गातांक से आगे....
जैन संघ में उत्तरकालीन पंथभेद -
जैन संघ में जो भेदोपभेद, सम्प्रदाय व गण गच्छादि रूप से, समय समय पर उत्पन्न हुए, उनका कुछ वर्णन ऊपर किया जा चुका है। किन्तु उनसे जैन मान्यताओं व मुनि आचार में कोई विशेष परिवर्त्तन हुए हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता। केवल जो दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदाय भेद विक्रम की दूसरी शती के लगभग उत्पन्न हुआ, उसका मुनि-आचार पर क्रमशः गंभीर प्रभाव पड़ा। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में न केवल मुनियों द्वारा वस्त्र ग्रहण की मात्रा बढ़ी, किन्तु धीरे-धीरे तीर्थंकरों की मूर्तियों में भी कोपीन का चिन्ह प्रदर्शित किया जाने लगा। तथा मूर्तियों का आंख, अंगी, मुकुट आदि द्वारा अलंकृत किया जाना भी प्रारम्भ हो गया। इस कारण दिगम्बर और श्वेताम्बर मंदिर व मूर्तियां, जो पहले एक ही रहा करते थे, वे अब पृथक् पृथक् होने लगे। ये प्रवृत्तियां सातवीं आठवीं शती से पूर्व नहीं पाई जातीं। एक और प्रकार से मुनि-संघ में भेद दोनों सम्प्रदायों में उत्पन्न हुआ। जैन मुनि आदितः वर्षा ऋतु के चातुर्मास को छोड़ अन्य काल में एक स्थान पर परिमित दिनों से अधिक नहीं ठहरते थे, और वे सदा विहार किया करते थे। वे नगर में केवल आहार व धर्मोपदेश निमित्त ही आते थे, और शेषकाल वन, उपवन, में ही रहते थे। किन्तु धीरे-धीरे पांचवीं छठवीं शताब्दी के पश्चात् कुछ साधु चैत्यालयों में स्थायी रूप से निवास करने लगे।
इससे श्वेताम्बर समाज में बनवासी और चैत्यवासी मुनि सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये। दिगम्बर सम्प्रदाय में भी प्रायः उसी काल से कुछ साधु चैत्यों में रहने लगे। यह प्रवृत्ति आदितः सिद्धान्त के पठन-पाठन व साहित्य-स्त्रजन की सुविधा के लिये प्रारम्भ हुई प्रतीत होती है, किन्तु धीरे-धीरे वह एक साधु-वर्ग की स्थायी जीवन-प्रणाली बन गई, जिसके कारण नाना मंदिरों में भट्टारकों की गद्दियां व मठ स्थापित हो गये। इस प्रकार के भट्टारकों के आचार में कुछ शैथिल्य तथा परिग्रह अनिवार्यतः आ गया।
किन्तु दूसरी ओर उससे एक बड़ा लाभ यह हुआ कि इन भट्टारक गद्दियों और मठों में विशाल शास्त्र भंडार स्थापित हो गये और वे विद्याभ्यास के सुदृढ़ केन्द्र बन गये। नौवीं दसवीं शताब्दी से आगे जो जैन साहित्य-स्रजन हुआ, वह प्रायः इसी प्रकार के विद्या-केन्द्रों में हुआ पाया जाता है। इसी उपयोगिता के कारण भट्टारक गद्दियां धीरे-धीरे प्रायः सभी नगरों में स्थापित हो गई, और मंदिरों में अच्छा शास्त्र-भंडार भी रहने लगा। यहीं प्राचीन शास्त्रों की लिपियाँ प्रतिलिपियाँ होकर उनका नाना केन्द्रों में आदान-प्रदान होने लगा। यह प्रणाली ग्रंथों के यंत्रों द्वारा मुद्रण के युग प्रारम्भ होने से पूर्व तक बराबर अविच्छिन्न बनी रही। जयपुर, जैसलमेर, ईडर, कारंजा, मूडबिद्री, कोल्हापुर आदि स्थानों पर इन शास्त्र भंडारों की परम्परा आज तक भी स्थिर है।
१५ वीं, १६ वीं शती में उक्त जैन सम्प्रदायों में एक और महान् क्रान्ति उत्पन्न हुई। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में लौंकाशाह द्वारा मूर्तिपूजा विरोधी उपदेश प्रारंभ हुआ, जिसके फलस्वरूप स्थानकवासी सम्प्रदाय की स्थापना हुई। यह संप्रदाय ढूंढिया नाम से भी पुकारा जाता है। इस सम्प्रदाय में मूर्तिपूजा का निषेध किया गया है। वे मंदिर नहीं, किन्तु स्थानक में रहते हैं; और वहां मूर्ति नहीं, किन्तु आगमों की प्रतिष्ठा करते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ४५ आगमों में से कोई बारह-चौदह आगमों को वे इस कारण स्वीकार नहीं करते, क्योंकि उनमें मूर्तिपूजा का विधान पाया जाता है।
इसी सम्प्रदाय में से १८ वीं शती में आचार्य भिक्षु द्वारा `तेरापंथ' की स्थापना हुई। वर्तमान के इस सम्प्रदाय के नायक तुलसी गणि है, जिन्होंने अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन किया है।
दिगम्बर सम्प्रदाय में भी १६ वीं शती में तारण स्वामी द्वारा मूर्ति पूजा निषेधक पंथ की स्थापना हुई, जो तारणपंथ कहलाता है। इस पंथ के अनुयायी विशेषरूप से मध्यप्रदेश में पाये जाते हैं। इन दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदाय-भेदों का परिणाम जैन गृहस्थ समाज पर भी पड़ा, जिसके कारण जैनधर्म के अनुयायी आज इन्हीं पंथों में बटे हुए हैं। इस समय भारतवर्ष में जैनधर्मानुयायियों की संख्या लगभग 1 करोड़ २० लाख है।
क्रमश .....22
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान
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