने का नाम अपकर्षण है। कर्मप्रकृतियों के उपभेदों का एक से दूसरे रूप परिवर्तन किये जाने का नाम संक्रमण है। कर्मों को उदय में आने से रोक देना उपशम है। कर्मों को उदय में आने से, तथा अन्य प्रकृति रूप संक्रमण होने से भी रोक देना निधत्तिकरण है; और कर्मों की ऐसी अवस्था में ले जाना कि जिससे उनका उदय, उदीरण, संक्रमण, उत्कर्षण या अपकर्षण, ये कोई विपरिवर्तन न हो सकें, उसे निकाचन कहते हैं।
कर्मों के इन दश करणों के स्वरूप से स्पष्ट है कि जैन कर्म-सिद्धान्त नियतिवादी नहीं है, और सर्वथा स्वच्छन्दवादी भी नहीं है। जीव के प्रत्येक कर्म द्वारा किसी न किसी प्रकार की ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है, जो अपना कुछ न कुछ प्रभाव दिखाये बिना नहीं रहती; और साथ ही जीव का स्वातनन्त्र्य भी कभी इस प्रकार अवरुद्ध व कुंठित नहीं होता कि वह अपने कर्मों की दशाओं में सुधार-वधार करने में सर्वथा असमर्थ हो जाय। इस प्रकार जैन सिद्धान्त में मनुष्य के अपने कर्मों के उत्तरदायित्व तथा पुरुषार्थ द्वारा अपनी परिस्थितियों को बदल डालने की शक्ति, इन दोनों का भली-भांति समन्वय स्थापित किया गया है।
कर्म-प्रकृतियां -
(ज्ञानावरणकर्म)
बंधे हुए कर्मों में उत्पन्न होनेवाली प्रकृतियां दो प्रकार की हैं-मूल और उत्तर। मूल प्रकृतियां आठ हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र। इन आठ मूल प्रकृतियों की अपनी-अपनी भेदरूप विविध उत्तर प्रकृतियां बतलाई गई हैं। ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञानगुण पर ऐसा आवरण उत्पन्न करता है जिसके कारण संसारावस्था में उसका पूर्ण विकास नहीं होने पाता; जिस प्रकार कि वस्त्र के आवरण से सूर्य या दीपक का प्रकाश मन्द पड़ जाता है। इसकी ज्ञानों के भेदानुसार पांच उत्तर प्रकृतियां हैं, जिससे क्रमशः जीव का मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान व केवलज्ञान आवृत होता है।
अन्य कर्म- -प्रकृतियां है -
दर्शनावरणकर्म
मोहनीय कर्म
अन्तरायकर्म
वेदनीय कर्म
आयु कर्म -
गोत्र कर्म -
नाम कर्म -
दर्शनावरणकर्म
मोहनीय कर्म
अन्तरायकर्म
वेदनीय कर्म
आयु कर्म -
गोत्र कर्म -
नाम कर्म -
ध्यान दे - जैनधर्म में एवं उसकी अलग अलग मान्यताओं में १९-२० क़ी विभिन्नताए है ! चुकी हम डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए., डी.लिट्., एल.एल.बी.,के व्याख्यानों कों क्रमबद्ध प्रस्तुत कर रहे है जो उनकी मूल क्रति का भाग है - लेखक शायद दिगम्बर या श्वेताम्बर किसी एक विचारधारा से सम्बन्धित है ! हम लेखक के विचारों कों ज्यो का त्यों प्रकाशित कर रहे ! हम इसमें बदलाव नही कर सकते है ! हमने देखा मुलभुत जैन इतिहास में ओर लेखक के संकलन में अधिक भेद नही है ! हम भविष्य में अन्य जैन लेखक साहित्याकार कों भी इसी ब्लॉग पर प्रकाशित करेंगे! हमारा मकसद साफ़ है सभी कों पढ़ा जाए, समझा जाए.. फिर उसमे से एक अमृत कों निकाल जाए ! हम इतिहास नही रच रहे है, हम तो केवल ओर केवल व्यक्ति विशेष के अनुभव एवं उनके संकलन एवं उनके द्वारा संपादित अंशो का अवलोकन मात्र कर रहे है ! लेखक के विचारों में ओर हमारे मान्यताओं में भेद सम्भव है उसे सहज ले ! आभार !
महावीर बी सेमलानी
प्रबन्धक
बहुत आभार!
बहुत सुंदर पोस्ट. आपकी मेहनत को नमन है.
रामराम
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