गातांक से आगे....
जैनधर्म मूलतः आध्यात्मिक है, और उसका आदितः सम्बन्ध कोशल, काशी, विदेह आदि पूर्वीय प्रदेशों के क्षत्रियवंशी राजाओं से पाया जाता है। इसी पूर्वी प्रदेश में जैनियों के अधिकांश तीर्थंकरों ने जन्म लिया, तपस्या की, ज्ञान प्राप्त किया और अपने उपदेशों द्वारा वह ज्ञानगंगा बहाई जो आजतक जैनधर्म के रूप में सुप्रवाहित है। ये सभी तीर्थंकर क्षत्रिय राजवंशी थे। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि जनक के ही एक पूर्वज नमि राजा जैनधर्म के २१ वें तीर्थंकर हुए हैं। अतएव कोई आश्चर्य की बात नहीं जो जनक-कुल में उस आध्यात्मिक चिंतन की धारा पाई जाय जो जैनधर्म का मूलभूत अंग है। उपनिषत्कार पुकार पुकार कर कहते हैं कि :-एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।दृश्यते त्वग्रया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिमिः ।।(कठो. १,३,१२)+ + + + +हन्त तेऽदम् प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम्।यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम ।।योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतं ।।(कठो. २, २, ६-७)अर्थात् प्राणिमात्र में एक अनादि अनन्त सजीव तत्व है जो भौतिक न होने के कारण दिखाई नहीं देता। वही आत्मा है। मरने के पश्चात् यह आत्मा अपने कर्म व ज्ञान की अवस्थानुसार वृक्षों से लेकर संसार की नाना जीव-योनियों में भटकता फिरता है, जबतक कि अपने सर्वोत्कृष्ट चरित्र और ज्ञान द्वारा निर्वाण पद प्राप्त नहीं कर लेता। उपनिषत् में जो यह उपदेश गौतम को नाम लेकर सुनाया गया है, वह हमें जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के उन उपदेशों का स्मरण कराये विना नहीं रहता, जो उन्होंने अपने प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम को गौतम नाम से ही संबोधन करके सुनाये थे, और जिन्हें उन्हीं गौतम ने बारह अंगों में निबद्ध किया, जो प्राचीनतम जैन साहित्य है और द्वादशांग आगम या जैन श्रुतांग के नाम से प्रचलित हुआ पाया जाता है।महावीर से पूर्व का साहित्य -प्रश्न हो सकता है कि क्या महावीर से पूर्व का भी कोई जैन साहित्य है? इसका उत्तर हां और ना दोनों प्रकार से दिया जा सकता है। साहित्य के भीतर दो तत्वों का ग्रहण होता है, एक तो उसका शाब्दिक व रचनात्मक स्वरूप और दूसरा आर्थिक व विचारात्मक स्वरूप। इन्हीं दोनों बातों को जैन परम्परा में द्रव्य-श्रुत और भाव-श्रुत कहा गया है। द्रव्यश्रुत अर्थात् शब्दात्मकता की दृष्टि से महावीर से पूर्वकालीन कोई जैन साहित्य उपलभ्य नहीं है, किन्तु भावश्रुत की अपेक्षा जैन श्रुतांगों के भीतर कुछ ऐसी रचनाएं मानी गई हैं जो महावीर से पूर्व श्रमण-परम्परा में प्रचलित थीं, और इसी कारण उन्हें `पूर्व' कहा गया है। द्वादशांग आगम का बारहवां अंग दृष्टिवाद था। इस दृष्टिवाद के अन्तर्गत ऐसे चौदह पूर्वों का उल्लेख किया गया है, जिनमें महावीर से पूर्व की अनेक विचार-धाराओं, मत-मतान्तरों तथा ज्ञान-विज्ञान का संकलन उनके शिष्य गौतम द्वारा किया गया था। इन चौदह पूर्वों के नाम इस प्रकार हैं, जिनसे उनके विषयों का भी कुछ अनुमान किया जा सकता है-उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञान-प्रवाद, सत्य-प्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद (श्वेताम्बर परम्परानुसार अबन्ध्य), प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। प्रथम पूर्व उत्पाद में जीव, काल, पुद्गल आदि द्रव्यों के उत्पत्ति, विनाश व ध्रुवता का विचार किया गया था। द्वितीय पूर्व अग्रायणीय में उक्त समस्त द्रव्यों तथा उनकी नाना अवस्थाओं की संख्या, परिमाण