क्यों पहले अवतार लिया ?

Posted: 28 मार्च 2010
आचार्य महाप्रज्ञ
भगवान महावीर की जन्म जयन्ती के अवसर पर मैंने गीत लिखा। उसकी प्रथम पंक्ति है - जिसकी आज जरुरत उसने क्यो पहले अवतार लिया।'' आज युग को महावीर की जरुरत है। कभी व्यक्ति जरुरत पैदा करता है, कभी युग को व्यक्ति की जरुरत होती है। महावीर की आज जरुरत है।

वर्तमान युग समस्या बहुल युग है। आज युग जितना समस्या से आक्रान्त रहा है। साम्प्रदायिक आग्रह, जातिवाद का आग्रह इन आग्रहों से भी युग आक्रान्त है। भगवान महावीर ने २६०० वर्ष पहले अपनी अन्तर्दृष्टि या अन्तः प्रज्ञा के द्वारा जो कुछ दिया वह आज बहुत प्रासंगिक है। उन्होंने अहिंसा, अनेकान्त और संग्रह की सीमा का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। उस समय उन सिद्धान्तों की इतनी जरूरत नहीं रही होगी जितनी जरूरत आज है। जिस व्यक्ति की जरूरत है, उस व्यक्ति का अवतार आज बहुत प्रासंगिक बनता है। आज महावीर बहुत प्रासंगिक हैं। वे अतीत में हुए किन्तु वर्तमान को मैं सामने रखता हूं तो कह


सकता हूं कि आज उनकी बहुत ज्यादा प्रासंगिकता है। इसका कारण है कि वर्तमान युग पदार्थवादी युग है। पदार्थ के प्रति इतना आकर्षण था तो उसके विकर्षण कि बात भी समझाई जाती, पढाई जाती थी। जब आकर्षण और विकर्षण दोनों चलते हैं तो समस्या गहरी नहीं होती। आज कोरा आकर्षण है पदार्थ के प्रति, धन के प्रति सुविधाओं के प्रति और विकर्षण का कोई सूत्र सामने नहीं है। ऐसा लगता है वह खो गया है, इसलिए समस्या और गहरी होती जा रही है। अंधकार और गहरा होता जा रहा है। उस गहरे तमस्‌ को प्रकाश में बदलने के लिए जरूरत है ऐसे व्यक्तित्व और कर्तृत्व की जिसमें अन्तः प्रज्ञा भी हो और बाह्‌य प्रज्ञा भी हो। अनेकान्त में दोनों मान्य हैं। हम एक पक्ष के आधार पर कोई निर्णय नहीं कर सकते हैं। महावीर की वाणी है – “जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ। जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ।'' जो अध्यात्म को जानता है, वह बाहर को जानता है और जो बाहर को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है।

महावीर की प्रतिमा में एक विशेषता देखी। उनकी ध्यान मुद्रा है, पर आंखें बन्द नहीं है। आधी बन्द है और आधी खुली है। उसका तात्पर्य है कि व्यवहार जगत से आखें मत मूंदो और भीतर से भी आंखें मत मूंदों भीतर को भी देखते रहो और बाहर को भी देखते रहो। दोनों को देखते रहो। यह अनेकान्त का दृष्टिकोण आज बहुत आवश्यक है।


भगवान महावीर ने यह समझाने का प्रयत्न किया कि पदार्थ के बिना जीवन नहीं चलता। ये हमारी विवशता है। हम पदार्थ को छोड़ नहीं सकते किन्तु हमारा दृष्टिकोण साफ रहे कि पदार्थ के द्वारा हमारी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता, बल्कि समस्या पैदा होती है। उसका समाधान अध्यात्म के द्वारा हो सकता है, आत्मा के द्वारा हो सकता है। हम दोनों दृष्टियों को सामने रख कर चलें। मैंने एक जिज्ञासा की - प्रभो! बताए कि आपने भोगवाद का उपचार कैसे किया? भोगवाद एक बीमारी है। पदार्थ का भोग बीमारी नहीं है किन्तु जब पदार्थ के प्रति अति आसक्ति, मूर्च्छा पैदा हो जाती है, पदार्थ के प्रति एक लालसा पैदा हो जाती है तब वह सचमुच बीमारी है। आज उसके उपचार की जरूरत है। इस बीमारी का कोई मनोचिकित्सक भी उपचार नहीं कर सकता। इस बीमारी का उपचार तुमने कैसे किया? यह हमारी जिज्ञासा है। मुझे नहीं पता, प्रत्यक्ष उत्तर मिलेगा। पर उत्तर बहुत जरूरी है। वर्तमान युग में भोगवाद के स्थान पर त्याग की जरूरत है। अगर भोग और त्याग दोनों का सन्तुलन होता है तो समस्या गहराती नहीं, अन्धकार गहरा नहीं बनता है। भगवान महावीर ने आत्मा के आधार पर जीवन का दर्शन दिया था। जहां आत्मा का प्रश्न है, प्राणि मात्र समानता के स्तर

