'साध-साध रो गिलो रे, ते आप-आप रो मत! सुणजो रे शहर रा लोका, ए तेरापन्थी तन्त॥'

Posted: 02 जुलाई 2009
तेरापन्थ के आध-पुरुष स्वामी भिखणजी एक सत्य- सधायक एवम सिद्धान्तनिषठ आचार्य थे। स्वामीजी एक उत्सकृष्ठ सन्त थे। उनकी उत्सकृष्ठता का मूल कारण था आचार और विचार विषयक विशुद्धि की पुर्ण जागरुकता. आचार्य भिक्षु के बारे मे बहुत ग्रन्थ लिखे गये । पर अनलिखा बहुत अधिक है। आचार्य भिक्षु के जीवन और दर्शन पर अनेक दृष्टियो से शोध कार्य किया जा सकता है। उनके साहित्य पर विशेष अनुसधान किया जा सकता है। पी.एच.डी. और डी.लिट्ट करने वालो के लिए यह एक आगाध समुन्द्र है। इसमे से जितने रत्न बटोरे जाऎ कम है। मै कई दिनो से भि़क्षु  दर्शन को पढ रहा हू। मैने पाया तेरापन्थ के आघ पुरुष स्वामी भिखणजी का दर्शन इतना व्यवस्थित, सुसगन्त,और वैग्यानिक है। जिसने उनको महान दार्शनिको की पक्ति मे ला खडा कर दिया है. 
अपेक्षा इस बात की है कि उनको आधुनिक परिप्रेक्ष्य मे नये सन्दर्भो के साथ प्रस्तुती दी जाए।  


स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रघुनाथजी के शिष्य सन्त भिखणजी (आचार्य भुक्षु) ने विक्रम सवत 1817 मे तेरापन्थ का प्रवतन किया। आचार्य भुक्षु ने आचार्-शुद्धि और सगठन पर बल दिया। एकसूत्रता के लिए अनेक मर्यादाओ का निर्माण किया, शिष्यप्रथा (चेले बनाना) को समाप्त कर दी। कम समय मे तेरापन्थ धर्म मे एक आचार्य, एक आचार, एक विचार के लिऐ प्रसिद्ध हो गया।कुछ तथ्य वर्तमान समाज के पथ-दर्शक बन गए है।

इसके पुर्व मे मैने आचार्य भिक्षु  के जन्म परिवार के बारे मे  बताया था। पढने के लिए यहा किल्क करे


गवान महावीर ने कहा- 'सच्चम भयवम'-सत्य भगवान है। स्वामीजी (आचार्य भुक्षु) ने उक्त कथन को अपने जीवन मे साकार रुप प्रदान किया। उन्होने सत्य को भगवान माना और एक भक्त के समान उसके प्रति समर्पित होकर रहे। सत्य की अपराजेयता ही स्वामीजी की अपराजेयता बन गई। लोगो ने स्वामीजी के विरुद्ध आक्रोश, आक्षेप, एवम परिषहो के पहाड खडे कर दिये। शारीरिक उत्पीडन तो किया ही गया, मार डालने तक की धमकिया दी गई। इतना सब कुछ करके भी वे उन्हे सत्य मार्ग से क्षण के लिए भी विचलित नही कर पाये।

मुझे गुप्ताजी की दो पक्तिया याद आ रही है जो आचार्य भुक्षु को भी हुबोहु रुपायित करती है।

