जैनधर्म "कभी किसी संकुचित दृष्टि का शिकार नहीं बना।"

Posted: 03 जून 2009
मैं समझता हूं इसी धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण से प्रेरित होकर परिषद् ने मुझे इन व्याख्यानों के लिये आमंत्रित किया है, और उसी दृष्टि से मुझे जैनधर्म का भारतीय संस्कृति को योगदान विषयक यहां विवेचन करने में कोई संकोच नहीं। ध्यान मुझे केवल यह रखना है कि इस विषय की यहां जो समीक्षा की जाय, उसमें आत्म-प्रशंसा व परनिंदा की भावना न हो,

जैनधर्म अपनी विचार व जीवन संबंधी व्यवस्थाओं के विकास में कभी किसी संकुचित दृष्टि का शिकार नहीं बना। उसकी भूमिका राष्ट्रीय दृष्टि से सदैव उदार और उदात्त रही है। उसका यदि कभी कहीं अन्य धर्मों से विरोध व संघर्ष हुआ है तो केवल इसी उदार नीति की रक्षा के लिये। जैनियों ने अपने देश के किसी एक भाग मात्र को कभी अपनी भक्ति का विषय नहीं बनने दिया। यदि उनके अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर विदेह (उत्तर बिहार) में उत्पन्न हुए थे, तो उनका उपदेश व निर्वाण हुआ मगध (दक्षिण बिहार) में। उनसे पूर्व के तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म हुआ उत्तरप्रदेश की बनारस नगरी में; तो वे तपस्या करने गये मगध के सम्मेदशिखर पर्वत पर। उनसे भी पूर्व के तीर्थंकर नेमिनाथ ने अपने तपश्चरण, उपदेश व निर्वाण का क्षेत्र बनाया भारत के पश्चिमी प्रदेश काठियावाड को। सब से प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का जन्म हुआ अयोध्या में और वे तपस्या करने गये कैलाश पर्वत पर। इस प्रकार जैनियों की पवित्र भूमि का विस्तार उत्तर में हिमालय, पूर्व में मगध, और पश्चिम में काठियावाड तक हो गया। इन सीमाओं के भीतर अनेक मुनियों व आचार्यों आदि महापुरुषों के जन्म, तपश्चरण, निर्वाण आदि के निमित्त से उन्होंने देश की पद पद भूमि को अपनी श्रद्धा व भक्ति का विषय बना डाला है। चाहे धर्मप्रचार के लिये हो और चाहे आत्मरक्षा के लिये, जैनी कभी देश के बाहर नहीं भागे। यदि दुर्भिक्ष आदि विपत्तियों के समय वे कहीं गये तो देश के भीतर ही, जैसे पूर्व से पश्चिम को या उत्तर से दक्षिण को। और इस प्रकार उन्होंने दक्षिण भारत को भी अपनी इस श्रद्धांजलि से वंचित नहीं रखा। वहां तामिल के सुदूरवर्ती प्रदेश में भी उनके अनेक बड़े बड़े आचार्य व ग्रंथकार हुए हैं, और अनेक स्थान उनके प्राचीन मंदिरों आदि के ध्वंसों से आज भी अलंकृत हैं। कर्नाटक प्रांत में श्रवणबेलगोला व कारकल आदि स्थानों पर बाहुबलि की विशाल कलापूर्ण मूर्त्तियाँ आज भी इस देश की प्राचीन कला को गौरवान्वित कर रही हैं। तात्पर्य यह कि समस्त भारत देश, आजकी राजनैतिक दृष्टिमात्र से ही नहीं, किंतु अपनी प्राचीनतम धार्मिक परम्परानुसार भी, जैनियों के लिये एक इकाई और श्रद्धाभक्ति का भाजन बना है। जैनी इस बात का भी कोई दावा नहीं करते कि ऐतिहासिक काल के भीतर उनका कोई साधुओं या गृहस्थों का समुदाय बड़े पैमाने पर कहीं देश के बाहर गया हो और वहां उसने कोई ऐसे मंदिर आदि अपनी धार्मिक संस्थायें स्थापित की हों, जिनकी भक्ति के कारण उनके देशप्रेम में लेशमात्र भी शिथिलता या विभाजन उत्पन्न हो सके। इसप्रकार प्रान्तीयता की संकुचित भावना एवं देशबाह्य अनुचित अनुराग के दोषों से निष्कलंक रहते हुए जैनियों की देशभक्ति सदैव विशुद्ध, अचल और स्थिर कही जा सकती है।
जैनधर्म मूलतः आध्यात्मिक है, और उसका आदितः सम्बन्ध कोशल, काशी, विदेह आदि पूर्वीय प्रदेशों के क्षत्रियवंशी राजाओं से पाया जाता है। इसी पूर्वी प्रदेश में जैनियों के अधिकांश तीर्थंकरों ने जन्म लिया, तपस्या की, ज्ञान प्राप्त किया और अपने उपदेशों द्वारा वह ज्ञानगंगा बहाई जो आजतक जैनधर्म के रूप में सुप्रवाहित है। ये सभी तीर्थंकर क्षत्रिय राजवंशी थे। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि जनक के ही एक पूर्वज नमि राजा जैनधर्म के २१ वें तीर्थंकर हुए हैं। अतएव कोई आश्चर्य की बात नहीं जो जनक-कुल में उस आध्यात्मिक चिंतन की धारा पाई जाय जो जैनधर्म का मूलभूत अंग है।
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8 comments:

  1. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 03 जून, 2009

    आध्यात्मिक चिंतन की धारा जैनधर्म का मूलभूत अंग है।
    सुन्दर आलेख के लिए बधाई।

  2. Arvind Mishra 03 जून, 2009

    अच्छा लगा पढना लिखना !

  3. ताऊ रामपुरिया 03 जून, 2009

    बहुत आभार आपका इस दर्शन को समझाने के लिये.

    रामराम.

  4. RAJNISH PARIHAR 03 जून, 2009

    बहुत ही अच्छी जानकारी आप उपलब्ध करा रहे है ...!बस एक निवेदन है की भाषा थोडी सरल हो तो ठीक रहेगा,ताकि हम भी सरलता से इन गूढ़ बातों को समझ पायें...

  5. राज भाटिय़ा 04 जून, 2009

    जेन धर्म के बारे आप ने बहुत अच्छी तरह लिखा, हम ने पहले भी स्कुल की किताबो मै पढा है, ओर हमारे बहुत से दोस्त भी जेनी है,
    आप का धन्यवाद

  6. रंजना 04 जून, 2009

    Gyanvardhak jankari di aapne...bada achchha laga..aabhar.

  7. हें प्रभु यह तेरापंथ 04 जून, 2009

    @RAJNISH PARIHAR

    महोदय, आपने मुझे सहरा इसलिए आपका धन्यवाद। आगे से भाषा को और सरल रुप दू इस सुझाव पर अमल करुगा।

  8. लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` 04 जून, 2009

    बहुत अच्छी तरह समझाया है जैन धर्म के वेशिष्य़ को
    - लावण्या

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