धर्म का मूल स्वरुप। धर्म अधर्म क्या है?
तत्व यह है आचार्य भिक्षु ने धर्म का वह स्वरुप बतलाया जो मोलिक (original) है. धर्म की दुनिया की परिभाषा उससे भिन्न है। स्वामी जी ने बहुत सीधे शब्दो मे कहा-
"व्रत (त्याग) धर्म है। अव्रत (भोग) अधर्म है। अहिन्सा धर्म है हिन्सा अधर्म है। हर्दय परिवर्तन धर्म है। दण्ड प्रयोग अधर्म है। वीतराग की आज्ञा मे धर्म है, अनआज्ञा अधर्म है। अपरिग्रह धर्म है, परिग्रह अधर्म है। असयति (ससारी) जीवो को जीने की इच्छा रखना राग है, उनके मरने की इच्छा द्धेष और उनके ससार समुन्द्र से तैरने की कामना करना वीतराग देव का धर्म है।"
सार स़क्षेप कहे तो बस यही जैन तेरापन्थ है।
वैदिक दर्शन की आधार-भूमि समाज रही है। यहा धर्म के मायने कर्तव्य है, पाप के माने अकर्तव्य है।
जैन दर्शन की पृष्टभूमि है आत्मा। यहा पाप का मायने है बन्धन। धर्म के माने है मुक्ति, आत्मा-विशुद्धि का मार्ग है।
आचार्य भिक्षु स्वामी का समग्र दर्शन विशुद्ध महावीर का दर्शन है।
तत्व यह है कि धर्म - ब्रहृमचर्य - परस्त्री मात-बहिन है, परपुरुष पिता-भाई है-यह पवित्रसकल्प ही शील है, सतीत्व है, धर्म है, लोक-जीव का आदर्श होकर भी पति-पत्नी का स्नेह समर्पण ही अगर मुक्ति-पथ है तो महावीर-बुद्ध से लेकर लाखो-लाखो ऋषिमुनियो ने उसे क्यो त्यागा।
तर्क का माध्यम
भ्रमित किशानो ने आकर आचार्य भिखु से पुछा-‘ महाराज! हम खेती करते है, वह धर्म है या पाप ?
आचार्य ने उनके मानस को पढते हुए प्रसग बदलकर पूछा-‘चोधरियो! कभी हल बन्द भी रखते हो ?‘
किसान बोले-‘महारज! एकादशी, अमावस को बन्द रखते है।"
क्यो ?- आचार्य भिखु ने अगला प्रशन किया।"
इसलिए कि सदा धरती का पेट फ़ाडते है तो दो दिन विश्राम भी दे- किसानो का उत्तर था।
अब तुम ही सोच लो कि धर्म है तो बन्द क्यो रखते हो ?"
सन्त भिखणजी शादी करना, खेती करना, भिख देना, कुऎ खुदवाना,बान्ध बधवाना, या व्यवसाय इत्यादी मे धर्म नही माना।
यह सभी तो जन-जीवन की प्राथमिक अपे़क्षा है. पारस्परिक सेवा सहयोग सामाजिक जीवन की दाल रोटी है।
तात्पर्य कि इस प्रकार की प्रव्रतिया जीवन की आवश्यकताए है। किन्तु हिन्सा, परिग्रह, ममता, एवम भोग आत्मा के लिए तो बन्धन ही है।
स्वामीजी ने कभी नही कहा कि मत दो, मत करो। लोक-जीवन मे जीते किसी को कर्तव्य से विमुख करना तो बडा पाप है। दुध तो निकाल लो पर हरी घास मत डालो। पानी तो भर लो पर कुऒ मत खुदओ। सेना का सहयोग तो लो पर युद्ध मे सहयोग मत करो- ऐसा कहना या करना तो क्रूरता, कृतध्नता, स्वार्थ एवम देश द्रोह को पोषण देता है। तेरापन्थ का तो यह मन्तव्य है कि सत्य को सत्य समझो।
बन्धन को बन्धन एवम मुक्ति को मुक्ति समझो।
तेरे घर गाय है ?"घटना-प्रसग
काफ़रला गाव कि घटना-प्रसग है। साधु भिक्षा के लिए गए। एक जाट के घर आटे का घोवन था।
साधुओ ने उसकी याचना की।
जाट्नी ने इन्कार कर दिया।
उसका तर्क था-‘जो व्यक्ति जैसा देता है, वह वैसा ही आगे पाता है। "मै यदि यह आटे का घोवन दू तो मुझे भी आगे धोवन ही मिलेगा.
चूकि मै धोवन पी नही सकती।"
सन्तो ने उसे काफ़ी समझाने का प्रयास किया पर वह नही समझी।
अन्तत: सन्त खाली जोलि लोट आए। और सारी बात स्वामीजी (आचार्य भिक्षु) को कह सुनाई।
स्वामीजी सन्तो के साथ उसी जाटनी के धर पहुचे।
आटे का धोवन की याचन करने पर उसने (जाट्नी) अपना पुर्व तर्क देते हुए पानी बहराने से मना कर दिया।
स्वामीजी ने जाटनी से पुछा-‘तेरे घर गाय है ?"
हॉ, है.‘ - बहिन ने स्वीकृतिसूचक सिर हिलाते हुए कहा।"
तू उसे क्या खिलाती है?
घास चारा आदि।
वह क्या देती है ?‘
दूध।"
तब स्वामीजी ने उसके तर्क पर सवालिया चिन्ह लगाते हुए कहा-" अब तू ही बता, जैसा दिया जाता है वैसा कहा मिलता है ?
देख, जिस गाय को चारा,घास देने से दूध की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार सन्तो को आटे का घोवन आदि कुछ भी देना महान लाभ का हेतु है।‘
जाटनी की मोटी बुद्धि ने इस बात को जल्द से ग्रहण कर लिया। वह समाहित हो गई। उसने तत्काल घोवन का बर्तन हाथो से उठाया और स्वामीजी से लेने का निवेदन किया, स्वामीजी ने पात्र मे जल ग्रहण किय़ा और अपने स्थान पर आ गए.
इन्ह तार्कीक बातो से तेरापन्थ के आधप्रवर्तक आचार्य भिक्षु स्वामी मे समझाने की कला थी ऐसा आभास होता है।
बहुत प्रेरक..
सुन्दर
बहुत सुंदर ढंग से आप ने समझाया.
धन्यवाद
वाह.. बहुत ही प्रेरणास्पद पोस्ट.. गाय वाली तो बहुत ही उम्दा..
बहुत शानदार और शिक्षादायक पोस्ट.
रामराम.
lajawab post
आचार्य श्री यूँ ही सरल शब्दोँ मेँ गहरी ज्ञान की बातेँ सीखला गये
- लावण्या
आपने तो सोचने का बहुत मसाला दे दिया। धन्यवाद।