तीर्थंकर वर्धमान महावीर -
अन्तिम जैन तीर्थंकर भगवान महावीर के माता-पिता तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की सम्प्रदाय के अनुयायी थे-ऐसा जैन आगम (आचारांग ३, भावचूलिका ३, सूत्र ४०१) में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यह भी कहा गया है कि उन्होंने प्रवृजित होने पर सामायिक धर्म ग्रहण किया था और पश्चात् केवलज्ञानी होने पर छेदोपस्थापना संयम का विधान किया (आचारांग २, १५, १०१३)। उनके पिता सिद्धार्थ कुंडपुर के राजा थे, और उनकी माता त्रिशला देवी लिच्छवि वंशी राजा चेटक की पुत्री, अथवा एक अन्य परम्परानुसार बहन थीं।
उनका पैतृक गोत्र नाय, नाघ, नात (संस्कृत ज्ञातृ) था। इसी से वे बौद्ध पालि ग्रन्थों में नातपुत्त के नाम से उल्लिखित किये गये हैं। भगवान् का जन्मस्थान कुंडपुर कहां था, इसके संबंध में पश्चात्कालीन जैन परंपरा में भ्रान्ति उत्पन्न हुई पाई जाती है। दिगम्बर सम्प्रदाय ने उनका जन्मस्थान नालंदा के समीप कुंडलपुर को माना है, जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने मुंगेर जिले के लछुआड़ के समीप क्षत्रियकुंड को उनकी जन्मभूमि होने का सम्मान दिया है। किन्तु जैन आगमों व पुराणों में उनकी जन्मभूमि के संबंध में जो बातें कही गई हैं, वे उक्त दोनों स्थानों में घटित होती नहीं पाई जातीं। दोनों परम्पराओं के अनुसार भगवान् की जन्मभूमि कुंडपुर विदेह देश में स्थित माना गया है, (ह.पु. २, ४; उ.पु. ७४, २५१) और इसी से महावीर भगवान को विदेहपुत्र, विदेह-सुकुमार आदि उपनाम दिये गये हैं और यह भी स्पष्ट कहा गया है कि उनके कुमारकाल के तीस वर्ष विदेह में ही व्यतीत हुए थे। विदेह की सीमा प्राचीनतम काल से प्रायः निश्चित रही पाई जाती है। अर्थात् उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पूर्व में कौशिकी और पश्चिम में गंडकी। किंतु उपर्युक्त वर्त्तमान में जन्मभूमि माने जाने वाले दोनों ही स्थान कुंडलपुर व क्षत्रियकुंड, गंगा के उत्तर में नहीं, किन्तु दक्षिण में पड़ते हैं, और वे विदेह में नहीं, किन्तु मगधदेश की सीमा के भीतर आते हैं।
महावीर की जन्मभूमि के समीप गंडकी नदी प्रवाहित होने का भी उल्लेख है। गंडकी, उत्तर बिहार की ही नदी है, जो हिमालय से निकल कर गंगा में सोनपुर के समीप मिली है। उसकी गंगा से दक्षिण में होने की संभावना ही नहीं। महावीर को आगमों में अनेक स्थलों पर बेसालिय (वैशालीय) की उपाधि सहित उल्लिखित किया गया है, (सू.कृ. १, २; उत्तरा. ६) जिससे स्पष्ट होता है कि वे वैशाली के नागरिक थे, जिसप्रकार कि कौशल देश के होने के कारण भगवान ऋषभदेव को अनेक स्थलों पर कोसलीय (कौशलीय) कहा गया है। इन्हीं कारणों से डा. हार्नले, जैकोबी आदि पाश्चात्य विद्वानों को उपर्युक्त परम्परा-मान्य दोनों स्थानों में से किसी को भी महावीर की यथार्थ जन्मभूमि स्वीकार करने में संदेह हुआ है, और वे वैशाली को ही भगवान् की सच्ची जन्मभूमि मानने की ओर झुके हैं। पुरातत्त्व की शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि प्राचीन वैशाली आधुनिक तिरहुत मंडल के मुजफ्फरपुर जिले के अन्तर्गत बसाढ़ नामक ग्राम के आसपास ही बसी हुई थी, जहां राजा विशाल का गढ़ कहलानेवाला स्थल अब भी विद्यमान है। इस स्थान के आसपास के क्षेत्र में वे सब बातें उचितरूप से घटित हो जाती हैं, जिनका उल्लेख महावीर जन्मभूमि से संबद्ध पाया जाता है। यहां से समीप ही अब भी गंडक नदी बहती है, और वह प्राचीन काल में बसाढ़ के अधिक समीप बहती रही हो, यह भी संभव प्रतीत होता है।