आदि का विचार किया गया था। तृतीय पूर्व वीर्यानुवाद में उक्त द्रव्यों के क्षेत्रकालादि की अपेक्षा से वीर्य अर्थात् बल-सामर्थ्य का प्रतिपादन किया गया था। चतुर्थ पूर्व अस्ति-नास्ति प्रवाद में लौकिक वस्तुओं के नाना अपेक्षाओं से अस्तित्व नास्तित्व का विवेक किया गया था। पांचवें पूर्व ज्ञानप्रवाद में मति आदि ज्ञानों तथा उनके भेद प्रभेदों का प्रतिपादन किया गया था। छठे पूर्व सत्यप्रवाद में वचन की अपेक्षा सत्यासत्य विवेक व वक्ताओं की मानसिक परिस्थितियों तथा असत्य के स्वरूपों का विवेचन किया गया था। सातवें पूर्व आत्मप्रवाद में आत्मा के स्वरूप, उसकी व्यापकता, ज्ञातृभाव तथा भोक्तापन सम्बन्धी विवेचन किया गया था। आठवें पूर्व कर्मप्रवाद में नाना प्रकार के कर्मों की प्रकृतियों स्थितियों शक्तियों व परिमाणों आदिका प्ररूपण किया गया था। नौवें पूर्व प्रत्याख्यान में परिग्रह-त्याग, उपवासादि विधि, मन वचन काय की विशुद्धि आदि आचार सम्बन्धी नियम निर्धारित किये गये थे। दसवें पूर्व विद्यानुवाद में नाना विद्याओं और उपविद्याओं का प्ररूपण किया गया था, जिनके भीतर अंगुष्ट प्रसेनादि सातसौ अल्पविद्याओं, रोहिणी आदि पांचसौ महाविद्याओं एवं अन्तरिक्ष भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन और छिन्न, इन आठ महानिमित्तों द्वारा भविष्य को जानने की विधि का वर्णन था। ग्यारहवें पूर्व कल्याणवाद में सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और तारागणों की नाना गतियों को देखकर शकुन के विचार तथा बलदेवों, वासुदेवों, चक्रवर्तियों आदि महापुरुषों के गर्भावतरण आदि के अवसरों पर होने वाले लक्षणों और कल्याणों का कथन किया गया था। इस पूर्व के अबन्ध्य नामकी सार्थकता यही प्रतीत होती है कि शकुनों और शुभाशुभ लक्षणों के निमित्त से भविष्य में होने वाली घटनाओं का कथन अबंध्य अर्थात् अवश्यम्भावी माना गया था। बारहवें पूर्व प्राणावाय में आयुर्वेद अर्थात् कायचिकित्सा-शास्त्र का प्रतिपादन एवं प्राण अपान आदि वायुओं का शरीर धारण की अपेक्षा से कार्य का विवेचन किया गया था। तेरहवें पूर्व क्रियाविशाल में लेखन, गणना आदि बहत्तर कलाओं, स्त्रियों के चौंसठ गुणों और शिल्पों, ग्रन्थरचना सम्बन्धी गुण-दोषों व छन्दों आदि का प्ररूपण किया गया था। चौदहवें पूर्व लोकबिन्दुसार में जीवन की श्रेष्ठ क्रियाओं व व्यवहारों एवं उनके निमित्त से मोक्ष के सम्पादन विषयक विचार किया गया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि इन पूर्व नामक रचनाओं के अंतर्गत तत्कालीन न केवल धार्मिक, दार्शनिक व नैतिक विचारों का संकलन किया गया था, किन्तु उनके भीतर नाना कलाओं व ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विज्ञानों, तथा फलित ज्योतिष, शकुन-शास्त्र, व मन्त्र-तन्त्र आदि विषयों का भी समावेश कर दिया गया था। इस प्रकार ये रचनाएं प्राचीन काल का भारतीय ज्ञानकोष कही जांय तो अनुचित न होगा।किन्तु दुर्भाग्यवश यह पूर्व-साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका। यद्यपि पश्चात्कालीन साहित्य में इनका स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है, और उनके विषय का पूर्वोक्त प्रकार प्ररूपण भी यत्र-तत्र प्राप्त होता है, तथापि ये ग्रन्थ महावीर निर्वाण के १६२ वर्ष पश्चात् क्रमशः विच्छिन्न हुए कहे जाते हैं। उक्त समस्त पूर्वों के अन्तिम ज्ञाता श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। तत्पश्चात् १८१ वर्षों में हुए विशाखाचार्य से लेकर धर्मसेन तक अन्तिम चार पूर्वों को छोड़, शेष दश पूर्वों का ज्ञान रहा, और उसके पश्चात् पूर्वों का कोई ज्ञाता आचार्य नहीं