राम तुम्हारा नाम स्वय काव्य है।

कोई कवि बन जाए सहज सम्भाव्य है॥

क्रान्ति का नामकरणः-

बात यो हुई कि जोधपुर राज्य के दीवान फतहमलजी सिघी घूमते हुए बाजार मे आए तो उन्होने देखा कि कई श्रावक दुकान मे सामायिक-पोषध किये बैठे है। आश्चर्य के साथ पुछ बैठे- 'आज स्थानक को छोड बाजार मे धर्मौपासना कैसे ?  श्रावक बोले- 'हमारे गुरु सन्त भिखणजी ने आचार्य रघुनाथजी से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया है और वे एक क्रान्ति के मार्ग पर चल पडे है।' दीवानजी और उत्सुकता से बोले - अरे! क्यो ?'
 श्रावक बोले-'लम्बी बात है, कभी समय होगा तब.......................॥'
दीवानजी कहे "थिरता" अब ही मुझे समय है, तुम अभी बताओ।'
जैसे नियति से प्रेरित हो दीवानजी बोले। वरना तेरापन्थ नाम कैसे निकलता ?
कैसे उसे अर्थ मिलता ? कैसे भविष्य आशावान बनता ? कारण यह कि "सन्त" ने तो मात्र यही सोचकर अभिनिष्क्रम किया था कि साधना करुगा या समाधि व‍रुगा। उन्ही के शब्दो मे -
"म्है उणा ने छोडी निसरया जद..... या न जाणता, म्हारोमारग जमसी, म्हामे यू दीक्षा लेसी ने श्रावक-श्राविका हुसी,जाण्यो आत्मारा कारज सारस्यॉ,मर पुरा देस्या.................।"

दीवानजी की जिज्ञासा पर श्रावको ने उन्हे सविस्तार बताया -
"महाव्रती जैन साधु के लिऐ अपने निमित बनाया गया भोजन,मकान,आदि ग्रहण करना आधाकर्मी दोष है। कारण कि पृथ्वी,पानी, अग्नि, वनस्पति, आदि मे सूक्ष्म हिन्सा भी करने, कराने व अनुमोदन का त्याग होता है। आज साधुओ की प्रेरणा से उनके अपने अपने स्थानक ( धर्मशालाए- आश्रम) बनते है। वे साधु नित्यपिण्ड,आधाकर्मी, आदि दोषयुक्त आहार-पानी लेते है। साधु की अपनी हर वस्तु नित्य प्रतिलेखनीय है, उसके बावजूद वे पुस्तक-पन्ने आदि महिनो एक जगह रखकर चले जाते है। चेलो के लालस मे माता-पिता की बिना आज्ञा हर किसी को दीक्षा दे दी जाती है।यह प्रकट रुप मे तीसरे महाव्रत का भग है। ( साधु पॉच महाव्रत धारी होते )

इस प्रकार के अनेक आचार-दोषो के अलावा लोकोपकार के अनेक हिन्सा-परिग्रह से जुडे कार्यो मे कही धर्म, कही मिश्र तो कही पुण्य की उनकी स्थापनाओ ने भगवान महावीर के मार्ग को ही उलट दिया है। इन्ह सभी कारणो से सन्त भिखणजी ने अपने सहवृति विचारो वाले साधुओ के साथ सम्पुर्ण क्रान्ति का मार्ग ग्रहण किया है।"

उल्लासित मन से दीवानजी ने जोधपुर के श्रावको से फिर पुछ बैठे-" तुम कितने श्रावको ने इस धर्म को स्वीकार किया है ?" श्रावको ने अपनी सख्या 'तेरह' बतालाई, तब उन्होने अगला प्रशन और किया-"साधु कितने है ?" परमार्थी सन्त भिखणजी आदि भी 'तेरह' ही है।' श्रावक बोले।

पवित्र भाव धारा मे बहते दीवान सिधीजी के मुह से फिर बोल फुट पडे-वाह! यह भी अच्छा योग मिला- तेरा-तेरा (तेरह-तेरह)।'
दीवानजी के मुह से इतना सब कुछ सुन पास खडे सेवक कवि ने तुक्का ही जोड दिया-

'साध-साध रो गिलो रे, ते आप-आप रो मत!
सुणजो रे शहर रा लोका, ए तेरापन्थी तन्त॥'

सन्त के सत्य मार्ग का एक अनचीता नामकरण हो गया।

दीवान जी समय को सार्थक कर गये किन्तु विरोधी लोगो को एक मजाक मिल गया-' "अरे! तेरा! तेरिया! बाईस मे से नो गए तो......।" सन्त भिखणजी उस समय मारवाड के काठा (सीमान्त) प्रदेश मे विहार कर रहे थे। उनके पास जब यह शब्द पहुचा तो महावीर को परम वन्दना के साथ उसे अलोकिक ही अर्थ मिल गया -
" हे प्रभो! यह तेरा पथ।" भाव विभोर सन्त भिखणजी बोले-" प्रभो! मै तो आपके  ही पथिक हू। आपके वचन ही मेरी जीवन थाती है। आपके चरणो मे ही मेरा सर्वस्व समर्पित है।

