"जैन धर्म ग्रन्थ" एक अहम दस्तेवाज के रूप में अकिंत हो चुका है.
जैन-धर्म-सार ग्रन्थ के आरम्भ में सन्त विनोबाजी ने अपने निवेदन में कहा है कि सर्व-धर्म-समन्वय और दिलों को जोड़ने की दृष्टि से उन्होंने धम्मपद नवसंहिता तैयार की, ऋग्वेद-सार, मनु-शासनम्, भागवत-धर्म-सार, अष्टादशी, कुरान-सार, ख्रिस्त-धर्म-सार आदि धर्म-ग्रन्थों का सार निकाला है, उसी तरह से जैन-धर्म का सार भी निकले, ऐसी उनकी तीव्र भावना बहुत दिनों से थी।
उसके अनुसार उनके दिशा-दर्शन में जैन-समाज के प्रमुख साधक-तपस्वी श्री जिनेन्द्र वर्णीजी ने अखण्ड परिश्रम करके जैन-धर्म-सार ग्रन्थ का संकलन तैयार किया है। उसकी छपी पांडुलिपि आपके सुझावों के लिए साथ भेजी जा रही है। पहुँच देने की कृपा कीजियेगा।
भगवान् महावीर की २५ वीं निर्वाण-शताब्दी के मंगल अवसर पर इस ग्रन्थ को सबकी राय से सर्वमान्य स्वरूप प्राप्त हो सके तो यह इस शती की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। अतः आपसे अनुरोध है कि आप जैन-धर्म-सार का गहराई से अवलोकन करके अपने सुझाव १५ जुलाई' ७४ तक अवश्य भेजने की कृपा कीजियेगा।
प्राप्त सुझावों पर विचार-विनिमय के लिए सन्त विनोबाजी के सान्निध्य में (वर्धा) सितम्बर के प्रथम सप्ताह में विद्वज्जनों की एक संगीति का आयोजन करना है। उसके पूर्व १५ जुलाई तक आपके बहुमूल्य सुझाव प्राप्त हो जायँ, ताकि संगीति के संयोजन में सुविधा हो।
इस कार्य के लिए आपकी राय में जिन विद्वज्जनों से सम्पर्क आवश्यक है, उनके नाम पूरे पते सहित यहाँ भेजने की कृपा कीजियेगा, ताकि उन्हें भी ग्रन्थ भेजा जा सके।
विनम्र
कृष्णराज मेहता
संयोजक
सर्व-सेवा-संघ-प्रकाशन
वाराणसी-१
निवेदन
विज्ञान ने दुनिया छोटी बना दी, और वह सब मानवों को नजदीक लाना चाहता है। ऐसी हालत में मानव-समाज संप्रदायों में बँटा रहे, यह कैसे चलेगा? हमें एक-दूसरे को ठीक से समझना होगा। एक-दूसरे का गुणग्रहण करना होगा।
अतः आज सर्वधर्म-समन्वय की आवश्यकता उत्पन्न हुई है। इसलिए गौण-मुख्य-विवेकपूर्वक धर्मग्रंथों से कुछ वचनों का चयन करना होगा। सार-सार ले लिया जाय, असार छोड़ दिया जाय, जैसे कि हम संतरे के छिलके को छोड़ देते हैं, उसके अन्दर का सार ग्रहण कर लेते हैं।
इसी उद्देश्य से मैंने `गीता' के बारे में अपने विचार `गीता-प्रवचन' के जरिये लोगों के सामने पेश किये थे और
`धम्मपद' की पुनर्रचना की थी। बाद में `कुरान-सार', `ख्रिस्त-धर्म-सार', `ऋग्वेद-सार', `भागवत-धर्म-सार', `नामघोषा-सार' आदि समाज के सामने प्रस्तुत किये।
मैंने बहुत दफा कहा था कि इसी तरह जैन-धर्म का सार बतानेवाली किताब भी निकलनी चाहिए। उस विचार के अनुसार यह किताब श्री जिनेंद्र वर्णीजी ने तैयार की है। बहुत मेहनत इसमें की गयी है। यह आवृत्ति तो सिर्फ विद्वद्जन के लिए ही निकाली जा रही है। यह पहले कोई एक हजार लोगों के पास भेजी जायगी। उनमें जैन लोग भी होंगे, और दूसरे लोग भी होंगे। वे अपने-अपने सुझाव देंगे। फिर उन सबकी एक `संगीति' बुलायी जायगी। सब इकट्ठा बैठकर इस पर चिन्तन-मनन, चर्चा आदि करके इसमें जो कुछ फरक करना है, वह फरक करके जैन-धर्म के अनुशासन के अनुसार अंतिम रूप देकर ४००-५०० वचनों में `जैन-धर्म-सार' समाज के सामने रखेंगे। बहुत महत्त्व की बात है यह। एक बहुत बड़ा काम हो जायगा। जैसे हिन्दुओं की `गीता' है, बौद्धों का
