गतातांक से आगे............
चौदह कुलकरों के पश्चात् जिन महापुरुषों ने कर्मभूमि की सम्यता के युग में धर्मोपदेश व अपने चारित्र द्वारा अच्छे बुरे का भेद सिखाया, ऐसे त्रेसठ महापुरुष हुए, जो शलाका पुरुष अर्थात् विशेष गणनीय पुरुष माने गये हैं, और उन्हीं का चरित्र जैन पुराणों में विशेष रूप से वर्णित पाया जाता है। इन त्रेसठ शलाका पुरुषों में चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण और नौ प्रति-नारायण सम्मिलित हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं :-
२४ तीर्थंकर :-
१-ऋषभ, २-अजित, ३-संभव, ४-अभिनंदन, ५-सुमति, ६-पद्मप्रभ, ७-सुपार्श्व, ८-चन्द्रप्रभ, ९-पुष्पदंत, १०-शीतल, ११-श्रेयांस, १२-वासुपूज्य, १३-विमल, १४-अनन्त, १५-धर्म, १६-शान्ति, १७-कुन्थु, १८-अरह, १९-मल्लि, २०-मुनिसुव्रत, २१-नमि, २२-नेमि, २३-पार्श्वनाथ, २४-वर्धमान अथवा महावीर।
१२ चक्रवर्ती :-
२५-भरत, २६-सगर, २७-मघवा, २८-सनत्कुमार, २९-शान्ति, ३०-कुन्थु, ३१-अरह, ३२-सुभौम, ३३-पद्म, ३४-हरिषेण, ३५-जयसेन, ३६-ब्रह्मदत्त।
९ बलभद्र :-
३७-अचल, ३८-विजय, ३९-भद्र, ४०-सुप्रभ, ४१-सुदर्शन, ४२-आनन्द, ४३-नन्दन, ४४-पद्म, ४५-राम।
९ वासुदेव :-
४६-त्रिपृष्ठ, ४७-द्विपृष्ठ, ४८-स्वयम्भू, ४९-पुरुषोत्तम, ५०-पुरुषसिंह, ५१-पुरुषपुण्डरीक, ५२-दत्त, ५३-नारायण, ५४-कृष्ण।
९ प्रति-वासुदेव :-
५५-अश्वग्रीव, ५६-तारक, ५७-मेरक, ५८-मधु, ५९-निशुम्भ, ६०-बलि, ६१-प्रहलाद, ६२-रावण, ६३-जरासंघ।
आदि तीर्थंकर और वातरशना मुनि -
इन त्रेसठ शलाका पुरुषों में सबसे प्रथम जैनियों के आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ हैं, जिनसे जैनधर्म का प्रारम्भ माना जाता है। उनका जन्म उक्त चौदह कुलकरों में से अन्तिम कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी से हुआ था। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् वे राजसिंहासन पर बैठे और उन्होंने कृषि, असि, मसि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन छह आजीविका के साधनों की विशेष रूप से व्यवस्था की, तथा देश व नगरों एवं वर्ण व जातियों आदि का सुविभाजन किया। इनके दो पुत्र भरत और बाहुबलि, तथा दो पुत्रियां ब्राह्मी और सुन्दरी थीं, जिन्हें उन्होंने समस्त कलाएं व विद्याएं सिखलाई। एक दिन राज्य सभा में नीलांजना नाम की नर्तकी की नृत्य करते करते ही मृत्यु हो गई। इस दुर्घटना से ऋषभदेव को संसार से वैराग्य हो गया, और वे राज्य का परित्याग कर तपस्या करने वन को चले गये। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत राजा हुए, और उन्होंने अपने दिग्विजय द्वारा सर्वप्रथम चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। उनके लघु भ्राता बाहुबलि भी विरक्त होकर तपस्या में प्रवृत्त हो गये।
जैन पुराणों में ऋषभदेव के जीवन व तपस्या का तथा केवलज्ञान प्राप्त कर धर्मोपदेश का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। जैनी इसी काल से अपने धर्म की उत्पत्ति मानते हैं। ऋषभदेव के काल का अनुमान लगाना कठिन है। उनके काल की दूरी का वर्णन जैन पुराण सागरों के प्रमाण से करते हैं। सौभाग्य से ऋषभदेव का जीवन चरित्र जैन साहित्य में ही नहीं, किन्तु वैदिक साहित्य में भी पाया जाता है। भागवत पुराण के पांचवें स्कंध के प्रथम छह अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवन व तपश्चरण का वृतान्त वर्णित है, जो सभी मुख्य मुख्य बातों में जैन पुराणों से मिलता है। उनके माता पिता के नाम नाभि और मरुदेवी पाये जाते हैं, तथा उन्हें स्वयंभू मनु से पांचवीं पीढ़ी में इस क्रम से हुए कहा गया है-स्वयंभू, मनु, प्रियव्रत, अग्नीध्र, नाभि और ऋषभ। उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य देकर सन्यास ग्रहण किया। वे नग्न रहने लगे और केवल शरीर मात्र ही उनके पास था। लोगों द्वारा तिरस्कार किये जाने, गाली-गलौज किये जाने व मारे जाने पर भी वे मौन ही रहते थे। अपने कठोर तपश्चरण द्वारा उन्होंने कैवल्य की प्राप्ति की, तथा दक्षिण कर्नाटक तक नाना प्रदेशों में परिभ्रमण किया। वे कुटकाचल पर्वत के वन में उन्मत्त की नाई नग्नरूप में विचरने लगे। बांसों की रगड़ से वन में आग लग गई और उसी में उन्होंने अपने को भस्म कर डाला।
भागवत पुराण में यह भी कहा गया है कि ऋषभदेव के इस चरित्र को सुनकर कोंक, बैंक व कुटक का राजा अर्हन् कलयुग में अपनी इच्छा से उसी धर्म का संप्रवर्त्तन करेगा, इत्यादि। इस वर्णन से इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि भागवत पुराण का तात्पर्य जैन पुराणों के ऋषभ तीर्थंकर से ही है, और अर्हन् राजा द्वारा प्रवर्तित धर्म का अभिप्राय जैनधर्म से। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि भागवत पुराण तथा वैदिक परम्परा के अन्य प्राचीन ग्रंथों में ऋषभदेव के संबंध की बातों की कुछ गहराई से जांच पड़ताल की जाय।
क्रमश ....3
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान
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बहुत ग्याण बर्धक जानकारी क्जे लिये धन्यवाद
अच्छा, भाग्वत पुराण में उल्लेख?! लगता है पुराण पढ़ना होगा एक बार।