रहा। षट्खंडागम के वेदना नामक चतुर्थखण्ड के आदि में जो नमस्कारात्मक सूत्र पाये जाते हैं, उनमें दशपूर्वों के और चौदहपूर्वों के ज्ञाता मुनियों को अलग-अलग नमस्कार किया गया है (नमो दसपुव्वियाणं, नमो चउद्दसपुव्वियाणं)। इन सूत्रों की टीका करते हुए वीरसेनाचार्य ने बतलाया है कि प्रथम दशपूर्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर कुछ मुनियों को नाना महाविद्याओं की प्राप्ति से सांसारिक लोभ व मोह उत्पन्न हो जाता है, जिससे वे आगे वीतरागता की ओर नहीं बढ़ पाते। जो मुनि इस लोभ-मोह को जीत लेता है, वही पूर्ण श्रुतज्ञानी बन पाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्त के जिन पूर्वों में कलाओं, विद्याओं, मन्त्र-तन्त्रों व इन्द्रजालों का प्ररूपण था, वे सर्वप्रथम ही मुनियों के संयमरक्षा की दृष्टि से निषिद्ध हो गये। शेष पूर्वों के विछिन्न हो जाने का कारण यह प्रतीत होता है कि उनका जितना विषय जैन मुनियों के लिये उपयुक्त व आवश्यक था, उतना द्वादशांग के अन्य भागों में समाविष्ट कर लिया गया था, इसीलिये इन रचनाओं के पठन-पाठन में समय-शक्ति को लगाना उचित नहीं समझा गया। इसी बातकी पुष्टि दिग. साहित्य की इस परम्परा से होती है कि वीर निर्वाण से लगभग सात शताब्दियों पश्चात् हुए गिरिनगर की चन्द्रगुफा के निवासी आचार्य धरसेन को द्वितीय पूर्व के कुछ अधिकारों का विशेष ज्ञान था। उन्होंने वही ज्ञान पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों को प्रदान किया और उन्होंने उसी ज्ञान के आधार से सत्कर्मप्राभृत अर्थात् षठ्खंडागम की सूत्र रूप रचना की।
क्रमश .....23
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन,
एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान
जैनधर्म मूलतः आध्यात्मिक है, और उसका आदितः सम्बन्ध कोशल, काशी, विदेह आदि पूर्वीय प्रदेशों के क्षत्रियवंशी राजाओं से पाया जाता है। इसी पूर्वी प्रदेश में जैनियों के अधिकांश तीर्थंकरों ने जन्म लिया, तपस्या की, ज्ञान प्राप्त किया और अपने उपदेशों द्वारा वह ज्ञानगंगा बहाई जो आजतक जैनधर्म के रूप में सुप्रवाहित है। ये सभी तीर्थंकर क्षत्रिय राजवंशी थे। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि जनक के ही एक पूर्वज नमि राजा जैनधर्म के २१ वें तीर्थंकर हुए हैं। अतएव कोई आश्चर्य की बात नहीं जो जनक-कुल में उस आध्यात्मिक चिंतन की धारा पाई जाय जो जैनधर्म का मूलभूत अंग है। उपनिषत्कार पुकार पुकार कर कहते हैं कि :-एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।दृश्यते त्वग्रया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिमिः ।।(कठो. १,३,१२)+ + + + +हन्त तेऽदम् प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम्।यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम ।।योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतं ।।(कठो. २, २, ६-७)अर्थात् प्राणिमात्र में एक अनादि अनन्त सजीव तत्व है जो भौतिक न होने के कारण दिखाई नहीं देता। वही आत्मा है। मरने के पश्चात् यह आत्मा अपने कर्म व ज्ञान की अवस्थानुसार वृक्षों से लेकर संसार की नाना जीव-योनियों में भटकता फिरता है, जबतक कि अपने सर्वोत्कृष्ट चरित्र और ज्ञान द्वारा निर्वाण पद प्राप्त नहीं कर लेता। उपनिषत् में जो यह उपदेश गौतम को नाम लेकर सुनाया गया है, वह हमें जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के उन उपदेशों का स्मरण कराये विना नहीं रहता, जो उन्होंने अपने प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम को गौतम नाम से ही संबोधन करके सुनाये थे, और जिन्हें उन्हीं गौतम ने बारह अंगों में निबद्ध किया, जो प्राचीनतम जैन साहित्य है और द्वादशांग आगम या जैन श्रुतांग के नाम से प्रचलित हुआ पाया जाता है।