गातांक से आगे....
चालुक्य और होयसल राजवंश -
चालुक्य नरेश पुलकेशी (द्वि.) के समय में जैन कवि रविकीर्ति ने ऐहोल में मेघुति मन्दिर बनवाया और वह शिलालेख लिखा जो अपनी ऐतिहासिकता तथा संस्कृत काव्यकला की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ है। उसमें कहा गया है कि रविकीर्ति की काव्यकीर्ति कालिदास और भारवि के समान थी। लेख में शक सं. ५५६ (ई. सन् ६३४) का उल्लेख है और इसी आधार पर संस्कृत के उक्त दोनों महाकवियों के काल की यही उत्तरावधि मानी जाती है। लक्ष्मेश्वर से प्राप्त अनेक दानपत्रों में चालुक्य नरेश विनयादित्य, विजयादित्य और विक्रमादित्य द्वारा जैन आचार्यों को दान दिये जाने के उल्लेख मिलते हैं। बादामी और ऐहोल की जैन गुफायें और उनमें की तीर्थंकरों की प्रतिमायें भी इसी काल की सिद्ध होती हैं।
ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से दक्षिण में पुनः चालुक्य राजवंश का बल बढ़ा। यह राजवंश जैनधर्म का बड़ा संरक्षक रहा, तथा उसके साहाय्य से दक्षिण में जैनधर्म का बहुत प्रचार हुआ और उसकी ख्याति बढ़ी। पश्चिमी चालुक्य वंश के संस्थापक तैलप ने जैन कन्नड़ कवि रन्न को आश्रय दिया। तैलप के उत्तराधिकारी सत्याश्रय ने जैनमुनि विमलचन्द्र पंडित देव को अपना गुरु बनाया। इस वंश के अन्य राजाओं, जैसे जयसिंह द्वितीय, सोमेश्वर प्रथम और द्वितीय, तथा विक्रमादित्य षष्ठम ने कितने ही जैन कवियों को प्रोत्साहित कर साहित्य-स्रजन कराया, तथा जैन मन्दिरों व अन्य जैन संस्थाओं को भूमि आदि का दान देकर उन्हें सबल बनाया। होयसल राजवंश की तो स्थापना ही एक जैनमुनि के निमित्त से हुई कही जाती है। विनयादित्य नरेश के राज्यकाल में जैनमुनि वर्द्धमानदेव का शासन के प्रबन्ध में भी हाथ रहा कहा जाता है। इस वंश के दो अन्य राजाओं के गुरु भी जैनमुनि रहे। इस वंश के प्रायः सभी राजाओं ने जैन मंदिरों और आश्रमों को दान दिये थे। इस वंश के सबसे अधिक प्रतापी नरेश विष्णुवर्द्धन के विषय में कहा जाता है कि उसने रामानुजाचार्य के प्रभाव में पड़कर वैष्णवधर्म स्वीकार कर लिया था। किन्तु इस बात के प्रचुर प्रमाण मिलते हैं कि वह अपने राज्य के अन्त तक जैनधर्म के प्रति उपकारी और दानशील बना रहा। ई. सन् ११२५ में भी उसने जैनमुनि श्रीपाल त्रैविद्यदेव की आराधना की, शल्य नामक स्थान पर जैन विहार बनवाया तथा जैन मंदिरों व मुनियों के आहार के लिए दान दिया। एक अन्य ई. सन् ११२९ के लेखानुसार उसने मल्लिजिनालय के लिए एक दान किया। ई. सन् ११३३ में उसने अपनी राजधानी द्वारासमुद्र में ही पार्श्वनाथ जिनालय के लिए एक ग्राम का दान किया, तथा अपनी तत्कालीन विजय की स्मृति में वहाँ के मूलनायक को विजय-पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध किया और अपने पुत्र का नाम विजयसिंह रक्खा, और इस प्रकार उसने अपने परम्परागत धर्म तथा नये धारण किये हुए धर्म के बीच संतुलन बनाये रखा। उसने रानी शांतलदेवी आजन्म जैनधर्म की उपासिका रही और जैन मंदिरों को अनेक दान देती रही। उसके गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव थे, और उसने सन् ११२१ में जैन समाधि-मरण की संल्लेखना विधि से देह त्याग किया। विष्णुवर्द्धन के अनेक प्रभावशाली मंत्री और सेनापति भी जैन धर्मानुयायी थे। उसके गंगराज सेनापति ने अनेक जैनमंदिर बनवाये, अनेकों का जीर्णोद्धार किया तथा अनेकों