आत्मा एक ज्योतिपुज है - आचार्य महाप्रज्ञ
आत्मा एक ज्योतिपुज है। एक बहन ने पुछा-"यदि वह ज्योतिपुज है तो उसका वर्ण कैसा है ?
आत्मा एक ज्योतिपुज है। एक भाई ने पुछा -" यदि वह ज्योतिपुज है तो जलते हुऐ दीपक कि भॉति दिखाई देना चाहिऐ। किन्तु न उसका वर्ण है न वह दीपक की भॉति जलते हूऐ दिखाई देती है।
एक आदमी कमरे मे गया । अन्दर बिजली जल रही थी। कुछा ही क्षण के पश्चात बिजली चली गई। अन्धेरा छा गया। कुछ भी सूझ नही रहा था। कोई भी वस्तू दिखाई नही दे रही थी।
बाहर खडे एक व्यक्ति ने पुछा-"भीतर कोन है ?" उसने कहा -"मै हू।"
"मै हू" यह कैसे देखा ? भीतर अन्धेरा है। कुछ भी दिखाई नही दे रहा है, फिर यह कैसे जाना -"मै हू"। यदि आत्मा ज्योतिपुन्ज नही है, दीपक की भॉति ज्योर्तिरमय नही है तो कैसे दिखा कि " मै हू" । कितना ही सघन अन्धकार हो, व्यक्ती चाहे भूगृह मे खडा हो, किन्तु " मै हू" यह दीप कभी नही बुजता। यह सदा जलता रहता है।
"मै हू" - इतना सा प्रकाश पर्याप्त है यह समझने के लिऐ कि भीतर कोई ज्योतिपुन्ज है।
यदि हमारी यात्रा ज्योतिपुन्ज की दिशा मे चले, हमारी उर्जा उसी और प्रवाहीत हो तो एक दिन उस ज्योतिपुन्ज का साक्षात्कार अवश्य होगा। उसमे वर्ण हो या ना हो, ज्वलन-शीलता हो ना हो , वह साक्षात होगा।
आप धर्म कि धारणाओ को दो भागो मे बॉट दीजिए- आचार्य महाप्रज्ञ
वह साक्षात नही है, फिर भी उसके प्रति हम सशयशील नही है। उसकि कुछ रश्मिया हमे धर्म के रुप मे दिख रही है। पुरा जोतिपुन्ज ऑखो के सामने नही है, किन्तु उसकि कुछ रश्मियो से हम अवगत है। आप धर्म कि धारणाओ को दो भागो मे बॉट दीजिए,
दो दृष्टिकोण से देखिए। एक धर्म की धारणा वह है, जो नियमबद्ध, व्यवस्थाबद्ध है और सगठनबद्ध चलती है। उसका निर्माण मनुष्य ने किया। वह कभी शाश्वत नही हो सकती। हम धार्मिको ने यह मान लिया कि जो नियम एक बार बन गया, वह लोहे की लकीर बन गया। यह कभी सत्य नही हो सकता।नियम बनाने वाला एक व्यक्ति है, फिर चाहे भगवान महावीर् हो, आचार्य भिक्षु,या फिर कोई भी आचार्य, हो , कोई भी हो, बनाने वाले आदमी है, व्यक्ति है और व्यक्ति जो बनाता है, वह कभी त्रिकालिक नही हो सकता, शाश्वत नही हो सकता, वह हमेशा परिवर्तनशील होगा।
किन्तु एक बात और है। वह है अकृत की, जिसे मनुष्य ने नही बनाया है, जिसका निर्माण मनुष्य ने नही किया। सही अर्थ मे धर्म कि धारणा वही से उत्पन्न होती है। जिस धर्म को मोक्ष से सम्बध्द मानते है। उसकी धारणा शाश्वत मे होती है।
जिस धर्म को समाज से सम्बध्द मानते है। उसमे बहुत कुछ बदलाव होगा। मनुष्य जीवन मे बदलाव होगा