`धम्मपद' है, वैसे ही जैन-धर्म का सार सबको मिल जायगा।
बरसों तक भूदान के निमित्त भारतभर में मेरी पदयात्रा चली, जिसका एकमात्र उद्देश्य दिलों को जोड़ने का रहा है। बल्कि, मेरी जिन्दगी के कुल काम दिलों को जोड़ने के एकमात्र उद्देश्य से प्रेरित हैं। इस पुस्तक के प्रकाशन में भी वही प्रेरणा है। मैं आशा करता हूँ, परमात्मा की कृपा से वह सफल होगी।
ब्रह्म-विद्या मन्दिर, पवनार
१-१२-'७३
समर्पण
जिसके आलोक से यह आलोकित है, जिसकी प्रेरणाओं से यह ओतप्रोत है और जिसकी शक्ति से यह लिखा गया है, उसी के कर कमलों में सविनय समर्पित।
ग्रन्थ-परिचय
`बुद्ध और महावीर भारतीय आकाश के दो उज्ज्वल रत्न हैं। .......बुद्ध और महावीर दोनों कर्मवीर थे। लेखन-वृत्ति उनमें नहीं थी। वे निर्ग्रन्थ थे। कोई शास्त्र-रचना उन्होंने नहीं की। पर वे जो बोलते जाते थे, उसीमें से शास्त्र बनते जाते थे, उनका बोलना सहज होता था। उनकी बिखरी हुई वाणी का संग्रह भी पीछे से लोगों को एकत्र करना पड़ा।"
बुद्ध-वाणी का एक छोटा-सा संग्रह `धम्मपद' नाम से दो हजार साल पहले हो चुका था, जो बुद्ध समाज में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में भगवद्गीता के समान प्रचलित हो गया है।"
"धम्मपद काल-मान्य हो चुका है। `महावीर-वाणी' भी हो सकती है, अगर जैन समाज एक विद्वत्परिषद् के जरिये पूरी छानबीन के साथ उनके वचनों का और उनके क्रम का निश्चय करके एक प्रमाणभूत संग्रह लोगों के सामने रखे। मेरा (विनोबा का) जैन समाज को यह एक विशेष सुझाव है। अगर इस सूचना पर अमल किया गया, तो जैन-विचार के लिए जो पचासों किताबें लिखी जाती हैं, उनसे अधिक उपयोग इसका होगा।"
"ऐसा अपौरुषेय संग्रह जब होगा तब होगा। पर तब तक पौरुषेय संग्रह व्यक्तिगत प्रयत्न से जो होंगे, वे भी उपयोगी होंगे।"
ये हैं भारत-आत्मा सन्त विनोबा के जैनधर्म के प्रति कुछ उद्गार, जो उन्होंने जैनधर्म के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं.बेचरदासजी कृत, `महावीरवाणी' नामक पुस्तक की प्रस्तावना में व्यक्त किये हैं।
`तत्त्वार्थ-सूत्र' निःसन्देह जैन-दर्शन का एक अद्वितीय ग्रन्थ है, परन्तु सूत्रात्मक होने के कारण वह भारत की वर्तमानयुगीन आत्मा को सन्तुष्ट नहीं कर पा रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ बाबा की शुभ भावना और श्री राधाकृष्णजी बजाज की आग्रहपूर्ण प्रेरणा की पूर्ति के अर्थ एक निदर्शन मात्र छोटा-सा प्रयास है। प्रभु से प्रार्थना है कि वह समय आये जब कि जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों व उपसम्प्रदायों के आचार्य मिलकर बाबा के स्वप्न को साकार करें।
प्रस्तुत ग्रन्थ आगमगत एवं आचार्य-प्रणीत ४२९ गाथाओं व श्लोकों का एक संग्रह है, जिसमें संग्रहकर्ता ने कहीं भी अपने शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। यदि विषय को विशद करने के लिए कहीं कोई शब्द-प्रयोग करना पड़ा है, तो वह कोष्ठक या टिप्पणी में दे दिया गया है। विषय व्याख्या की सिद्धि गाथाओं की क्रम-योजना द्वारा की गयी है। जैनदर्शन के प्रायः सभी मौलिक अंग व विषय इसमें आ गये हैं।