सन्त भिखणजी ने जो धर्म क्रान्ति का जो बीज बोया था वो वृक्ष आज तेरापन्थ के दशम आचार्य   श्री महाप्रज्ञजी जे  नेतृत्व मे इतना गहरा फैल गया है कि तेरह साधु के १००० साधु-साध्वीया, एवम तेरह श्रवको से करोडो श्रावक परे विश्व भर मे महावीर, भिक्षु, गान्धी दर्शन को फैला रहे है।


हे प्रभु यह तेरापथ हिन्दि ब्लोग का उदभव भी महान विचारक दार्शनिक, महामना आचार्य भिखजी, (भिक्षु/स्वामीजी/सन्त ) के विचारो से दुनिया मे

पहुचाने का छोटा सा प्रयास है।



नोट:- आगे हम पढेगे      
ॐ भिक्षु जय भिक्षु के नाम मे कोन सी शक्ति है कि बिमार व्यक्ति ठीक हो जाता है। अन्धे को रोशनी मिल जाती है। कई आस्था के चमत्कार  एवम आचार्य भिक्षु कि तार्किक शक्ति से भी अवगत कराऐगे। आप पढना नही भुले शायद कोई वाक्य शब्द आपके हमारा जीवन परम वैभव कि अनुभूती करे।


ॐ भिक्षु जय भिक्षु  समाधी स्थल सिरियारि पाली (राजस्थान) मन्त्र का विडियो  देखे।

9 comments:

  1. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 02 जुलाई, 2009

    सार्थक प्रयास है आपका।
    अमृत वर्षा करते रहें।

  2. संजय बेंगाणी 02 जुलाई, 2009

    यहाँ तेरापंथ का इतिहास "डिजिटलाइज" हो रहा है.

  3. ताऊ रामपुरिया 02 जुलाई, 2009

    बहुत सुंदर प्रयास है आपका. शुभकामनाएं.

    रामराम.

  4. राज भाटिय़ा 03 जुलाई, 2009

    ग्याण ओर शिक्षा से भरी एक सुंदर लेख.
    धन्यवाद

  5. लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` 03 जुलाई, 2009

    तेरापन्थ की जानकारी
    जैसी आपको विदित है
    स- विस्तार बतायेँ -
    फिर वह,
    सदा के लिये
    इन्टरनेट पे दमकती रहेगी
    - लावण्या

  6. Gyan Dutt Pandey 03 जुलाई, 2009

    यह पन्थ हम जैसे नॉन इनीशियेटॆड को मनन करने और कुछ नया प्रतिपादित करने के अवसर देता है क्या?

  7. हें प्रभु यह तेरापंथ 04 जुलाई, 2009

    @ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey ने कहा…
    यह पन्थ हम जैसे नॉन इनीशियेटॆड को मनन करने और कुछ नया प्रतिपादित करने के अवसर देता है क्या?

    03 July, 2009

    जी सर! तेरापन्थ जैन धर्म सघ मे ऐसी व्यवस्था है। जन्म से जैन दुसरा कर्म से जैन ।कर्मणा जैन के पुरे ससार मे असख्य परिवार है। जैसे पन्जाब मे चले जाऐ सैकडो परिवार जैन तेरापन्थी है। हरियाणा, बिहार, छ्तीसगढ, गुजरात, महाराश्ट्रा, सहित कई प्रान्त कई जातिया यहॉ तक कमरुद्दिनजी जैन (मुश्लिम) ने जैन विचारो पर जीवन जीने का सफल प्रयोग हुआ है।
    बहुत जल्दि ही इस पर विस्तृत जानकारी पेश करुगा। अगर आप इच्छुक हो तो हम साथ मे आचार्य महाप्रज्ञजी के लाडनु बिकानेर मे दर्शन कर सकते है।
    आभार

  8. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 04 जुलाई, 2009

    प्रस्तुतिकरण और विषयवस्तु का चयन उत्तम है।
    बधाई!

  9. प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' 05 जुलाई, 2009

    बहुत सुंदर प्रयास..आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....

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