जैन साहित्य:प्राचीन इतिहास-24

Posted: 15 अप्रैल 2010
गतांक से आगे ......
अर्धमागधी जैनागम
(श्रुतांग-११)


१. आचारांग (आयारंग) -
इस ग्रन्थ में अपने नामानुसार मुनि-आचार का वर्णन किया गया है। इसके दो श्रुतस्कंध हैं। प्रत्येक श्रुतस्कंध अध्ययनों में और प्रत्येक अध्ययन उद्देशकों या चूलिकाओं में विभाजित है। इस प्रकार श्रुत प्रथम स्कंध में ९ अध्ययन व ४४ उद्देशक हैं; एवं द्वितीय श्रुतस्कंध में तीन चूलिकाएं हैं, जो १६ अध्ययनों में विभाजित हैं। इस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कंध प्रथम की चूलिका रूप है। भाषा, शैली तथा विषय की दृष्टि से स्पष्टतः प्रथम श्रुतस्कंध अधिक प्राचीन है। इसकी अधिकांश रचना गद्यात्मक हैं, पद्य बीच बीच में कहीं कहीं आ जाते हैं। अर्द्धमागधी-प्राकृत भाषा का स्वरूप समझने के लिए यह रचना बड़ी महत्त्वपूर्ण है। सातवें अध्ययन का नाम महापरिज्ञा तो निर्दिष्ट किया गया है, किन्तु उसका पाठ उपलभ्य नहीं है। उपधान नामक नवमे अध्ययन में महावीर की तपस्या का बड़ा मार्मिक वर्णन पाया जाता है। यहाँ उनके लाढ, वज्रभूमि और शुभ्रभूमि में विहार और नाना प्रकार के घोर उपसर्ग सहन करने का उल्लेख आया है। द्वितीय श्रुतस्कंध में श्रमण के लिए भिक्षा मांगने, आहार-पान-शुद्धि, शय्या-संस्तरण-ग्रहण, विहार, चातुर्मास, भाषा, वस्त्र, पात्रादि उपकरण, मल-मूत्र-त्याग एवं व्रतों व तत्सम्बन्धी भावनाओं के स्वरूपों व नियमोपनियमों का वर्णन हुआ है।


२-सूत्रकृतांग (सूयगडं) -


यह भी दो श्रुतस्कंधों में विभक्त है, जिनके पुनः क्रमशः १६ और ७ अध्ययन हैं। पहला श्रुतस्कंध प्रायः पद्यमय है। केवल एक अध्ययन में गद्य का प्रयोग हुआ है। दूसरे श्रुतस्कंध में गद्य और पद्य दोनों पाये जाते हैं। इसमें गाथा छंद के अतिरिक्त अन्य छंदों का भी उपयोग हुआ है, जैसे इन्द्रवज्रा, वैतालिक, अनुष्टुप् आदि। ग्रन्थ में जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य मतों व वादों का प्ररूपण किया गया है जैसे क्रियावाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, जगत्कर्तृत्ववाद, आदि। मुनियों को भिक्षाचार में सतर्कता, परीषहों की सहनशीलता, नरकों के दुःख, उत्तम साधुओं के लक्षण, ब्राह्मण, श्रमण, भिक्षुक व निर्ग्रन्थ आदि शब्दों की व्युत्पत्ति भले प्रकार उदाहरणों व रूपकों द्वारा समझाई गई है। द्वितीय श्रुतस्कंध में जीव-शरीर के एकत्व, ईश्वर-कर्त्तृत्व व नियतिवाद आदि मतों का खंडन किया गया है। आहार व भिक्षा के दोषों का निरूपण हुआ है। प्रसंगवश भौमोत्पादादि महा-निमित्तों का भी उल्लेख आया है। प्रत्याख्यान क्रिया बतलाई गई है। पाप-पुण्य का विवेक किया गया है, एवं गोशालक, शाक्यभिक्षु आदि तपस्वियों के साथ हुआ वाद-विवाद अंकित है। अन्तिम अध्ययन नालन्दीय नामक है, क्योंकि इसमें नालन्दा में हुए गौतम गणधर और पार्श्वनाथ के शिष्य उदकपेठालपुत्र का वार्तालाप और अन्त में पेठालपुत्र द्वारा चातुर्याम को त्यागकर पंच-महाव्रत स्वीकार करने का वृत्तान्त आया है। प्राचीन मतों, वादों व दृष्टियों के अध्ययन की दृष्टि से यह श्रुतांग बहुत महत्वपूर्ण है। भाषा की दृष्टि से भी यह विशेष प्राचीन सिद्ध होता है।
क्रमश .....25
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान

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