भगवान् ने प्रव्रजित होने के पश्चात् जो प्रथमरात्रि कर्मार ग्राम में व्यतीत की थी, वह ग्राम अब कम्मन-छपरा के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान् ने प्रथम पारणा कोल्लाग संनिवेश में की थी, वही स्थान आजका कोल्हुआ ग्राम हो तो आश्चर्य नहीं। जिस वाणिज्यग्राम में भगवान ने अपना प्रथम व आगे भी अनेक वर्षावास व्यतीत किये थे, वही अब बनिया ग्राम कहलाता है।
इतिहास इस बात को स्वीकार कर चुका है कि लिच्छिविगण के अधिनायक, राजा चेटक, इसी वैशाली में अपनी राजधानी रखते थे। यहां भगवान् का पैत्रिकगोत्र काश्यप और उनकी माता का गोत्र वशिष्ठ था। ये दोनों गोत्र यहां बसनेवाली जथरिया नामक जाति में अब भी पाये जाते हैं। इस पर से कुछ विद्वानों का यह भी अनुमान है कि यही जाति ज्ञातृवंश की आधुनिक प्रतिनिधि हो तो आश्चर्य नहीं। प्राचीन वैशाली के समीप ही एक वासुकुंड नामक ग्राम है, जहां के निवासी परंपरा से एक स्थल को भगवान् की जन्मभूमि मानते आए हैं, और उसी पूज्य भाव से उस पर कभी हल नहीं चलाया गया। समीप ही एक विशाल कुंड है जो अब भर गया है और जोता-बोया जाता है। वैशाली की खुदाई में एक ऐसी प्राचीन मुद्रा भी मिली है, जिसमें `वैशाली नाम कुंडे' ऐसा उल्लेख है। इन सब प्रमाणों के आधार पर बहुसंख्यक विद्वानों ने इसी वासु-कुंड को प्राचीन कुंडपुर व महावीर की सच्ची जन्मभूमि स्वीकार कर लिया है, व इसी आधार पर वहां के उक्त क्षेत्र को अपने अधिकार में लेकर, बिहार राज्य ने वहाँ महावीर स्मारक स्थापित कर दिया है, और वहाँ एक अर्द्धमागधी पद्यों में रचित शिलालेख में यह स्पष्ट घोषणा कर दी है कि यही वह स्थल है, जहाँ भगवान महावीर का जन्म हुआ था। इसी स्थल के समीप बिहार राज्य ने प्राकृत जैन विद्यापीठ को स्थापित करने का भी निश्चय किया है।
महावीर के जीवन संबंधी कुछ घटनाओं के विषय पर दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में थोड़ा मतभेद है। दिगम्बर परम्परानुसार वे तीस वर्ष की अवस्था तक कुमार व अविवाहित रहे और फिर प्रव्रजित हुए। किन्तु श्वेताम्बर परम्परानुसार उनका विवाह भी हुआ था और उनके एक पुत्री भी उत्पन्न हुई थी, तथा इनका जामाता जामाली भी कुछ काल तक उनका शिष्य रहा था। प्रव्रजित होते समय दिगम्बर परम्परानुसार उन्होंने समस्त वस्त्रों का परित्याग कर अचेल दिगंम्बर रूप धारण किया था, किन्तु श्वेताम्बर परम्परानुसार उन्होंने प्रव्रजित होने से डेढ़ वर्ष तक वस्त्र सर्वथा नहीं छोड़ा था। डेढ़ वर्ष के पश्चात् ही वे अचेलक हुए। बारह वर्ष की तपश्चर्या के पश्चात् उन्हें ऋजुकूला नदी के तट पर केवलज्ञान प्राप्त हुआ और फिर तीस वर्ष तक नाना प्रदेशों में विहार करते हुए, वे उपदेश देते हुए, उन्होंने अपने तीर्थ की स्थापना की, यह दोनों सम्प्रदायों को मान्य है। किंतु उनका प्रथम उपदेश दिगम्बर मान्यतानुसार राजगृह के विपुलाचल पर्वत पर हुआ था तथा श्वेताम्बर मान्यतानुसार पावा के समीप एक स्थल पर, जहाँ हाल ही में एक विशालमंदिर बनवाया गया है। दोनों परम्पराओं के अनुसार भगवान् का निर्वाण बहत्तर वर्ष की आयु में पावापुरी में हुआ। यह स्थान पटना जिले में बिहारशरीफ के समीप लगभग सात मील की दूरी पर माना जाता है, जहां सरोवर के बीच एक भव्य मंदिर बना हुआ है।
क्रमश ....10.
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान
बहुत आभार..
बसंत पंचमी की शुभकामनाएँ.