जैन:प्राचीन इतिहास-1

Posted: 05 जनवरी 2010

प्राचीन इतिहास -

जैन पुराणों में भारतवर्ष का इतिहास उसके भौगोलिक वर्णन के साथ किया गया पाया जाता है। भारत जम्बूद्वीप के दक्षिणी भाग में स्थित है। इसके उत्तर में हिमवान् पर्वत है और मध्य में विजयार्द्ध पर्वत। पश्चिम में हिमवान् से निकली हुई सिन्ध नदी बहती है और पूर्व में गंगानदी, जिससे उत्तरभारत के तीन विभाग हो जाते हैं। दक्षिण भारत के भी पूर्व, मध्य और पश्चिम दिशाओं में तीन विभाग हैं। ये ही भारत के छह खंड हैं, जिन्हें विजय करके कोई सम्राट् चक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त करता है।


भारत का इतिहास देश की उस काल की अवस्था के वर्णन से प्रारम्भ होता है, जब आधुनिक नागरिक सभ्यता का विकास नहीं हुआ था। उस समय भूमि घास और सघन वृक्षों से भरी हुई थी। सिंह, व्याघ्र, हाथी, गाय, भैंस, आदि सभी पशु वनों में पाये जाते थे। मनुष्य ग्राम व नगरों में नहीं बसते थे, और कौटुम्बिक व्यवस्था भी कुछ नहीं थी। उस समय न लोग खेती करना जानते थे, न पशुपालन, न अन्य कोई उद्योग-धन्धे। वे अपने खान, पान, शरीराच्छादन आदि की आवश्यकताएं वृक्षों से ही पूरी कर लेते थे। इसीलिए उस काल के वृक्षों को कल्पवृक्ष कहा गया है। कल्पवृक्ष अर्थात् ऐसे वृक्ष जो मनुष्यों की सब इच्छाओं की पूर्त्ति कर सकें। भाई-बहन ही पति-पत्नी रूप से रहने लगते थे, और माता-पिता अपने ऊपर सन्तान का कोई उत्तरदायित्व अनुभव नहीं करते थे। इस काल में धर्म-साधना, पुण्य-पाप की भावना आदि कोई विचार विवेक नहीं थे। इस परिस्थिति को पुराणकारों ने भोगभूमि-व्यवस्था कहा है, क्योंकि उसमें आगे आनेवाली कर्मभूमि सम्बन्धी कृषि और उद्योग आदि की व्यवस्थाओं का अभाव था।


क्रमशः उक्त अवस्था में परिवर्त्तन हुआ, और उस युग का प्रारम्भ हुआ जिसे पुराणकारों ने कर्म-भूमि का युग कहा है व जिसे हम आधुनिक सभ्यता का प्रारम्भ कह सकते हैं। इस युग को विकास में लाने वाले चौदह महापुरुष माने गये हैं, जिन्हें कुलकर या मनु कहा है। इन्होंने क्रमशः अपने अपने काल में लोगों को हिंस्र पशुओं से अपनी रक्षा करने के उपाय बताये। भूमि व वृक्षों के वैयक्तिक स्वामित्व की सीमाएं निर्धारित की। हाथी आदि वन्य पशुओं का पालन कर, उन्हें वाहन के उपयोग में लाना सिखाया। बाल बच्चों के लालन-पालन व उनके नामकरण आदि का उपदेश दिया। शीत तुषार आदि से अपनी रक्षा करना सिखाया। नदियों को नौकाओं द्वारा पार करना, पहाड़ों पर सीढ़ियां बनाकर चढ़ना, वर्षा से छत्रादिक धारण कर अपनी रक्षा करना आदि सिखाया। और अन्त में कृषि द्वारा अन्न उत्पन्न करने की कला सिखाई, जिसके पश्चात् वाणिज्य, शिल्प आदि वे सब कलाएं व उद्योगधन्धे उत्पन्न हुए जिनके कारण यह भूमि कर्मभूमि कहलाने लगी।
क्रमश .....







इसके मूल लेखक है...........
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान

डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए., डी.लिट्., एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
भूतपूर्व डायरेक्टर-शासकीय प्राकृत जैन अहिंसा शोध संस्थान, मुजफ्फरपुर.
प्रकाशक-मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद्, भोपाल

3 comments:

  1. Udan Tashtari 05 जनवरी, 2010

    बहुत अच्छा लगा जानना, आगे की कड़ियों का इन्तजार है.

  2. अविनाश वाचस्पति 05 जनवरी, 2010

    जानकर अच्‍छा लगा
    जानना जरूरी है
    यह भी जाना
    सब मानें।

  3. ताऊ रामपुरिया 05 जनवरी, 2010

    बहुत सुंदर, आगे की प्रतिक्षा.

    रामराम.

एक टिप्पणी भेजें

आपकी अमुल्य टीपणीयो के लिये आपका हार्दिक धन्यवाद।
आपका हे प्रभु यह तेरापन्थ के हिन्दी ब्लोग पर तेह दिल से स्वागत है। आपका छोटा सा कमेन्ट भी हमारा उत्साह बढता है-