पर आ जाते हैं, कोई अन्तर नहीं रहता, किन्तु आज तो लग रहा है इस जातिभेद की रूढ़ परम्परा ने मनुष्य को बांट दिया है। बीमारी बढ़ गई है। मैं मानता हूं कि कुछ महापुरुषों के प्रयत्नों द्वारा थोड़ा-थोड़ा दृष्टिकोण बदला है, किन्तु आज भी बीमारी शान्त नहीं है। उसके कीटाणु बराबर काम कर रहे हैं। भगवान महावीर ने मानवीय एकता को जीवित किया था, चेतना के साथ जोड़ा था। जब तक चेतना नहीं बदलती है, कोरा सिद्धान्त काम नहीं कर सकता। जरूरी है चेतना का परिवर्तन हृदय परिवर्तन या भावना का परिवर्तन। हम ध्यान के द्वारा चेतना का रूपान्तरण कर सकते हैं, मानवीय एकता का अनुभव कर सकते हैं।


आज की बड़ी समस्या है साम्प्रदायिक कट्टरता। प्रभो! आपने इस समस्या का अनुभव किया था और कहा था कि सम्प्रदाय का स्थान नम्बर दो पर है। पहला स्थान धर्म का है। धर्म और सम्प्रदाय यह ऐसा विभाजन किया था जो दुर्लभ है। आज बहुत सारे लोग उलझे हुए हैं जो धर्म और सम्प्रदाय को एक साथ देख रहे हैं। जब-जब दोनों को एक ही दृष्टि से, एक साथ देखा जाता है, समस्या गहरी हो जाती है। आज इस बात की अपेक्षा है कि सम्प्रदाय को एक व्यवस्था के साथ जोड़ें और धर्म को चेतना के साथ जोड़ें। जब तक धर्म को चेतना के साथ नहीं जोड़ा जाता, वह एक जाति या सम्प्रदाय, एक संगठन के रूप में ही रहता है तो स्वयं समाधान देने वाला धर्म समस्या बन जाता हे। आज अपेक्षा इस बात कि है कि धर्म के क्षेत्र में विचार क्रान्ति हो। जो धर्म रूढ बन गया है और जो मृत सम्प्रदाय का चीवर आढ कर अपना सौन्दर्य प्रकट कर रहा है, उस धर्म का असली चेहरा, असली मुखाकृति दुनिया के सामने आये, इस बात की बहुत बड़ी अपेक्षा है। मुझे लगता है कि उसके लिए बहुत बड़ी विचार क्रान्ति की जरूरत है। आज धार्मिक क्षेत्र में विचार क्रान्ति ठप्प हो गई है। धार्मिकों पर भी पदार्थ का इतना ज्यादा असर है कि वे धर्म की विचार क्रान्ति को करने तैयार है किन्तु धार्मिक क्षेत्र में विचार करने के लिए तैयार नहीं है। कैसे सुप्त चेतना को जागृत किया जाए? चेतना सुप्त नहीं, मुर्च्छित भी है। अब मुर्च्छित चेतना को कैसे जागृत किया जाए? बहुत कठिन

काम है। महावीर जयन्ती का आयोजन किया जाता है, भक्ति-गान और प्रशन्सा का कार्यक्रम चलता है। किन्तु महावीर ने जो किया, उसे हम कैसे आगे बढ़ाएं, उस पर चिंतन प्रायः नहीं होता। ये भारी समस्या है। महावीर जयन्ती भी एक रूढ परमपरा बन गई। दिन आता है और मना लिया जाता है, किन्तु उस दिन कैसे आत्मा-लोचन हो, कैसे नया चिंतन हो, कैसे हम महावीर के अवदान को विश्व के सामने प्रस्तुत कर सके, इन विषयों पर कोई विशेष चिंतन नहीं होता। एक बात की और ज्यादा अपेक्षा मुझे लग रही है कि व्यक्तिगत स्वामित्व ने भारी समस्या पैदा कर दी है। एक व्यक्ति चाहे जितना धन अर्जित कर सकता है और चाहे जैसा दुरूपयोग या भोग कर सकता है। अर्जित धन का एक उपयोग तो करने वाले बहुत कम लोग हैं, किन्तु व्यक्तिगत शान शौकत, एश्वर्य, प्रदर्शन आदि में उसका उपयोग करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। कैसे उसका दृष्टिकोण बदले कि संग्रह का सीमा करण होना चाहिए। व्यक्तिगत स्वामित्व का सीमाकरण शायद कोई कर नहीं पा रहा है। जिनके हाथ में सत्ता है और करना चाहिए, वे स्वयं इस समस्या से मुक्त नहीं है कि समाधान कैसे करेंगे।


