जैन:प्राचीन इतिहास-5

Posted: 13 जनवरी 2010
गातांक से आगे............
केशी और ऋषभ के एक ही पुरुषवाची होने के उक्त प्रकार अनुमान करने के पश्चात् हठात् मेरी दृष्टि ऋग्वेद की एक ऐसी ऋचा पर पड़ गई जिसमें वृषभ और केशी का साथ साथ उल्लेख आया है। वह ऋचा इस प्रकार है :-
ककर्दवे वृषभो युक्त आसीद्
अवावचीत् सारथिरस्य केशी
दुधर्युक्तस्य द्रव्रतः सहानस
ऋच्छन्ति मा निष्पदो मुद्गलानीम् ।।
(ऋग्वेद १०, १०२, ६)
जिस सूक्त में यह ऋचा आई है उसकी प्रस्तावना में निरुक्त के जो `मुद्गलस्य हृता गावः' आदि श्लोक उद्धृत किए गए हैं, उनके अनुसार मुद्गल ऋषि की गौवों को चोर चुरा ले गए थे। उन्हें लौटाने के लिए ऋषि ने केशी वृषभ को अपना सारथी बनाया, जिसके वचन मात्र से वे गौएं आगे को न भागकर पीछे की ओर लौट पड़ीं। प्रस्तुत ऋचा का भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने पहले तो वृषभ और केशी का वाच्यार्थ पृथक् बतलाया है। किंतु फिर प्रकारान्तर से उन्होंने कहा है :-
`अथवा, अस्य सारथिः सहायभूतः केशी प्रकृष्टकेशो वृषभः अवावचीत् भ्रशमशब्दयत्' इत्यादि।
सायण के इसी अर्थ को तथा निरूक्त के उक्त कथा-प्रसंग को भारतीय दार्शनिक परम्परानुसार ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत गाथा का मुझे यह अर्थ प्रतीत होता है-


मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान् नेता) केशी वृषभ जो शत्रुओं का विनाश करने के लिए नियुक्त थे, उनकी वाणी निकली, जिसके फल स्वरूप जो मुद्गल ऋषि की गौवें (इन्द्रियाँ) जुते हुए दुर्धर रथ (शरीर) के साथ दौड़ रहीं थीं, वे निश्चल होकर मौद्गलानी (मुद्गल की स्वात्मवृत्ति) की ओर लौट पड़ीं।
तात्पर्य यह कि मुद्गल ऋषि की जो इन्द्रियां पराङ्मुखी थीं, वे उनके योगयुक्त ज्ञानी नेता केशी वृषभ के धर्मीपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हो गई।


इसप्रकार केशी और वृषभ या ऋषभ के एकत्व का स्वयं ऋग्वेद से ही पूर्णतः समर्थन हो जाता है। विद्वान् इस एकीकरण पर विचार करें। मैं पहले ही कह चुका हूं कि वेदों का अर्थ करने में विद्वान् अभी पूर्णतः सफल नहीं हो सके हैं। विशेषतः वेदों की जैसी भारतीय संस्कृति में पदप्रतिष्ठा है, उसकी दृष्टि से तो अभी उनके समझने समझाने में बहुत सुधार की आवश्यकता है। मुझे आशा है कि केशी, वृषभ या ऋषभ तथा वातरशना मुनियों के वेदान्तर्गत समस्त उल्लेखों के सूक्ष्म अध्ययन से इस विषय के रहस्य का पूर्णतः उद्घाटन हो सकेगा। क्या ऋग्वेद (४, ५८, ३) के `त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महादेवो मर्त्यानाविवेश' का यह अर्थ नहीं हो सकता कि त्रिधा (ज्ञान, दर्शन और चारित्र से) अनुवद्ध वृषभ ने धर्म-घोषणा की और वे एक महान देव के रूप में मर्त्यो में प्रविष्ट हुए? इसी संबंध में ऋग्वेद के शिश्नदेवों (नग्न देवों) वाले उल्लेख भी ध्यान देने योग्य हैं (ऋ. वे. ७, २१, ५; १०, ९९, ३)। इस प्रकार ऋग्वेद में उल्लिखित वातरशना मुनियों के निर्ग्रंथ साधुओं तथा उन मुनियों के नायक केशी मुनि का ऋषभ-देव के साथ एकीकरण हो जाने से जैनधर्म की प्राचीन परंपरा पर बड़ा महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है।


वेदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों के बीच बहुत मतभेद है। कितने ही विद्वानों ने उन्हें ई. सन् से ५००० वर्ष व उससे भी अधिक पूर्व रचा गया माना है। किन्तु आधुनिक पाश्चात्य भारतीय विद्वानों का बहुमत यह है कि वेदों की रचना उसके वर्त्तमान रूप में ई. पूर्व सन् १५०० के लगभग हुई होगी। चारों वेदों में ऋग्वेद सब से प्राचीन माना जाता है। अतएव ऋग्वेद की ऋचाओं में ही वातरशना मुनियों तथा `केशी ऋषभदेव' का उल्लेख होने से जैन धर्म अपने प्राचीन रूप में ई. पूर्व सन् १५०० में प्रचलित मानना अनुचित न होगा। केशी नाम जैन परम्परा में प्रचलित रहा, इसका प्रमाण यह है कि महावीर के समय में पार्श्व सम्प्रदाय के नेता का नाम केशीकुमार था (उत्तरा. २३)।


उक्त वातरशना मुनियों की जो मान्यता व साधनाएं वैदिक ऋचा में भी उल्लिखित हैं, उन पर से हम इस परम्परा को वैदिक परम्परा से स्पष्टतः पृथक् रूप से समझ सकते हैं। वैदिक ऋषि वैसे त्यागी और तपस्वी नहीं, जैसे ये वातरशना मुनि। वे ऋषि स्वयं गृहस्थ हैं, यज्ञ सम्बन्धी विधि-विधान में आस्था रखते हैं और अपनी इहलौकिक इच्छाओं, जैसे पुत्र, धन, धान्य, आदि सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए इन्द्रादि देवी-देवताओं का आह्वान करते कराते हैं, तथा इसके उपलक्ष में यजमानों से धन-सम्पत्ति का दान स्वीकार करते हैं। किन्तु इसके विपरीत ये वातरशना मुनि उक्त क्रियाओं में रत नहीं होते। समस्त गृह द्वार, स्त्री-पुत्र, धन-धान्य आदि परिग्रह, यहाँ तक कि वस्त्र का भी परित्याग कर, भिक्षावृत्ति से रहते हैं। शरीर का स्नानादि संस्कार न कर मल धारण किये रहते हैं। मौन वृत्ति से रहते हैं, तथा अन्य देवी-देवताओं के आराधन से मुक्त आत्मध्यान में ही अपना कल्याण समझते हैं। स्पष्टतः यह उस श्रमण परम्परा का प्राचीन रूप है, जो आगे चलकर अनेक अवैदिक सम्प्रदायों के रूप में प्रगट हुई और जिनमें से दो अर्थात् जैन और बौद्ध सम्प्रदाय आज तक भी विद्यमान हैं। प्राचीन समस्त भारतीय साहित्य, वैदिक, बौद्ध व जैन तथा शिलालेखों में भी ब्राह्मण और श्रमण सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है। जैन एवं बौद्ध साधु आजतक भी श्रमण कहलाते हैं। वैदिक परम्परा के धार्मिक गुरु कहलाते थे ऋषि, जिनका वर्णन ऋग्वेद में बारंबार आया है। किन्तु श्रमणपरम्परा के साधुओं की संज्ञा मुनि थी, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में केवल उन वातरशना मुनियों के संबंध को छोड़, अन्यत्र कहीं नहीं आया। ऋषि-मुनि कहने से दोनों सम्प्रदायों का ग्रहण समझना चाहिये। पीछे परस्पर इन सम्प्रदायों का खूब आदान-प्रदान हुआ और दोनों शब्दों को प्रायः एक दूसरे का पर्यायवाची माना जाने लगा।
क्रमश ....6.
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान

3 comments:

  1. संजय बेंगाणी 13 जनवरी, 2010

    सुन्दर प्रयास है.

  2. अनोप मंडल 13 जनवरी, 2010

    महावीर, आप जिन वेदों की बातें यहां लिख रहे हैं उनके बारे में अनूप मंडल के ग्रन्थों में साफ़ लिखा है कि वे नकली बनावटी वेद हैं जिन्हें राक्षसों ने अपने अनुसार लिखा है। आप जरा अनूप मंडल के ग्रन्थों पर भी नजर मार लीजिये

  3. राज भाटिय़ा 15 जनवरी, 2010

    बहुत सुंदर जानकारी.
    धन्यवाद

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