संग्रह में आधी गाथाएँ श्वेताम्बर साहित्य से ली गयी हैं और आधी दिगम्बर साहित्य से। श्वेताम्बर गाथा के सन्दर्भ के सामने तुलनार्थ दिगम्बर गाथा का सन्दर्भ दिया गया है और दिगम्बर गाथा के सामने श्वेताम्बर गाथा का, ताकि पाठक इस बात का अनुमान लगा सकें कि प्रायः सभी दार्शनिक व धार्मिक विषयों में दोनों सम्प्रदाय एकमत हैं। जो कुछ थोड़ा-बहुत व्यावहारिक मतभेद है, वह `आम्नाय' नामक अन्तिम अधिकार में दे दिया गया है।
प्रयत्न किया गया है कि गाथाएँ प्राचीन ग्रन्थों से ली जायें और प्राकृत की ही हों, परन्तु विषय के प्रवाह को अटूट रखने के लिए कहीं-कहीं, जहाँ उपयुक्त गाथाएँ उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, वहाँ अर्वाचीन ग्रन्थों से कुछ संस्कृत के श्लोक भी ग्रहण कर लिये गये हैं।
भू मि का
`जैन' नाम से भले ही इस दर्शन की आदि रही हो, परन्तु श्रमण संस्कृति के नाम से यह अक्षय व अनाद्यनन्त है। युग-युग में महापुरुष इस भूमण्डल के विविध प्रदेशों में अवतार धारण करते आये हैं, और करते रहेंगे। भगवान् महावीर भी उनमें से एक थे। तीर्थ (भवसागर का तीर) प्रवर्तक होने के कारण ये सभी तीर्थंकर कहलाते हैं। देशकाल की आवश्यकतानुसार सभी प्रायः एक ही उपदेश देते हैं।
इतना विशेष है कि स्वयं पूर्णकाम होते हुए भी उनमें से कोई आज तक न तो पूर्ण का प्रतिपादन कर सका है और न कर सकेगा। देश तथा काल की आवश्यकता के अनुसार सभी अपने-अपने दृष्टिकोण से उसके किसी एक-आध अंग को ही प्रधान करके कहते आये हैं और कहते रहेंगे। यदि पूर्ण के सुन्दर दर्शन करने हैं तो सबका संग्रहीत सार समक्ष रखना होगा, जो न होगा हिन्दू, न मुसलमान, न वेदान्त न बौद्ध, न जैन। वह होगा `सत्य'-केवल सत्य।
`जैन' नाम से प्रसिद्ध इस दर्शन का तात्त्विक प्रतिपादन भी वास्तव में एक दृष्टिकोण ही है, पूर्ण नहीं। धर्म के नाम पर हिंसा-प्रवृत्ति वाले उस युग में भगवान् महावीर ने समष्टितत्त्व की चर्चा में पड़ना अधिक उचित न समझा। इसीसे उनका यह दर्शन व्यष्टिगत सत्ताओंं तक सीमित रहा। इसके अन्तर्गत उन्होंने छह जाति के सत्ताभूत द्रव्यों की स्थापना की-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल। `जीव' शब्द यहाँ केवल देहधारी प्राणी का नहीं बल्कि स्वसंवेद्य उस अन्तर्चेतना का वाचक है जो प्रत्येक देह में अवस्थित है। इसके अतिरिक्त जितना कुछ भी बाह्याभ्यन्तर प्रपंच दिखाई देता है, वह सब `पुद्गल' कहलाता है। ये दो ही द्रव्य व्यवहार्य होने से प्रधान हैं, शेष इनकी वृत्ति के अदृष्ट हेतु मात्र हैं।
व्यक्ति सरलता से अपने तात्त्विक जीवन का अध्ययन करके हेयोपादेय का यथार्थ विवेक जागृत कर सके, इस उद्देश्य से नव तत्त्वों के रूप में जीवन का सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व व्यक्ति को देहादि पौद्गलिक प्रपंच से भिन्न अन्तर्चेतना का दर्शन कराते हैं। आस्रव, पुण्य, पाप तथा बन्ध ये चार तत्त्व उसके द्वारा नित्य किये जानेवाले बन्धनकारी कर्मों का तथा उनके कारणभूत राग-द्वेषादि का परिचय देते हैं। संवर व निर्जरा तत्त्व उस साधना की ओर निर्देश करते हैं, जिसके द्वारा जीव इन महा शत्रुओं को जीतकर `स्वतंत्रता' प्राप्त कर सकता है, जो `मोक्ष' नामक अन्तिम आनन्दपूर्ण अवस्था का ही द्योतक है।
