कल से आगे कि कडी देखे जैन बाल-दीक्षा पर भारतीय कानुन ने क्या कहॉ ?...उत्सक प्रशनकारीयो के लिऐ समाधान है यह, ताकी वे समझे, अपने धर्म के साथ साथ दुसरो कि आस्था का सम्मान करे। अपने साथ-साथ मित्रो का सम्मान करे, मित्र धर्म का पालन करे। आमन्त्रित मेहमान का स्वागत कैसे करे ?... यह मनुष्य जीवन मे शायद सिखने सीखाने वाली बात नही है। जैन धर्म के साथ सभी धर्म आदरणीय है..... सम्मान रुप से आस्था के बिन्दु है। इसके लिऐ हमे उन्हे पढना होगा समझना होगा। तभी हम सभी खुश रह सकते है और दुसरो के भरोसे के लायक बन सकते है- गीतासार
२१ अगस्त २००७ सभी प्रतिषठित पत्रो के मुखपृष्ठ पर बाल दीक्षा विरोधि याचिका खारिज करने का समाचार प्रमुखता से छपा था। जी टीवी, आज-तक आदि, चैनलो ने भी इसे प्रमुखता से प्रसारित किया। इस सन्दर्भ मे आचार्य श्री महाप्रज्ञ का विशेष साक्षात्कार राजस्थान-पत्रिका के सम्पादक मिलापजी कोठारी ने लिया. उसे सन्दर्भ के तोर पर यहॉ उद्धृत किया जा रहा है।
" मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रट उदयपुर जिला गोगुन्दा स्थित सेमड गॉव मे जैन समाज के चार बालको को दीक्षा देने के मामले की सुनवाई पुरी करते हुऐ अपने फैसले मे कहा-" बाल दीक्षा किसी प्रकार का अपराध नही है। ।" इस फैसले के साथ ही अदालत ने वाद को खारिज कर दिया।
और आरोपित किए गए पक्ष को छूट दि है कि वह वाद दायर करने वाले अधिवक्ताओ के खिलाफ कार्वाही करने के लिऐ स्वतन्त्र है।"
मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रट श्री बृजेन्द्र कुमार ने १४ से १५ पृष्ठ के अपने फैसले मे कहा-
"जैन धर्म मे बालको को दीक्षा दिलवाना किशोर न्याय अधिनियम या अन्य किसी भी भारतीय कानुन के तहत अपराध नही है, बल्कि यह पुर्णतया जैन धर्म कि परिपाटि है। प्रत्येक नागरिक को भारतीय सविधान के अनुच्छेद २५ के तहत अपने धर्म को मानने और धार्मिक कार्य करने का मुल अधिकार प्राप्त है। कोई भी कानुन या व्यक्ती उसे रोक नही सकता है।"
न्यायलय ने अपने निर्णय से सविधान के प्रावधानो एव उच्च न्यायालय , सर्वोच्च न्यायालय के दृष्टान्तो की व्याख्या करते हुऐ यह निर्णय किया-
"किसी के घर जाकर भोजन लेना-यह जैन धर्म मे भोजन ग्रहण करनी करने की धार्मिक परिपाटि है। इसे भिक्षावृति कहने से जैन धर्मावलम्बियो का अपमान होता है। जैन आचार्यो के सरक्षण मे बच्चो को भेजना किसी भी प्रकार से बच्चो को लावारिस छोड देने कीश्रैणी मे नही आता॥"
दीक्षा भारतीय सस्कृति का प्राणतत्व है। वह आदिकाल से चली आ रही है। जब प्रबल वैराग्य हो जाऐ तभी दीक्षा ली जा सकती है। इससे आयु का कोई बन्धन नही होता।
न्यायाधीश ने यह माना- परिवादी पेशे से वकील है। उनकी विधिक एवम नैतिक जिम्मेदारी थी कि वे वाद दायर करने से पुर्व जैन धर्म एवम जैन साहित्य का अध्यन करते। उनके द्वारा बिना पुर्व सावधानी वाद पेश करने से स्पष्ट है कि उक्त अधिवक्ताओ ने स्वय को प्रचारित प्रसारित करने कि मशा रखी।
उल्लेखनीय है २ मई २००७ को सेमड (राजस्थान) मे चार बालको कि दीक्षा सम्पन्न हुई थी। अधिवक्ता हुकुमराज सिह राणावत एवम कन्हैयालाल टॉक ने बालको के माता पिता, नाना, आचार्य महाप्रज्ञ, युवाचार्य मुदितकुमारजी, साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभाजी एवम जैनसभा सेमड के पदाधिकारीओ को मुल्जमी बताते हुऐ फोजदारी प्रकरण पेश किया था श्री श्वेताम्बर तेरापथी महासभा ने तेरापन्थ समाज की और से वरिष्ट अधिवक्ता श्री कन्हैयालालाजी चोरडीयॉ को पैरवी के लिऐ अपनी और से वकील नियुक्त किया था।
बाल दीक्षा पर शायद और अधिक कुछ लिखने कि जरुरत महसुस नही होती है। क्यो कि भारतीय कानुन, भारतीय प्रशासन, भारतिय सस्कृती इसबात कि ठोस पैरवी करती है कि बस और नही ।
मैने श्री रुपेशजी के सावलो का समाधान इमनदारी से पेश करने कि कोशिश कि है जिसमे सारे ही ठोस सन्दर्भो के साथ भारतीय न्यायालय के फैसले को भी मेरे अन्य जैन- अजैन जिज्ञासुओ के लिऐ पेश किया।
जय जिनेन्द्र
एक सुन्दर प्रयास किया है.
ऐसा ही लेख संथारें को आत्महत्या बताए जाने पर मैने लिखा था. दो तीन साल पहले.
आपसी समझ के लिए प्रश्नोत्तर होने चाहिए.
जैन होते हुए भी बालदिक्षा का विकल्प होना चाहिए ऐसा मेरा मानना है.
आपने इस आलेख द्वारा एक नजरिया सामने रखा है. जो कई बातों को स्पष्ट करता है.
रामराम.
ये वाद तो शुरू में ही खारिज कर देने योग्य था..हमारे देश में शुरू से ही आश्रम व्यवस्था रही है...!अब ये अपराध कैसे हो गया?फिर शिक्षा-दीक्षा और गुरु शिष्य परम्परा.. भी कोई वाद का विषय है? इन बातों को कानून में खीचना ठीक.. नहीं है...
टीवी पर तो देखा ही था, यहाँ पर इस नजरिये से भी जाना. आपका आभार.
इसी तरह कलम चलती रहे और दीपशिखा बन कर उजाला बिखराती रहे यही सद्` आशा है
ध्यान दीलवाने का आभार ...
ना पढती तब अफसोस रहता ..
निश्चय ही बाल दीक्षा को अपराध नहीं माना जा सकता।
पर कालांतर में सन्यासी का गृहस्थ बनना न जैन समाज में न तथाकथित हिन्दू समाज में सहज माना जाता है। इस पर सोच में बदलाव आना चाहिये।
वैराग्य इर्रिवर्सिबल प्रॉसेस क्यों हो?
bal diksha se hum bhi khilaaf hai.. aur ye jo huaa shai huaa... masoom bacche jin ke khelne ke din hai woh itni kadi zindagi kaise bita sakte hai, na-samaj baccho kel iye diksha ki umar tay karna hi sahi hai.
aap ko ek award diya hai, plzz yaha dekhiye
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