महावीर से पूर्व का साहित्य -प्रश्न हो सकता है कि क्या महावीर से पूर्व का भी कोई जैन साहित्य है? इसका उत्तर हां और ना दोनों प्रकार से दिया जा सकता है। साहित्य के भीतर दो तत्वों का ग्रहण होता है, एक तो उसका शाब्दिक व रचनात्मक स्वरूप और दूसरा आर्थिक व विचारात्मक स्वरूप। इन्हीं दोनों बातों को जैन परम्परा में द्रव्य-श्रुत और भाव-श्रुत कहा गया है। द्रव्यश्रुत अर्थात् शब्दात्मकता की दृष्टि से महावीर से पूर्वकालीन कोई जैन साहित्य उपलभ्य नहीं है, किन्तु भावश्रुत की अपेक्षा जैन श्रुतांगों के भीतर कुछ ऐसी रचनाएं मानी गई हैं जो महावीर से पूर्व श्रमण-परम्परा में प्रचलित थीं, और इसी कारण उन्हें `पूर्व' कहा गया है। द्वादशांग आगम का बारहवां अंग दृष्टिवाद था। इस दृष्टिवाद के अन्तर्गत ऐसे चौदह पूर्वों का उल्लेख किया गया है, जिनमें महावीर से पूर्व की अनेक विचार-धाराओं, मत-मतान्तरों तथा ज्ञान-विज्ञान का संकलन उनके शिष्य गौतम द्वारा किया गया था। इन चौदह पूर्वों के नाम इस प्रकार हैं, जिनसे उनके विषयों का भी कुछ अनुमान किया जा सकता है-उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञान-प्रवाद, सत्य-प्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद (श्वेताम्बर परम्परानुसार अबन्ध्य), प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। प्रथम पूर्व उत्पाद में जीव, काल, पुद्गल आदि द्रव्यों के उत्पत्ति, विनाश व ध्रुवता का विचार किया गया था। द्वितीय पूर्व अग्रायणीय में उक्त समस्त द्रव्यों तथा उनकी नाना अवस्थाओं की संख्या, परिमाण आदि का विचार किया गया था। तृतीय पूर्व वीर्यानुवाद में उक्त द्रव्यों के क्षेत्रकालादि की अपेक्षा से वीर्य अर्थात् बल-सामर्थ्य का प्रतिपादन किया गया था। चतुर्थ पूर्व अस्ति-नास्ति प्रवाद में लौकिक वस्तुओं के नाना अपेक्षाओं से अस्तित्व नास्तित्व का विवेक किया गया था। पांचवें पूर्व ज्ञानप्रवाद में मति आदि ज्ञानों तथा उनके भेद प्रभेदों का प्रतिपादन किया गया था। छठे पूर्व सत्यप्रवाद में वचन की अपेक्षा सत्यासत्य विवेक व वक्ताओं की मानसिक परिस्थितियों तथा असत्य के स्वरूपों का विवेचन किया गया था। सातवें पूर्व आत्मप्रवाद में आत्मा के स्वरूप, उसकी व्यापकता, ज्ञातृभाव तथा भोक्तापन सम्बन्धी विवेचन किया गया था। आठवें पूर्व कर्मप्रवाद में नाना प्रकार के कर्मों की प्रकृतियों स्थितियों शक्तियों व परिमाणों आदिका प्ररूपण किया गया था। नौवें पूर्व प्रत्याख्यान में परिग्रह-त्याग, उपवासादि विधि, मन वचन काय की विशुद्धि आदि आचार सम्बन्धी नियम निर्धारित किये गये थे। दसवें पूर्व विद्यानुवाद में नाना विद्याओं और उपविद्याओं का प्ररूपण किया गया था, जिनके भीतर अंगुष्ट प्रसेनादि सातसौ अल्पविद्याओं, रोहिणी आदि पांचसौ महाविद्याओं एवं अन्तरिक्ष भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन और छिन्न, इन आठ महानिमित्तों द्वारा भविष्य को जानने की विधि का वर्णन था। ग्यारहवें पूर्व कल्याणवाद में सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और तारागणों की नाना गतियों को देखकर शकुन के विचार तथा बलदेवों, वासुदेवों, चक्रवर्तियों आदि महापुरुषों के गर्भावतरण आदि के अवसरों पर होने वाले लक्षणों और कल्याणों का कथन किया गया था। इस पूर्व के अबन्ध्य नामकी सार्थकता यही प्रतीत होती है कि शकुनों और शुभाशुभ लक्षणों के निमित्त से भविष्य में होने वाली घटनाओं का कथन अबंध्य अर्थात् अवश्यम्भावी माना