जैन:प्राचीन इतिहास-3

Posted: 08 जनवरी 2010
गातांक से आगे..............

भागवतपुराण में कहा गया है कि-
"बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो बातरशनानां श्रमणानाम् ऋषीणाम् ऊर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार।"
(भा. पु. ५, ३, २०)
"यज्ञ में परम ऋषियों द्वारा प्रसन्न किए जाने पर, हे विष्णुदत्त, पारीक्षित, स्वयं श्री भगवान् (विष्णु) महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में महारानी मरुदेवी के गर्भ में आए। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया।"


भागवत पुराण के इस कथन में दो बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं, क्योंकि उनका भगवान् ऋषभदेव के भारतीय संस्कृति में स्थान तथा उनकी प्राचीनता और साहित्यिक परंपरा से बड़ा घनिष्ठ और महत्वपूर्ण संबंध है। एक तो यह कि ऋषभ देव की मान्यता और पूज्यता के संबंध में जैन और हिन्दुओं के बीच कोई मतभेद नहीं है। जैसे वे जैनियों के आदि तीर्थंकर हैं, उसी प्रकार वे हिन्दुओं के लिए साक्षात् भगवान् विष्णु के अवतार हैं। उनके ईश्वरावतार होने की मान्यता प्राचीनकाल में इतनी बद्धमूल हो गई थी कि शिवमहापुराण में भी उन्हें शिव के अट्ठाइस योगावतारों में गिनाया गया है (शिवमहापुराण, ७, २, ९)। दूसरी बात यह कि प्राचीनता में यह अवतार राम और कृष्ण के अवतारों से भी पूर्व का माना गया है। इस अवतार का जो हेतु भागवत पुराण में बतलाया गया है उससे श्रमण धर्म की परम्परा भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से निःस्सन्देह रूप से जुड़ जाती है। ऋषभावतार का हेतु वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करना बतलाया गया है।


भागवत पुराण में यह भी कहा गया कि-
`अयमवतारो रजसोपप्लुत-कैवल्योपशिक्षणार्थः'
(भा. पु. ५, ६, १२)
अर्थात् भगवान् का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को कैवल्य की शिक्षा देने के लिए हुआ। किन्तु उक्त वाक्य का यह अर्थ भी संभव है कि यह अवतार रज से उपप्लुत अर्थात् रजोधारण (मल धारण) वृत्ति द्वारा कैवल्य प्राप्ति की शिक्षा देने के लिए हुआ था'। जैन मुनियों के आचार में अस्नान, अदन्तधावन, मल परीषह आदि द्वारा रजोधारण संयम का आवश्यक अंग माना गया है। बुद्ध के समय में भी रजोजल्लिक श्रमण विद्यमान थे। बुद्ध भगवान् ने श्रमणों की आचार-प्रणाली में व्यवस्था लाते हुए एक बार कहा था-
"नाहं भिक्खवे संघाटिकस्य संघाटिधारणमत्तेन सामञ्ञं वदामि, अचेलकस्स अचेलकमत्तेन रजोजल्लिकस्य रजोजल्लिकमत्तेन....जटिलकस्स जटाधारणमत्तेन सामञ्ञं वदामि।"
(मज्झिमनिकाय ४०)
अर्थात्-हे भिक्षुओ, मैं संघाटिक के संघाटी धारणमात्र से श्रामण्य नहीं कहता, अचेलक के अचेलकत्वमात्र से, रजोजल्लिक के रजोजल्लिकत्व मात्र से और जटिलक के जटाधारण-मात्र से भी श्रामण्य नहीं कहता।
अब प्रश्न यह होता है कि जिन वातरशना मुनियों के धर्मों की स्थापना करने तथा रजोजल्लिक वृत्ति द्वारा कैवल्य की प्राप्ति सिखलाने के लिये भगवान् ऋषभदेव का अवतार हुआ था, वे कब से भारतीय साहित्य में उल्लिखित पाये जाते हैं। इसके लिये जब हम भारत के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों को देखते हैं, तो हमें वहाँ भी वातरशना मुनियों का उल्लेख अनेक स्थलों में दिखाई देता है।
क्रमश .....4
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान

3 comments:

  1. Udan Tashtari 08 जनवरी, 2010

    आभार जानकारीपरक आलेख के लिए.

  2. अविनाश वाचस्पति 08 जनवरी, 2010

    अच्‍छी और सच्‍ची जानकारी दी जा रही है।

  3. ताऊ रामपुरिया 08 जनवरी, 2010

    बहुत लाजवाब पोस्ट.

    रामराम.

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