जैन:प्राचीन इतिहास-7

Posted: 16 जनवरी 2010
गातांक से आगे..............


तीर्थंकर नेमी नाथ 
वेदकालीन आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ के पश्चात् जैन पुराण परम्परा में जो अन्य तेईस तीर्थंकरों के नाम या जीवन-वृत्त मिलते हैं, उनमें बहुतों के तुलनात्मक अध्ययन के साधनों का अभाव है। तथापि अंतिम चार तीर्थंकरों की ऐतिहासिक सत्ता के थोड़े बहुत प्रमाण यहां उल्लेखनीय हैं। इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ थे। नमि मिथिला के राजा थे, और उन्हें हिन्दू पुराण में भी जनक के पूर्वज माना गया है। नमि की प्रव्रज्या का एक सुंदर वर्णन हमें उत्तराध्ययन सूत्र के नौवें अध्याय में मिलता है, और यहां उन्हीं के द्वारा वे वाक्य कहे गये हैं, जो वैदिक व बौद्ध परम्परा के संस्कृत व पालि साहित्य में गूंजते हुए पाये जाते हैं, तथा जो भारतीय अध्यात्म संबंधी निष्काम कर्म व अनासक्ति भावना के प्रकाशन के लिये सर्वोत्कृष्ट वचन रूप से जहां तहां उद्धृत किये जाते हैं। वे वचन हैं-


सुहं वसामो जीवामो जेसिं मों णत्थि किंचण।
मिहिलाए डज्झभाणीए ण मे डज्झइ किंचण ।।
(उत्त. ९-१४)
सुसुखं वत जीवाम येसं नो नत्थि किंचनं।
मिथिलाये दहमानाय न मे किंचि अदय्हथ ।।
(पालि-महाजनक जातक)
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किञ्चन दहय्ते ।।
(म. भा. शांतिपर्व)


नमि की यही अनासक्त वृत्ति मिथिला राजवंश में जनक तक पाई जाती है। प्रतीत होता है कि जनक के कुल की इसी आध्यात्मिक परम्परा के कारण वह वंश तथा उनका समस्त प्रदेश ही विदेह (देह से निर्मोह, जीवन्मुक्त) कहलाया और उनकी अहिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण ही उनका धनुष प्रत्यंचा-हीन रूप में उनके क्षत्रियत्व का प्रतीकमात्र सुरक्षित रहा। सम्भवतः यही वह जीर्ण धनुष था, जिसे राम ने चढ़ाया और तोड़ डाला। इस प्रसंग में जो व्रात्यों के `ज्याहृद' शस्त्र के संबंध में ऊपर कह आये हैं, वह बात भी ध्यान देने योग्य है।


तीर्थंकर नेमिनाथ -


तत्पश्चात् महाभारत काल में बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ हुए। इनकी वंश-परम्परा इस प्रकार बतलाई गई है-शौरीपुर के यादव वंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र हुए समुद्रविजय, जिनसे नेमिनाथ उत्पन्न हुए। तथा सबसे छोटे पुत्र थे वसुदेव, जिनसे उत्पन्न हुए वासुदेव कृष्ण। इस प्रकार नेमिनाथ और कृष्ण आपस में चचेरे भाई थे। जरासंध के आतंक से त्रस्त होकर यादव शौरीपुर को छोड़कर द्वारका में जा बसे। नेमिनाथ का विवाह-सम्बन्ध गिरिनगर (जूनागढ़) के राजा उग्रसेन की कन्या राजुलमती से निश्चित हुआ। किन्तु जब नेमिनाथ की बारात कन्या के घर पहुंची और वहां उन्होंने उन पशुओं को घिरे देखा, जो अतिथियों के भोजन के लिए मारे जाने वाले थे, तब उनका हृदय करुणा से व्याकुल हो उठा और वे इस हिंसामयी गार्हस्थ प्रवृत्ति से विरक्त होकर, विवाह का विचार छोड़, गिरनार पर्वत पर जा चढ़े और तपस्या में प्रवृत्त हो गये। उन्होंने केवल-ज्ञान प्राप्त कर उसी श्रमण परम्परा को पुष्ट किया। नेमिनाथ की इस परम्परा को विशेष देन प्रतीत होती है-अहिंसा को धार्मिक वृत्ति का मूल मानकर उसे सैद्धांतिक रूप देना।' महाभारत का काल ई. पूर्व १००० के लगभग माना जाता है। अतएव ऐतिहासिक दृष्टि से यही काल नेमिनाथ तीर्थंकर का मानना उचित प्रतीत होता है। यहां प्रसंगवश यह भी ध्यान देने योग्य है कि महाभारत के शांतिपर्व में जो भगवान् तीर्थवित् और उनके द्वारा दिये गये उपदेश का वृत्तान्त मिलता है, वह जैन तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट धर्म के समरूप है।
क्रमश .....8
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान

2 comments:

  1. निर्मला कपिला 16 जनवरी, 2010

    बहुत अच्छी जानकारी है पिछली पोस्ट भी फुरसत मे पढूँगी। धन्यवाद्

  2. राज भाटिय़ा 17 जनवरी, 2010

    फ़िर से नयी जानकारी दी आप ने धन्यवाद

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