जैन संस्थाओं को विपुल दान दिये। उसकी पत्नी लक्ष्मीमति ने भी जैन सल्लेखना विधि से मरण किया, जिसकी स्मृति में उसके पति ने श्रवणबेलगोला के पर्वत पर एक लेख खुदवाया। उसके अन्य अनेक सेनापति, जैसे बोप्प, पुनिस, मरियाने व भरतेश्वर, जैन मुनियों के उपासक थे और जैन धर्म के प्रति बड़े दानशील थे, इसके प्रमाण श्रवणबेलगोला व अन्य स्थानों के बहुत से शिलालेखों में मिलते हैं। विष्णुवर्द्धन के उत्तराधिकारी नरसिंह प्रथम ने श्रवणबेलेगोला की वंदना की तथा अपने महान् सेनापति हुल्ल द्वारा बनवाये हुए चतुर्विंशति जिनालय को एक ग्राम का दान दिया। होयसल नरेश वीर-बल्लाल द्वितीय व नरसिंह तृतीय के गुरु जैन मुनि थे। इन नरेशों ने तथा इस वंश के अन्य अनेक राजाओं ने जैन मंदिर बनवाये और उन्हें बड़े-बड़े दानों से पुष्ट किया। इस प्रकार यह पूर्णतः सिद्ध है कि होयसल वंश के प्रायः सभी नरेश जैन धर्मानुयायी थे और उनके साहाय्य एवं संरक्षण द्वारा जैन मंदिर तथा अन्य धार्मिक संस्थाएँ दक्षिण प्रदेश में खूब फैलीं और समृद्ध हुई।
अन्य राजवंश -
उक्त राजवंशों के अतिरिक्त दक्षिण के अनेक छोटे-मोटे राजघरानों द्वारा भी जैनधर्म को खूब बल मिला। उदाहरणार्थ, कर्नाटक के तीर्थहल्लि तालुका व उसके आसपास के प्रदेश पर राज्य करनेवाले सान्तर नरेशों ने प्रारम्भ से ही जैन धर्म को खूब अपनाया। भुजबल सान्तर ने अपनी राजधानी पोम्बुर्चा में एक जैनमंदिर बनवाया व अपने गुरू कनकनंदिदेव को उस मंदिर के संरक्षणार्थ एक ग्राम का दान दिया। वीर सान्तर के मंत्री नगुलरस को ई. सन् १०८१ के एक शिलालेख में जैनधर्म का गढ़ कहा गया है। स्वयं वीर सान्तर को एक लेख में जिनभगवान् के चरणों का भृंग कहा गया है। तेरहवीं शताब्दी में सान्तरनरेशों के वीरशैव धर्म स्वीकार कर लेने पर उनके राज्य में जैनधर्म की प्रगति व प्रभाव कुछ कम अवश्य हो गया, तथापि सान्तर वंशी नरेश शैबधर्मावलंबी होते हुए भी जैनधर्म के प्रति श्रद्धालु और दानशील बने रहे। उसी प्रकार मैसूर प्रदेशान्तर्गत कुर्ग व उसके आसपास राज्य करनेवाले कांगल्व नरेशों ने ग्यारहवीं व बारहवीं शताब्दियों में अनेक जैनमंदिर बनवाये और उन्हें दान दिये। चांगल्व नरेश शैवधर्मावलंबी होते हुए भी जैनधर्म के बड़े उपकारी थे, यह उनके कुछ शिलालेखों से सिद्ध होता है जिनमें उनके द्वारा जैनमंदिर बनवाने व दान देने के उल्लेख मिलते हैं। इन राजाओं के अतिरिक्त अनेक ऐसे वैयक्तिक सामन्तों, मंत्रियों, सेनापतियों तथा सेठ साहूकारों के नाम शिलालेखों में मिलते है, जिन्होंने नाना स्थानों पर जिनमंदिर बनवाये, जैनमूर्तियां प्रतिष्ठित कराई, पूजा अर्चा की; तथा धर्म की बहुविध प्रभावना के लिये विविध प्रकार के दान दिये। इतना ही नहीं, किन्तु उन्होंने अपने जीवन के अन्त में वैराग्य धारण कर जैनविधि से समाधिमरण किया। दक्षिण प्रदेश भर में जो आजतक भी अनेक जैनमंदिर व मूर्त्तियाँ अथवा उनके ध्वंसावशेष बिखरे पड़े हैं, उनसे भलेप्रकार सिद्ध होता है कि यह धर्म वहां कितना सुप्रचलित और लोकप्रिय रहा, एवं राजगृहों से लगाकर जनसाधारण तक के गृहों में प्रविष्ट हो, उनके जीवन को नैतिक, दानशील तथा लोकोपकारोन्मुख बनाता रहा।
क्रमश .....20
********** इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान
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बहुत रोचक ओर ग्याण से भरा आप का यह लेख