मानवीय एकता भेद-बुद्धि के नीचे दब सी गयी है। धर्म को देखने के लिए श्रद्धा की ऑख चाहिए। क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? धर्म बुद्धि से सर्वथा गम्य नही है। तो सर्वथा अगम्य भी नही है। धर्म के निमित कारणो को धर्म कह देते है। मनुष्य मे धर्म भावना जितनी दुर्बल होती है उसमे भेद-बुद्धि उतनी ही प्रबल होती है। |
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बुद्धिमान व्यक्ति श्रद्धालु नही हो सकता। और श्रद्धा के साथ बुद्धि के साथ अवस्थान नही हो सकता है। धर्म को देखने के लिए श्रद्धा की ऑख चाहिए। बुद्धि की ऑख कभी धर्म को नही पहचान सकती इस बात को सुनकर अवश्य विस्मित होगे कि धर्म भी बुद्धि का विषय है। साधना एवम बुद्धि मे दुरी है। साधना के परिपार्श्व मे सिन्द्धान्त बनते है। बुद्धि उन सिद्धान्तो को ऊचाई तक पहुचने से पहले ही थककर अपना भाग्य श्रद्धा के हाथो सोप देती है। इसलिए धर्म के साथ श्रद्धा का अनुबन्धन झोडा जाता है। यह बहुत बडा सत्य है। पर वे लोग इस सत्य को कैसे समझ सकते है, जो श्रद्धा से खाली है। उनके लिऍ यह प्रशन महत्व का है कि क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? धर्म बुद्धिगम्य है, यह बात शत-प्रतिशत सही नही है तो यह बात शत-प्रतिशत सही नही है कि धर्म बुद्धिगम्य नही है । उन दो छोरो के बीच मे प्राप्त होने वाला तथ्य यह है कि धर्म बुद्धि से सर्वथा गम्य नही है। तो सर्वथा अगम्य भी नही है। बुद्धि की अपनी सीमाऐ है और धर्म की अपनी सीमाऐ है। |
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कुछ लोग मानते है कि धर्म का फल परलोक मे मिलेगा। मिलता होगा मै नही जानता। किन्तु जिसका इस लोक मे कोई फल नही है, उसका फल परलोक मे कैसे मिलेगा ? भविश्य कभी भी वर्तमान की अपेक्षा नही करता। हम वर्तमान को उज्जवल बनाकर ही भविष्य को उज्जवल बना सकते है। धर्म का फल क्या है ? यह सम्पदा और ऐश्वर्य जो है वह धर्म का फल नही है,यह परिश्रम का फल है। अपने अपने कृत कर्मो का फल है। पर धर्म का फल नही है। धर्म का फल है शान्ति, धर्म का फल है पवित्रता, धर्म का फल है सहिष्णुता और धर्म का फल है प्रकाश।हम बहुत बार धर्म के निमित कारणो को धर्म कह देते है। किन्तु वस्तुतः उन्हे साम्प्रदायिकता विधि विधान कहना चाहिऍ, शाश्वत धर्म नही है। शाश्वत धर्म जो है, वह सबके लिऐ, सब स्थितियो मे , सदा, सर्वदा एक ही हो सकता है। इसलिए उसमे व्यक्ति, जाति, वर्ग, लिन्ग, वर्ण, देश और काल का कोई अन्तर नही हो सकता है। मनुष्य मे धर्म भावना जितनी दुर्बल होती है उसमे भेद-बुद्धि उतनी ही प्रबल होती है। जातीयता के कारण के कारण हिन्दु और मुसलमान और वर्ण भेद के कारण काले और गोरे इस प्रकार विभक्त हो गऐ है कि मानवीय एकता भेद-बुद्धि के नीचे दब सी गयी है। रुसी भी आदमी है और अमेरिकन भी आदमी है। पर राष्ट्रीय सकुचितता के कारण उनकी यह बुद्धि आहत-सी हो गई है कि मनुष्य मनुष्य एक है। यह सारा भेद अधर्म है, अनध्यात्म से प्राप्त होता है इस सकट का एकमात्र प्रतिकार अध्यात्म या धर्म ही है। इस तथ्य को बुद्धिगम्य किये बिना सारा बुद्धि वाद खतरे मे पड जाऐगा। |
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आचार्य तुलसी ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥
आभार!!
शुक्र है धर्म के नाम पर ऐसे ब्लोग्स भी है.. वरना कुछ लोगो ने तो धर्म की परिभाषा ही बदल दी.. ऐसे में आपका समर्पण निश्चय ही आश्चर्यचकित करता है..
ऐसे विषयो पर बहुत कम लिखा जाता है.. ये जानते हुए भी निरंतर आती आपकी पोस्ट सुकून देती है.. और ऐसे में आप खुद ये बात साबित करते है कि धर्म के लिए श्रद्दा की आँख चाहिए..
बहुत बढ़िया लेख
धर्म व्यक्तित्व की समग्रता का विषय है और बुद्धि उसका एक छोटा भाग है!
आपके विचार उत्तम हैं । क्रपया कुमार अम्बुज का ब्लोग देखे वहाँ इस विषय पर बहुत विस्तार से लिखा गया है ।
बहुत सुंदर लिखा आप ने.धन्यवाद