जहॉ परिवर्तन नही होता, वहॉ दुनिया के सन्दर्भ का इतिहास भी नही होता है। धर्म का सगठन होता है व्यवस्था का सचालन करने के लिऐ किन्तु घर्म कि धारणा उसी मे जमा हो जाती है, उसी मे निहित हो जाती है और कठीनाइयॉ पैदा हो जाती है। मै इस बात का समर्थन भी करना चाहता हू कि जो धर्म की धारणा समाज के स्तर पर चल रही है, वह सचमुच आज के युग को भटकाने वाली है। सामाजिक विकास का प्रशन, वहॉ धर्म, आत्मा, परमात्मा की बात मुख्य हो जाएगी तो समाज का विकास अवरुद्ध हो जाऐगा। किन्तु यह एक दृष्टिकोण है। जहॉ इस दुनिया मे वस्तु के अनत धर्मो पर विचार करने वाले अनत दृष्टिकोण का सगम है, वहॉ एक को मानकर चलेगे तो भी उलझन आ जाएगी, कठिनाई आएगी।
क्या हम अनत धर्मो का प्रतिपादन कर सकते है ? कभी नही कर सकते। हम जो कुछ भी करते है, एक भूमिका से, एक दृष्टि से करते है। एक दृष्टिकोण ही माने, उसे सर्वाग न माने। हमारे जीवन मे अगर कोई सुलझाव लाएगी तो यही बात ला सकती है।
आज के समग्र धार्मिक दृष्टिकोण को इस छोटी-सी घटना से समझ सकते है। आज आत्मा, परमात्मा और धर्म के अस्वीकार की बात क्यो आ रही है ? आज के धार्मिक पर इतना अन्धेरा छा गया कि कोरे दीए के प्रकाश से उस अन्धेरे को नही मिटाया जा सकता,उसके लिए ऑख का प्रकाश चाहिए। लालटेन - आग -दीए -बिजली - सुरज - चॉन्द - का प्रकाश है, पर यदि ऑख का प्रकाश नही है तो सारे प्रकाश अन्धकार मे बदल जाते है। जब तक भीतर की चेतना नही जागती , ध्यान की चेतना नही जागती, ध्यान का प्रकाश प्रस्फुटित नही होता, तो बाहर के प्रकाश, सिध्दान्तो के प्रकाश- ये सारे प्रकाश अन्धकार मे बदल जाते है। चाहे फिर वह महावीर के सिध्दान्त हो, चाहे बुध्द के सिध्दान्त का प्रकाश् हो, चाहे कृष्ण या दुनिया के किसी भी महापुरुष या अवतार का सिध्दान्त का प्रकाश हो। कितना भी बडा सिध्दान्त हो, सुरज हो चॉन्द हो,ऑख के बिना सारी बाते व्यर्थ हो जाती है।
सभार - तेरापन्थ टाइम्स मार्च ०९
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बहुत बढ़िया पठनीय आलेख . आभार
लालटेन - आग -दीए -बिजली - सुरज - चॉन्द - का प्रकाश है, पर यदि ऑख का प्रकाश नही है तो सारे प्रकाश अन्धकार मे बदल जाते है। जब तक भीतर की चेतना नही जागती , ध्यान की चेतना नही जागती, ध्यान का प्रकाश प्रस्फुटित नही होता, तो बाहर के प्रकाश, सिध्दान्तो के प्रकाश- ये सारे प्रकाश अन्धकार मे बदल जाते है।
बहुत ही आत्म ज्ञान की और प्रेरित करता हुआ आलेख.
रामराम.
हमने जी मेल से भेजा है परन्तु एक फाईल नहीं जा रही है .
बिल्कुल सही जी - अजो नित्यः शाश्वतोयम पुराणों; न हन्यते हन्यमाने शरीरे। आत्मा के ज्योतिर्पुंज की फिजिकल प्रॉपर्टीज देखना व्यर्थ है। वह तो न हन्यते है।
बहुत सुँदर सँदेस है आचार्य श्री का -
प्रस्तुति के लिये आभार आपका
- लावण्या