महावीर जयन्ती का दिन इस दिशा में मानव समाज की चेतना को जागृत करने का हो। संग्रह का जितना भार होगा आदमी उतना नीचे जाएगा, चेतना उतनी नीचे जाएगी। चेतना को उठाने का और आदमी को उठाने का उपाय है - सीमाकरण। हम त्याग, संयम और सीमाकरण जैसे शब्दों को झुठलाते जा रहे हैं, भुलाते जा रहे हैं। हमारे आर्थिक विकास की अवधारणा में ये शब्द निरर्थक हो गये और ये माना जा रहा है कि आज ये बात प्रासंगिक नहीं है। ये भी प्रश्न होता है आज महावीर की क्या प्रासंगिकता है, आज जैन धर्म की क्या प्रासंगिकता है। मैं सोचता हूं कि यदि कोई समस्या है, सम्प्रदायवाद की समस्या है और असीम अर्थ संग्रह की समस्या है, विषमताएं हैं। एक और प्रबल ऐश्वर्य और दूसरी ओर भूख। इन दोनों में टक्कर है तो फिर महावीर कि प्रासंगिकता है। हम मानें या न मानें, स्वीकार करें या ना करें। रास्ता खोजें तो शायद महावीर का रास्ता मेरी दृष्टि में बहुत सरल सीधा और सबसे ज्यादा निष्कन्टक रास्ता है। महावीर जयन्ती को मनाने का तरीका बदले। केवल प्रशंसा गीतों तक महावीर और महावीर दर्शन को सीमित न करें। हम वर्तमान समस्या के सन्दर्भ में महावीर को प्रस्तुत करें और महावीर को समझने का प्रयत्न करें तो शायद हमें भी कोई रास्ता मिल सकता है और हम भी समस्या के समाधान के आस-पास पहुंच सकते हैं। मुझे नहीं पता कि बहुत ऐश्वर्य के साथ, वैभवपूर्ण तरीके के साथ महावीर को मनाने वाले कहां तक सहमत


होंगे मेरे विचार से। किन्तु सहमत कोई हो या न हो, आखिर जो सच्चाई है उस सच्चाई को सामने रखना ही आवश्यक है और ये सच्चाई है और वर्तमान की सच्चाई है कि अनेकान्त दृष्टि सापेक्ष दृष्टि और समन्वय दृष्टि से विचार किए बिना हम सम्प्रदाय की समस्या को नहीं सुलझा सकते। ये भी सच्चाई है - मैत्री और एकता की चेतना को जागृत किये बिना हम हिंसा को कम नहीं कर सकते, हिंसा की बाढ को रोक नहीं सकते। ये भी सच्चाई है कि धन के असीम संग्रह की जो परम्परा है, उस पर रोक लगाए बिना हम गरीबी भूख और विषमता को भी कम नहीं कर सकते। इन सारी सच्चाइयों को सामने रख कर समस्याओं को सामने रखें और फिर उनका समाधान खोजने का प्रयत्न करें और फिर महावीर की मूर्ति हमारे सामने आ जाए तो एक ही स्वर उच्चारित होगा। एक ही स्वर हमारे कानों तक पहुंचेगा कि समस्या को सुलझाना है तो केवल पदार्थ की दिशा में ही आगे मत बढ़ो, विकास का मानदण्ड इसे मत बनाओ। पदार्थ और चेतना दोनों को आगे रख कर आगे बढ़ो पदार्थ की समस्या चेतना से सुलझाओ और चेतना की कोई समस्या है, अनिवार्यता है, वह पदार्थ के द्वारा सुलझाओ दोनों में हम समन्वय स्थापित कर सकें तो महावीर जयन्ती मनाने का अर्थ बहुत गहरा होगा और मानव जाति के लिए ही नहीं, प्राणी मात्र के लिए पूरे विश्व के लिए कल्याणकारी होगा।

संदेश
         आचार्य श्री महाप्रज्ञ

प्रस्तुति - मुनि जयंत कुमार
भगवान्‌ महावीर का जीवन और दर्शन जाने अनजाने वर्तमान युग का जीवन-दर्शन हो रहा है। लोकतंत्र महावीर के अनेकांत के सह अस्तित्व और समन्वय का जीवन्त प्रयोग है। पर्यावरण की सुरक्षा का प्रयत्न उनकी अहिंसा का व्यावहारिक प्रयोग है। जातिवाद और संप्रदाय के प्रति बदला हुआ दृष्टिकोण उनकी धर्मक्रांति का जीवन्त प्रमाण है। शाकाहार का आंदोलन उनकी अहिंसक जीवन शैली का एक सुन्दर निदर्शन है।

इन और इन जैसे अनेक संदर्भों को ध्यान में रखकर मैंने एक पुस्तक लिखी- ‘महावीर का पुनर्जन्म’। पुनर्जन्म का प्रशन सैद्धांतिक दृष्टि से बहुत चौंकाने वाला है पर व्यावहारिक दृष्टि से बहुत सार्थक है।
भगवान्‌ महावीर की जन्म जयंती के अवसर पर हम उनके अनेकांत दर्शन को समझने का, उनकी जीवन शैली को अपनाने का प्रयत्न करें, जन्म जयंती का उत्सव हमारे लिए बहुत श्रेयस्कर होगा।

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