"तुम्हारी कविता मे सिर और पैर दोनो मिले, पर प्राण नही मिला,
एक लेखक ने कविता लिखी और सम्पादक के पास प्रकाश्नार्थ भेज दी। उसमे लिखा -"सम्पादक महोदय! आपके पत्र मे आजकल बहुत सारी कविताए छपती है। मै पढता हू और मेरी धारणा बनी है कि उन कविताओ मे सिर-पैर नही होते है। मै जो कविता भेज रहा हू उसमे सिर भी है, पैर भी है। आप पढकर स्वय जान लेगे।" कुछ दिनो बाद सम्पादक ने कविता को लोटाते हुए लिखा-"तुम्हारी कविता मे सिर और पैर दोनो मिले, पर प्राण नही मिला, इसलिए लोटा रहा हू।"
कोरा सिर और पैर काम नही देता, जब प्राण नही होता। हमारी सारी शक्ति का, हमारे स्वास्थ्य का आधार प्राणशक्ति होती है। प्राण नही होता तो सिर पडा रहे, पैर पडे रहे, सारे शरीर का ढाचा पडा रहे तो कुछ नही होता है। प्राण चला गया तो सब कुछ चला गया। प्राण है तो सब कुछ है। हमारी स्वास्थ्य की धारणा बदलनी चाहिए। शरीर का स्थूल होना, या कोई स्वास्थ्य की अवधारणा नही है। स्वास्थ्य का अर्थ होता है प्राण शक्ती की प्रचुरता। जिस व्यक्ति मे प्राणशक्ति की प्रचुरता होती है वह स्वस्थ्य होता है और जिसकी प्राणशक्ति दुर्बल बन जाती है, वह अस्वस्थ्य बन जाता है।
आचार्य महाप्रज्ञ युवादृष्टि
बहुत अच्छे वृतांत के साथ समझाया है. आभार.
बहुत प्रेरणात्मक आलेख.
रामराम.
haan aur un aprakashit karityoon se(sir aur per par bina pran wali) ek blog ban gaya hoga....
mil jaiye to mujhr batein?
बेहद प्रेरक प्रसंग आभार
regards
आपकी पोस्टों में सिर-पैर तो होते ही हैं, प्राण का स्पन्दन प्रचुर नजर आता है जी! ऐसी ही पोस्टें लिखते रहें।
आप ने तो एक सुंदर सा चिंतन ही लिख दिया, बहुत सुंदर लेख.
धन्यवाद
प्राण नहीं तो किस काम का. सही सीख.
इस पोस्ट में बहुत प्राण है :)
प्राण यानि भाव जब किसी रचना में भाव हो तो वह प्रभावशाली नही लगती, शरीर भी एक रचना है उत्कृष्ट वर्णन.........
यहाँ तो लोग बिना प्राण की ही कविताये लिखते है इसलिये तो वे जीवित नही दिखाई देती , कवि को उसमे अपने प्राण डालना पड़ता है तब होती है कविता ।
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