जैन:प्राचीन इतिहास-12

Posted: 26 जनवरी 2010
गतांक आगे ...........
श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गणभेद -

जैन संघ संबंधी श्वेताम्बर परंपरा का प्राचीनतम उल्लेख कल्पसूत्र अन्तर्गत स्थविरावली में पाया जाता है। इसके अनुसार श्रमण भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे।


इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारहों गणधरों द्वारा पढ़ाए गए श्रमणों की संख्या का भी उल्लेख है। ये ग्यारहों गणधर १२ अंग और १४ पूर्व, इस समस्त गणिपिटक के धारक थे, जिसके अनुसार उनके कुल श्रमण शिष्यों की संख्या ४२०० पाई जाती है। इन ग्यारहों गणधरों में से नौ का निर्वाण महावीर के जीवन काल में ही हो गया था। केवल दो अर्थात् इन्द्रभूति गौतम और आर्य सुधर्म ही महावीर के पश्चात् जीवित रहे। यह भी कहा गया है कि `आज जो भी श्रमण निर्ग्रन्थ बिहार करते हुए पाए जाते हैं, वे सब आर्य सुधर्म मुनि के ही अपत्य हैं। शेष गणधरों की कोई सन्तान नहीं चली। 


आगे स्थविरावली में आर्य सुधर्म से लगाकर आर्य शाण्डिल्य तक तेतीस आचार्यों की गुरु-शिष्य परम्परा दी गई है। छठे आचार्य आर्य यशोभद्र के दो शिष्य संभूतिविजय और भद्रबाहु द्वारा दो भिन्न-भिन्न शिष्य-परंपराएं चल पड़ीं। 


आर्य संभूतविजय की शाखा में नौवें स्थविर आर्य वज्रसेन के चार शिष्यों द्वारा चार भिन्न-भिन्न शाखाएं स्थापित हुई, जिनके नाम उनके स्थापकों के नामानुसार नाइल, पोमिल, जयन्त और तावस पड़े। 


उसी प्रकार आर्य भद्रबाहु के चार शिष्यों द्वारा ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षिका, पौन्ड्रवर्द्धनिका और दासीखबडिका, ये चार शाखाएं स्थापित हुई।


 उसी प्रकार सातवें स्थविर आर्य स्थूलभद्र के रोहगुप्त नामक शिष्य द्वारा तेरासिय शाखा एवं उत्तर बलिस्सह द्वारा उत्तर बलिस्सह नामक गण निकले, जिसकी पुनः कौशाम्बिक, सौवर्तिका, कोडंबाणी और चंद्रनागरी, ये चार शाखाएं फूटीं। 


स्थूलभद्र के दूसरे शिष्य आर्य सुहस्ति के शिष्य रोहण द्वारा उद्देह गण की स्थापना हुई, जिससे पुनः उदुंबरिज्जिका आदि चार-उपशाखाएं और नागभूत आदि छह कुल निकले। 


आर्य सुहस्ति के श्रीगुप्त नामक शिष्य द्वारा चारण गण और उसकी हार्यमालाकारी आदि चार शाखाएं एवं बर्थलीय आदि सात कुल उत्पन्न हुए। 


आर्य सुहस्ति के यशोभद्र नामक शिष्य द्वारा उडुवाडिय गण की स्थापना हुई, जिसकी पुनः चंपिज्जिया आदि चार शाखाएं और भद्रयशीय आदि तीन कुल उत्पन्न हुए। 


उसी प्रकार आर्य सुहस्ति के कामर्द्धि नामक शिष्य द्वारा वेसवाडिया गण उत्पन्न हुआ, जिसकी श्रावस्तिका आदि चार शाखाएं और गणिक आदि चार कुल स्थापित हुए। 


उन्हीं के अन्य शिष्य ऋषिगुप्त द्वारा माणव गण स्थापित हुआ, जिसकी कासवार्यिका गौतमार्यिका, वासिष्ठिका और सौराष्ट्रिका, ये चार शाखाएं तथा ऋषिगुप्ति आदि चार कुल स्थापित हुए। 


शाखाओं के नामों पर ध्यान देने से अनुमान होता है कि कहीं-कहीं स्थान भेद के अतिरिक्त गोत्र-भेदानुसार भी शाखाओं के भेद प्रभेद हुए। स्थविर सुस्थित द्वारा कोटिकगण की स्थापना हुई, जिससे उच्चानागरी, विद्याधरों, वज्री एवं माध्यमिका ये चार शाखाएं तथा बम्हलीय, वत्थालीय वाणिज्य और पण्हवाहणक, ये चार कुल उत्पन्न हुए। इस प्रकार आर्य सुहस्ति के शिष्यों द्वारा बहुत अधिक शाखाओं और कुलों के भेद प्रभेद उत्पन्न हुए।


आर्य सुस्थित के अर्हद्दत्त द्वारा मध्यमा शाखा स्थापित हुई और विद्याधर गोपाल द्वारा विद्याधरी शाखा। 


आर्यदत्त के शिष्य शांति सेन ने एक अन्य उच्चानागरी शाखा की स्थापना की। आर्य शांतिसेन के श्रेणिक तापस, कुवेर और ऋषिपालिका ये चार शिष्य हुए, जिनके द्वारा क्रमशः आर्यसेनिका, तापसी कुवेर और ऋषिपालिका ये चार शाखाएं निकली। 


आर्य-सिंहगिरि के शिष्य आर्यशमित द्वारा ब्रह्मदीपिका तथा आर्य वज्र द्वारा आर्य वज्री शाखा स्थापित हुई। 


आर्य-वज्र के शिष्य वज्रसेन, पद्म और रथ द्वारा क्रमशः आर्य-नाइली पद्मा और जयन्ती नामक शाखाएं निकलीं।


इन विविध शाखाओं व कुलों की स्थान व गोत्र आदि भेदों के अतिरिक्त अपनी अपनी क्या विशेषता थी, इसका पूर्णतः पता लगाना संभव नहीं है। इनमें ये किसी किसी शाखा व कुल के नाम मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त मूर्तियों आदि परके लेखों में पाए गये हैं, जिनसे उनकी ऐतिहासिकता सिद्ध होती है।
क्रमश ....13.
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान

2 comments:

  1. ताऊ रामपुरिया 26 जनवरी, 2010

    बहुत सुंदर जानकारी.

    रामराम.

  2. Gyan Dutt Pandey 27 जनवरी, 2010

    सुन्दर! यह तो ऋग्वैदिक ऋषियों और उनके कुल गोत्र के बारे में पढ़ने सा है।
    धन्यवाद।

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