जैन:प्राचीन इतिहास-10

Posted: 23 जनवरी 2010
गतांक से आगे........

महावीर की संघ-व्यवस्था और उपदेश -

महावीर भगवान् ने अपने अनुयायियों को चार भागों में विभाजित किया-मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। प्रथम दो वर्ग गृहत्यागी परिव्राजकों के थे और अन्तिम दो गृहस्थों के। यही उनका चतुर्विध-संघ कहलाया। उन्होंने मुनि और गृहस्थ धर्म की अलग अलग व्यवस्थाएं बांधी। उन्होंने धर्म का मूलाधार अहिंसा को बनाया और उसी के विस्तार रूप पांच व्रतों को स्थापित किया-अहिंसा, अमृषा, अचौर्य, अमैथुन और अपरिग्रह। इन व्रतों व यमों का पालन मुनियों के लिए पूर्णरूप से महाव्रतरूप बतलाया तथा गृहस्थों के लिए स्थूलरूप-अणुव्रत रूप। गृहस्थों के भी उन्होंने श्रद्धान् मात्र से लेकर, कोपीनमात्र धारी होने तक के ग्यारह दर्जे नियत किये। दोषों और अपराधों के निवारणार्थ उन्होंने नियमित प्रतिक्रमण पर जोर दिया।


भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट तत्त्वज्ञान को संक्षेप में इसप्रकार व्यक्त किया जा सकता है :- जीव और अजीव अर्थात् चेतन और जड़, ये दो विश्व के मूल तत्त्व हैं, जो आदितः परस्पर संबंद्ध पाए जाते हैं, और चेतन की मन-वचन व कायात्मक क्रियाओं द्वारा इस जड़-चेतन संबन्ध की परम्परा प्रचलित रहती है। इसे ही कर्माश्रव व कर्मबंध कहते हैं। यर्मों, नियमों आदि के पालन द्वारा इस कर्माश्रव की परम्परा को रोका जा सकता है, एवं संयम व तप द्वारा प्राचीन कर्मबंध को नष्ट किया जा सकता है। इस प्रकार चेतन का जड़ से सर्वथा मुक्त होकर, अपना अनन्तज्ञान-दर्शनात्मक स्वरूप प्राप्त कर लेना ही जीवन का परम लक्ष्य होना चाहिये, जिससे इस जन्म-मृत्यु की परम्परा का विच्छेद होकर मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति हो सके।


महावीर ने अपने उपदेश का माध्यम उस समय उनके प्रचार क्षेत्र में सुप्रचलित लोकभाषा अर्द्धमागधी को बनाया। इसी भाषा में उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों को आचारांगादि बारह अंगों में संकलित किया जो द्वादशांग आगम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।


महावीर निर्वाण काल -


जैन परम्परानुसार महावीर का निर्वाण विक्रम काल से ४७० वर्ष पूर्व तथा शक काल से ६०५ वर्ष पांच मास पूर्व हुआ था, जो सन् ईसवी से ५२७ वर्ष पूर्व पड़ता है। यह महावीर निर्वाण संवत् आज भी प्रचलित है और उसके ग्रंथों व शिलालेखों में उपयोग की परम्परा, कोई पांचवी छठवीं शताब्दी से लगातार पाई जाती है। इसमें सन्देह उत्पन्न करनेवाला केवल एक हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व का उल्लेख है जिसके अनुसार महावीर निर्वाण से १५५ वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त (मौर्य) राजा हुआ। और चूंकि चन्द्रगुप्त से विक्रमादित्य का काल सर्वत्र २५५ वर्ष पाया जाता है, अतः वीर निर्वाण का समय विक्रम से २५५+१५५=४१० वर्ष पूर्व (ई. पू. ४६७) ठहरा। याकोबी, चार्पेटियर आदि पाश्चात्य विद्वानों का यही मत है। इसके विपरीत डा. जायसवाल का मत है कि चूंकि निर्वाण से ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम का जन्म हुआ और १८ वर्ष के होने पर उनके राज्याभिषेक से उनका संवत् चला, अतएव विक्रम संवत् के ४७०+१८=४८८ वर्ष पूर्व वीर निर्वाण काल मानना चाहिये। वस्तुतः ये दोनों ही मत भ्रांत हैं। अधिकांश जैन उल्लेखों से सिद्ध होता है कि विक्रम जन्म से १८ वर्ष पश्चात् अभिषिक्त हुए और ६० वर्ष तक राज्यारूढ़ रहे, एवं उनका संवत् उनकी मृत्यु से प्रारंभ हुआ और उसी से ४७० वर्ष पूर्व वीर निर्वाण का काल है।


वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ माह पश्चात् जो शक सं. का प्रारम्भ कहा गया है, उसका कारण यह है कि महावीर का निर्वाण कार्तिक की अमावस्या को हुआ और इसीलिये प्रचलित वीर निर्वाण का संवत् कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से बदलता है। इससे ठीक ५ माह पश्चात् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शक संवत् प्रारम्भ होता है। शक संवत् ७०५ में रचित जिनसेन कृत सं. हरिवंश पुराण में वर्णन है कि महावीर के निर्वाण होने पर उनकी निर्वाणभूमि पावानगरी में दीपमालिका उत्सव मनाया गया और उसी समय से भारत में उक्त तिथि पर प्रतिवर्ष इस उत्सव के मनाने की प्रथा चली। इस दिन जैन लोग निर्वाणोत्सव दीपमालिका द्वारा मनाते हैं और महावीर की पूजा का विशेष आयोजन करते हैं। जहां तक पता चलता है दीपमालिका उत्सव जो भारतवर्ष का सर्वव्यापी महोत्सव बन गया है, उसका इससे प्राचीन अन्य कोई साहित्यिक उल्लेख नहीं है
क्रमश .....11
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान

2 comments:

  1. ताऊ रामपुरिया 24 जनवरी, 2010

    बहुत सुंदर जानकारी मिली.

    रामराम.

  2. Udan Tashtari 24 जनवरी, 2010

    आभार इस जानकारीपूर्ण आलेख का.

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