क्या ई,पू, मे भी था विदेशो मे जैन घर्म प्रचार - प्रसार

Posted: 21 अप्रैल 2009

भगवान महावीर स्वामी

जैन साहित्य के अनुशार भगवान ऋषभ्, पार्श्व और महावीर ने अनार्य देशो मे विहार किया था। सुत्रकृतान्ग के श्लोक से अनार्य का अर्थ भाषा-भेद भी फलित होता है। इस अर्थ का छाया मे हम कह सकते है कि चार तीर्थकरो ने उन देशो मे विहार किया,जिनकी भाषा उनके मुख्य विहार्-क्षेत्र से भिन्न थी। भगवान ऋषभ ने बहली (बैक्टीया, बलख), अण्डबइल्ला ( अटक प्रदेश), यवन ( यूनान्) , सुवर्णभूमि ( सुमात्रा), पण्हव आदि देशो मे विहार किया। पण्हव का सम्बन्ध प्राचीन पार्थिया ( वर्तमान ईरान का भाग) से है या पल्हव से, यह निश्चित नही कहा सकता ।

भगवान अष्टनेमी दक्षिणापथ के मलय देश मे गये थे। जब द्वारका - दहन हुआ था तब अरिष्टनेमि पहल्व नामक अनार्य देश मे थे। भगवान पार्श्वनाथ ने कुरु, काशी, अवन्ती, पुण्ड्र्, मालव,अन्ग, बन्ग, कलिग, पॉचाल्, मगध,विदर्भ, भद्र, दशार्ण, सोराष्ट्र,कर्णाटक,मेवाड, लाट, द्राविड, काश्मिर, कच्छ, शाक, पल्लव, वत्स, आभीर आदि देशो मे विहार किया था। दक्षिण मे कर्नाटक, कोकण, पल्ल्व, द्रविड आदि उअस समय अनार्य माने जाते थे।शाक भी अनार्य प्रदेश है। इसकी पहचान शाक्यदेश या शाक्य-द्विप से हो सकती है। शाक्य भुमि नेपाल की उपत्यका मे है। वहॉ भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। भगवान बुद्ध का चाचा स्वय भगवान पार्श्वनाथ का श्रावक था। भारत और शाक्य-प्रदेश का बहुत प्राचीन-काल से सम्बन्ध रहा है।

भगवान महावीर वज्रभुमि, सुम्हभूमि, दृढभूमि, आदि अनेक अनार्य-प्रदेशो मे गये थे। वे बगाल की पुर्वी सीमा तक भी गये थे।

जय जिनेन्द्र

उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त एवम अफगानिस्थान मे विपुल सख्या मे जैन श्रमण विहार करते थे।

जैन श्रावक समुन्द्र पार जाते थे। उनकि समुन्द्र यात्रा एवम विदेश व्यापार के अनेक प्रमाण मिलते है। लका मे जैन श्रावक थे, इसका उलेख बुद्ध साहित्य मे भी मिलता है। महावन्श के अनुशार ई,पू, ४३० मे जब अनुराधापु‍र बसा, तब जैन श्रावक विधमान थे। वहॉ अराधनापुर के राजा पाण्डुकामय ज्योतिय निग्ग्ठ के लिऐ घर बनवाया। उसी स्थान पर गिरी नामक निग्गठ रहते थे। राजा पाण्डुकामय ने कुम्भण्ड निग्गठ के लिये एक देवालय भी बनाया था।

जैन श्रमण भी सुदूर देशो तक विहार करते थे। ई,पू,२५ मे पाण्डया राजा ने अगस्टस सीजर के दरबार मे दूत भेजे थे। उनके साथ श्रमण भी युनान गये थे।

ईसा के पुर्व से ईराक,शाम और फिलिस्तीन मे जैन मुनि और बोद्ध- भिक्षु सैकडो की सख्या मे फैले हुऐ थे। पश्चिम एशिया, मिस्र, युनान, और इथोपिया के पहाडो और जगलो मे उन दिनो अनगिनित भारतीय साधु रहते थे, जो अपने त्याग और विधा के लिऐ प्रसिद्ध थे। ये साधु वस्त्रो तक का त्याग किये हुऐ थे।

युनानी लेखक मिस्र,एबीसीनिया,इथोपिया,मे दिगम्बर मुनियो का अस्तित्व बताते है।

आद्र देश का राजकुमार आर्द्र भगवान महावीर के सघ मे प्रव्रजित हुआ था। अरबिस्थान के दक्षिण मे एडन बन्दर वाले प्रदेश को आर्द्र्-देश कहा जाता था। कुछ विद्वान इटली के एड्याटिक समुन्द्री किनारे वाले प्रदेश को आर्द्र-देश कहते है।

बेबीलोनिया मे जैन धर्म का प्रचार बोद्ध धर्म का प्रचार होने से पहले हो चुका था। इसकी सूचना बावेरु-जातक से मिलती है।

तेरापंथ के आधर प्रवतक आचर्य भिक्सु

श्री विश्वम्भरनाथ पाण्डे ने लिखा है- " इन साधुओ के त्याग का प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियो पर विशेष रुप से पडा। इन आदर्शो का पालन करने वालो कि , यहूदियो मे एक खास जमात बन गई जो "एस्मिनी" कहलाती थी। इन लोगो ने यहूदी धर्म के कर्मकाण्डो का पालन त्याग दिया था।