गया था। बारहवें पूर्व प्राणावाय में आयुर्वेद अर्थात् कायचिकित्सा-शास्त्र का प्रतिपादन एवं प्राण अपान आदि वायुओं का शरीर धारण की अपेक्षा से कार्य का विवेचन किया गया था। तेरहवें पूर्व क्रियाविशाल में लेखन, गणना आदि बहत्तर कलाओं, स्त्रियों के चौंसठ गुणों और शिल्पों, ग्रन्थरचना सम्बन्धी गुण-दोषों व छन्दों आदि का प्ररूपण किया गया था। चौदहवें पूर्व लोकबिन्दुसार में जीवन की श्रेष्ठ क्रियाओं व व्यवहारों एवं उनके निमित्त से मोक्ष के सम्पादन विषयक विचार किया गया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि इन पूर्व नामक रचनाओं के अंतर्गत तत्कालीन न केवल धार्मिक, दार्शनिक व नैतिक विचारों का संकलन किया गया था, किन्तु उनके भीतर नाना कलाओं व ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विज्ञानों, तथा फलित ज्योतिष, शकुन-शास्त्र, व मन्त्र-तन्त्र आदि विषयों का भी समावेश कर दिया गया था। इस प्रकार ये रचनाएं प्राचीन काल का भारतीय ज्ञानकोष कही जांय तो अनुचित न होगा।किन्तु दुर्भाग्यवश यह पूर्व-साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका। यद्यपि पश्चात्कालीन साहित्य में इनका स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है, और उनके विषय का पूर्वोक्त प्रकार प्ररूपण भी यत्र-तत्र प्राप्त होता है, तथापि ये ग्रन्थ महावीर निर्वाण के १६२ वर्ष पश्चात् क्रमशः विच्छिन्न हुए कहे जाते हैं। उक्त समस्त पूर्वों के अन्तिम ज्ञाता श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। तत्पश्चात् १८१ वर्षों में हुए विशाखाचार्य से लेकर धर्मसेन तक अन्तिम चार पूर्वों को छोड़, शेष दश पूर्वों का ज्ञान रहा, और उसके पश्चात् पूर्वों का कोई ज्ञाता आचार्य नहीं रहा। षट्खंडागम के वेदना नामक चतुर्थखण्ड के आदि में जो नमस्कारात्मक सूत्र पाये जाते हैं, उनमें दशपूर्वों के और चौदहपूर्वों के ज्ञाता मुनियों को अलग-अलग नमस्कार किया गया है (नमो दसपुव्वियाणं, नमो चउद्दसपुव्वियाणं)। इन सूत्रों की टीका करते हुए वीरसेनाचार्य ने बतलाया है कि प्रथम दशपूर्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर कुछ मुनियों को नाना महाविद्याओं की प्राप्ति से सांसारिक लोभ व मोह उत्पन्न हो जाता है, जिससे वे आगे वीतरागता की ओर नहीं बढ़ पाते। जो मुनि इस लोभ-मोह को जीत लेता है, वही पूर्ण श्रुतज्ञानी बन पाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्त के जिन पूर्वों में कलाओं, विद्याओं, मन्त्र-तन्त्रों व इन्द्रजालों का प्ररूपण था, वे सर्वप्रथम ही मुनियों के संयमरक्षा की दृष्टि से निषिद्ध हो गये। शेष पूर्वों के विछिन्न हो जाने का कारण यह प्रतीत होता है कि उनका जितना विषय जैन मुनियों के लिये उपयुक्त व आवश्यक था, उतना द्वादशांग के अन्य भागों में समाविष्ट कर लिया गया था, इसीलिये इन रचनाओं के पठन-पाठन में समय-शक्ति को लगाना उचित नहीं समझा गया। इसी बातकी पुष्टि दिग. साहित्य की इस परम्परा से होती है कि वीर निर्वाण से लगभग सात शताब्दियों पश्चात् हुए गिरिनगर की चन्द्रगुफा के निवासी आचार्य धरसेन को द्वितीय पूर्व के कुछ अधिकारों का विशेष ज्ञान था। उन्होंने वही ज्ञान पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों को प्रदान किया और उन्होंने उसी ज्ञान के आधार से सत्कर्मप्राभृत अर्थात् षठ्खंडागम की सूत्र रूप रचना की।
क्रमश .....23
**********
इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन,
एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान
उपयोगी जानकारी!
आभार!
बहुत आभार!!
जबलपुर विश्वविद्यालय से संबंधित रहे तो अति आकर्षण रहा!