त्रिवर्ग सिद्धान्त

Posted: 27 दिसंबर 2009
धर्म, अर्थ (सम्पति), काम (इच्छा)
धर्मार्थावुच्यते श्रेयः कामार्थो धर्म एव च।
अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थिति॥
परित्यजेदर्थकामो यो स्याता धर्म वर्जितो।

कुछ लोगो का कहना है कि कल्याण एव सुख्-सन्तोष की प्राप्ति के लिऍ धर्म और श्रेयस्कर है, अन्य लोगो का मानना है कि अर्थ और काम ही अति उत्तम है और कुछ अन्य लोगो का कहना है कि धर्म सर्वोत्तम है। ऐसे भी लोग है जिनके अनुशार केवल अर्थ ही सन्तोष प्रदान कर सकता है।
लेकिन सही विचार यह है कि धर्म, अर्थ और काम (त्रिवर्ग) के समन्वय से ही सुख की प्राप्ती हो सकती है। और इसी मे सबका कल्याण है।
परन्तु धर्म विरुद्ध ऐश्वर्य (अर्थ) और इच्छा (काम्) का हमेशा त्याग करना चाहिए
(मनु -२२२४-४-१७६)
धर्म बुरे विचारों का नाश करता है .

धर्मेण पापमपनुदति !
धर्म सर्व प्रतिष्टितम!
तस्माद्धर्मा परमा वदन्ति!!


सभी धर्म पर निर्भर है इसलिए धर्म सर्वोत्तम है. (महानारायण उपनिषद्)

मन के अरिषडवर्ग  निरोधक -अर्थात धर्म , मन के छ: शत्रुओ का विनाशक 

काम         क्रोध       लोभ           मोह             मद       मात्सर्य 
(इच्छा)    (कोप)    (लालच)     (आसक्ति )    (अहंकार)    (इर्ष्या )


बाल्यावस्था से ही धर्म की शिक्षा देने से अनैतिक विचारों / कार्यो कों नियंत्रण में रखने  की आतंरिक शक्ति प्राप्त होती है. केवल इसी प्रकार से ही धर्मचारण करने वाले नागरिको की संख्या बढाई जा सकती है.
आज सभी समस्याओं का एकमेव समाधान केवल यही है.

4 comments:

  1. Udan Tashtari 27 दिसंबर, 2009

    आभार

  2. ताऊ रामपुरिया 27 दिसंबर, 2009

    बहुत सुंदर : आभार.

    नये साल की रामराम.

    रामराम

  3. Gyan Dutt Pandey 28 दिसंबर, 2009

    ओह! मोक्ष पर क्या कहता है जैन मत?

  4. alka mishra 31 दिसंबर, 2009

    अति उत्तम जानकारी
    धर्मो रक्षति रक्षतः

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