ये बस्ती से दुर जगलो मे कुटीर बनाकर रहते थे। जैन मुनियो कि तरह अहिसा को अपना खास धर्म मानते थे। मॉस खाने से उन्हे बेहद पहरेज था। वे कठोरी एवम सयमी जीवन यापन करते थे। पैसा एवम धन को छूने तक से इन्कार करते। अपरिग्रह के सिद्धान्त को मानते थे। मिस्र मे इन्ही तपस्वियो को "थेरापुते" कहा जाता था। " थेरापूते" का अर्थ मोनी- अपरिग्रही है।

कालकाचार्य सुवर्णभूति (सुमात्रा) मे गये थे। उनके प्रशिष्य श्रमणसागर अपने अपने गण सहित वहॉ पहले ही विधयमान थे।

कोचद्वीप सिहलद्वीप ( लका) हन्सदीप मे भगवान सुमतिनाथ की पादुकाए थी। पारकर देश और कासहृद मे भगवान ऋषभदेव की प्रतीमा थी।

उपर सक्षिप्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुच सकते है कि जैन धर्म का प्रसार हिन्दुस्थान के बाहर देशो मे भी हुआ था। उत्तरवर्ती श्रमणो की उपेक्षा व अन्याय परिस्थितियो के कारण वह वहॉ स्थायी ना रह सका।

लेखक आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ( जैन परम्परा का इतिहास)


नोट- कल आप इसी कडी मे वर्तमान मे विदेशो मे जैन धर्म के प्रचार - प्रसार मे योगदान एवम उसके महत्व क्या है।
विशेष कल हमको मिलवाऐगे के डॉक्टर पकज जैन से, डा. पंकज जॆन अगस्त २००९ से हिन्दी, संस्कृत ऒर जॆन धर्म के नये कोर्स नोर्थ केरोलिना विश्वविद्यालय, यू.एस.ए. मे जैन धर्म के बारे मे पढा रहे है।
दुसरे हे यु के से लावण्याजी, आप तो जानते ही है कि लावण्याजी हिन्दी ब्लोग जगत कि प्रसिद्ध एवम जानी पहचानी सख्सियत है।



11 comments:

  1. Ashok Pandey 21 अप्रैल, 2009

    बहुत अच्‍छी जानकारियां दे रहे हें आप,आभार।

  2. ताऊ रामपुरिया 21 अप्रैल, 2009

    बहुत धन्यवाद आपको इन नायाब जानकारियों को हम तक पहुंचाने के लिये.

    रामराम.

  3. लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` 21 अप्रैल, 2009

    मैँ यु. के. मेँ नहीँ उत्तर अमरीका मेँ हूँ -
    - लावण्या

  4. L.Goswami 21 अप्रैल, 2009

    gyanvardhak jankari dene ka bahut dhnyawaad

  5. संजय बेंगाणी 21 अप्रैल, 2009

    जैन परम्परा का इतिहास अच्छी जानकारी देती किताब है. आज भले ही जैन सुपर अल्पसंख्यक हो, भूतकाल में अच्छा दबदबा था.

  6. P.N. Subramanian 21 अप्रैल, 2009

    बहुत ही सुन्दर जानकारी. आभार.

  7. डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) 22 अप्रैल, 2009

    तीन छोटे सवाल जो कि मुझसे करे गए थे परन्तु मेरे पास उत्तर नहीं था अब आपसे जान सकता हूं---
    १. भारत के स्वाधीनता संग्राम से जुड़े दस जैन क्रान्तिकारियों के नाम बताइये।
    २.मुसलमान कुरान शरीफ़,हिन्दू भगवदगीता, क्रिस्तान बाइबिल की अदालत में सत्य बोलने के लिये शपथ लेते हैं जैन किस ग्रन्थ की शपथ लेते हैं यदि भगवदगीता की ही शपथ लेते हैं तो क्यों हिंदुओं से अलग मानते हैं खुद को?
    ३.www.jagathitkarni.org नामक वेबसाइट चलाने वाले क्या कह् रहे हैं और कोई इनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं करवाता?
    मेहरबानी करके इन शंकाओं का समाधान करें।
    सादर
    डा.रूपेश श्रीवास्तव

  8. Gyan Dutt Pandey 22 अप्रैल, 2009

    यहूदियो मे एक खास जमात बन गई जो "एस्मिनी" कहलाती थी। इन लोगो ने यहूदी धर्म के कर्मकाण्डो का पालन त्याग दिया था।---------
    सही में?! यह तो नई जानकारी है!

  9. Alpana Verma 22 अप्रैल, 2009

    मेरे लिए तो यह बिलकुल नयी जानकारी है.
    इस क्षेत्र में ज्ञान भी न के बराबर ही है.
    बहुत आभार इस जानकारी के लिए.

  10. बेनामी 12 अगस्त, 2012

    Thanks for information

  11. Unknown 29 जनवरी, 2013

    book: The Assembly of listeners
    Jains in Society
    http://books.google.co.in/books?id=LW8czr_HzzwC&pg=PA157&dq=anup+mandal&hl=en&sa=X&ei=jaUIUaCOIIfUrQfX64HgAg&ved=0CC0Q6AEwAA#v=onepage&q=anup%20mandal&f=false

    it clearly states that anoop mandal was banned in all princely states but Britishers allowed them to grow inorder to counter the Praja Mandal (freedom movement organisation) mainly headed by Jains.
    This shows how patriotic jains have been. Hatred against Jains is completely based on jealousy and brainwashing of people.
    Growup guys.

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