जैनदर्शन में `धर्म' शब्द का अर्थ अति-व्यापक एवं वैज्ञानिक है। धर्म स्वभाववाची शब्द है। आत्मा का स्वभाव है मोह क्षोभविहीन समता-परिणाम। यही इसका धर्म है और यही परमार्थ चारित्र। अन्य सर्व विस्तार संस्कारों के नीचे दबे पड़े इसी स्वभाव को हस्तगत करने की साधना के लिए हैं। ज्ञान को परमार्थ की ओर सदा जागृत रखना और शास्त्र-विहित कर्मों के प्रति प्रमाद न करना, इस प्रकार अन्ध-पंगु न्याय से ज्ञान व कर्म दोनों से उसकी अभिव्यक्ति सम्भव है-न अकेले ज्ञान से और न अकेले कर्म से! `सम्यग्दर्शन' श्रद्धा, बहुमान, रुचि व भक्तिरूप हार्दिक भाव जागृत करके इन्हें सरस बना देता है। और यही है जैन का त्रिमुखी मोक्षमार्ग-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।
यद्यपि हितमार्ग में इतना पर्याप्त है, परन्तु जैनदर्शन की महत्ता इससे बहुत आगे उस `स्याद्वाद'-दृष्टि में निहित है, जिसके द्वारा यह त्रिलोक व त्रिकालवर्ती सकल दर्शनों व धर्मों को आत्मसात् कर लेता है, जिसकी दृष्टि में स्व-पक्ष पोषणार्थ किसी भी अन्य दर्शन या धर्म का निषेध करना एकान्त मिथ्यात्व नामक महापाप है। तत्त्व अनन्त धर्मात्मक होने से अनेकान्त स्वरूप हैं इसलिए सभी दृष्टियों को समुदित किये बिना उसका दर्शन सम्भव नहीं। सर्वधर्म समभाव की यह परमोज्ज्वल भावना ही जैन दर्शन के विशाल व उदार हृदय की द्योतक है।
प्रायः सभी दर्शनों व धर्मों ने यद्यपि यथावकाश किसी न किसी रूप में इस दृष्टि को स्वीकार किया है, परन्तु सांगोपांग सिद्धांत अथवा प्रणाली के रूप में इसे प्रस्तुत करने का श्रेय केवल जैन-दर्शन को ही प्राप्त है, जिसके कारण यह सदा गौरवान्वित होता रहेगा।
जैन धर्म सार
१. मंगल-सूत्र
१. णमो अरहंताणं।
णमो सिद्धाणं।
णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं।
णमो लोए सव्वसाहूणं।
आवश्यक सूत्र। १.२
षट्खण्डागम। १.१
नमः अर्हद्भ्यः।
नमः सिद्धेभ्यः।
नमः आचार्येभ्यः।
नमः उपाध्यायेभ्यः।
नमः लोके सर्वसाधुभ्यः।
अर्हन्तों को नमस्कार।
सिद्धों को नमस्कार।
आचार्यों को नमस्कार।
उपाध्यायों को नमस्कार।
लोक में सर्वसाधुओं को नमस्कार।
(चत्तारि मंगलं)
२. अरहंता मंगलं।
सिद्धा मंगलं।
साहू मंगलं।
केवलीपण्णतो धम्मो मंगलं।
(चत्तारि लोगुत्तमा)
अरहंता लोगुत्तमा।
सिद्धा लोगुत्तमा।
साहू लोगुत्तमा।
केवलीपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो ।।
(चत्तारि सरणं पवज्जामि)
अरहंते सरणं पव्वज्जामि।
सिद्धे सरणं पव्वज्जामि।
साहू सरणं पव्वज्जामि।
केवलीपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि ।।
आवश्यक सूत्र। ४.१
तु.=भा. पा.। १२२
(चत्वारि मंगलम्)
अर्हन्तः मंगलम्।
सिद्धाः मंगलम्।
साधवः मंगलम्।
केवलिप्रज्ञप्तः धर्मः मंगलम्।
(चत्वारि लोकोत्तमाः)
अर्हन्तः लोकोत्तमाः।
सिद्धाः लोकोत्तमाः।
साधवः लोकोत्तमाः।
केवलिप्रज्ञप्तः धर्मः लोकोत्तमः ।।
(चत्वारि शरणं प्रपद्ये)
अर्हतः शरणं प्रपद्ये।
सिद्धान् शरणं प्रपद्ये।
साधून् शरणं प्रपद्ये।
केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं शरणं प्रपद्ये ।।
अर्हन्त, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म, ये चारों ही मंगल हैं तथा लोक में उत्तम हैं। मैं इन चारों की शरण को प्राप्त होता हूँ।
जैन धर्म-सार
प्रकाशक
सर्व सेवा संघ प्रकाशन
राजघाट, वाराणसी
विषय
धर्म
संस्करण
प्रथम
मुद्रक
भार्गव भूषण प्रेस, वाराणसी
२३/४-७४
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आपकी अमुल्य टीपणीयो के लिये आपका हार्दिक धन्यवाद।
आपका हे प्रभु यह तेरापन्थ के हिन्दी ब्लोग पर तेह दिल से स्वागत है। आपका छोटा सा कमेन्ट भी हमारा उत्साह बढता है-