जीव तत्व -
संसार में नाना प्रकार की वस्तुओं और उनकी अगणित अवस्थाओं का दर्शन होता है। दृश्यमान समस्त पदार्थों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-चेतन और अचेतन। पदार्थों की चेतनता का कारण उनमें व्याप्त, किन्तु इन्द्रियों के अगोचर, वह तत्व है, जिसे जीव या आत्मा कहा गया है। प्राणियों के अचेतन तत्व से निर्मित शरीर के भीतर, उससे स्वतंत्र इस आत्मतत्व के अस्तित्व की मान्यता यथार्थतः भारतीय तत्वज्ञान की अत्यन्त प्राचीन और मौलिक शोध है, जो प्रायः समस्त वैदिक व अवैदिक दर्शनों में स्वीकार की गई है, और यह मान्यता समस्त भारतीय संस्कृति में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सुप्रतिष्ठित पाई जाती है। केवल एकमात्र चार्वाक या बार्हस्पत्य दर्शन ऐसा मिलता है जिसमें जीव या आत्मा की शरीरात्मक भौतिक तत्वों से पृथक् सत्ता नहीं मानी गई। इस दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, जैसे जड़ पदार्थों के संयोग-विशेष से ही वह शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे चैतन्य कहा जाता है। यथार्थतः प्राणियों में इन जड़ तत्त्वों के सिवाय और कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो कोई अपनी पृथक् सत्ता रखती हो, प्राणियों की उत्पत्ति के समय कहीं अन्यत्र से आती हो, अथवा शरीरात्मक भौतिक संतुलन के बिगड़ने से उत्पन्न होनेवाली अचेतनात्मक मरणावस्था के समय शरीर से निकलकर कहीं अन्यत्र जाती हो। इस दर्शन के अनुसार जगत् में केवल एकमात्र अजीव तत्व ही है। किन्तु भारतवर्ष में इस जड़वाद की परम्परा कभी पनप नहीं सकी। इसका पूर्णरूप से प्रतिपादन करनेवाला कोई प्राचीन ग्रन्थ भी प्राप्त नहीं हुआ। केवल उसके नाना अवतरण व उल्लेख हमें आत्मवादी दार्शनिकों की कृतियों में खंडन के लिये ग्रहण किये गये प्राप्त होते हैं; तथा तत्वोपप्लवसिंह जैसे कुछ प्रकरण ऐसे भी मिलते हैं, जिनमें इस अनात्मदर्शन की पुष्टि की गई है।
बौद्धदर्शन आत्मवादी है या अनात्मवादी, यह प्रश्न विवादग्रस्त है। बुद्ध के वचनों से लेकर पिछले बौद्धाचार्यों की रचनाओं तक में दोनों प्रकार की विचारधाराओं के पोषक विचार प्राप्त होते हैं। इसमें एक ओर आत्मवाद अर्थात् जीव की सत्ता की स्वीकृति को मिथ्यादृष्टि कहा गया है; जीवन की प्रधारा को नदी की धारा के समान घटना-प्रवाह रूप बतलाया गया है; एवं निर्वाण की अवस्था को दीपक की उस लौ की अवस्था द्वारा समझाया गया है, जो आकाश या पाताल तथा किसी दिशा-विदिशा में न जाकर केवल बुझकर समाप्त हो जाती है।
यथा-दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्।
दिशं न कांचित् विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।।
जीवो तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्।
दिशं न कांचित् विदिशं न कांचित् क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।।
दूसरी ओर यह भी स्वीकार किया गया पाया जाता है कि जीवन में ऐसा भी कोई तत्व है जो जन्म-जन्मान्तरों में से होता हुआ चला आता है; जो शरीररूपी घर का निर्माण करता है; शरीर-धारण को दुःखमय पाता है, और उससे छूटने का उपाय सोचता और प्रयत्न करता है; चित्त को संस्कार रहित बनाता और तृष्णा का क्षय कर निर्वाण प्राप्त करता है; यथा-दिशं न कांचित् विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।।
जीवो तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्।
दिशं न कांचित् विदिशं न कांचित् क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।।
अनेक-जाति-संखारं संधाविस्सं अनिब्बिसं।
गहकारकं गवेसंतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।।
गहकारक दिट्ठोसि पुन गेहं न काहिसि।
सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं।
विसंखारगतं चित्तं तण्हा मे खयमज्झगा ।।
(धम्मपद, १५३-५४)
यहां स्पष्टतः भौतिक शरीर के अतिरिक्त आत्मा जैसे किसी अन्य अनादि अनन्त तत्व की स्वीकृति का प्रमाण मिलता है। (१२०)
इसके मूल लेखक है -
डाक्टर हीरालाल जैन ,
क्रमश भाग २ में पढ़े .....
सात तत्व नहिं,आगमों में तो नौ तत्वो का उल्लेख है।
प्रस्तूत लेख में पुण्य और पाप को क्यों छोड दिया गया है।
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