सस्कृत वाड्मय का एक सुन्दर सूक्त है। "दैवायत्त कुले जन्म, 'मदायन्त तु पोरुषम" किस कुल मे जन्म लेना, यह भाग्य के अधीन होता है किन्तु पुरुषार्थ करना आदमी के वश की बात है। आचार्य महाप्रज्ञजी ने पुरुषार्थ का जीवन जीया है, और भाग्य ने उनका साथ निभाया है। आचार्य महाप्रज्ञजी के पिता का नाम श्री तोलारामजी चोरडीया और माता का नाम बालुजी था। बालक, नथमल नाम से पहचाना जाने लगा। जीवन के प्रथम वर्ष मे ही पिता क साया से उठ गया, पालन पोषण का सारा जिम्मा मातुश्री बालुजी पर आ गया। मातुश्री बालुजी धार्मिक विचारो वाली महिला थी। प्रतिदिन पश्चिमरात्रि*१ मे जल्दी उठकर सामायिक*२ करती थी। बालक नथमल (आचार्य महाप्रज्ञजी) सोये-सोये माता के भिक्षुस्वामी*३ कि स्तुती एवम जयाआचार्य*४ द्वारा रचित चोबीसी, के सान्गान को सुनते थे। भजनो का बार-बार श्रवण से बालक नथमल के मन मे आचार्य भिक्षु के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न हो गया। साधु-साधवीयो के योग से बालक और मॉ के मन मे वैराग्य का बीजान्कुर प्रस्फुटित हो गया। दोनो ने सयन्त जीवन जीने का निश्चय किया। निश्चय क्रियान्वित मे परिवर्तित हुआ विक्रम सवत १९८७ माध शुक्ला दशमी को। जैन धर्म के श्वेताम्बर तेरापन्थ सम्प्रादय के तत्कालीन आठवे आचार्य कालूगणी के पास मॉ-बेटा दोनो एक साथ, राजस्थान के चूरु जिले के सरदारशहर ग्राम मे दीक्षित हो गये। बालक नथमल मुनि नथमल बन गया। नवदीक्षित मुनि के शिक्षण-प्रशिक्षण का दायित्त्व मुनि तुलसी ( नवम आचार्य) पर था। उन्होने मुनी नथमल को प्रशिक्षित करने मे अपनी शक्ति को नोयोजित किया।
मुनिश्री नथमल ने अध्यन के क्षेत्र मे अच्छा विकास किया। सस्कृत भाषा का गहन अध्यन किया। हिन्दी भाषा पर अधिकार प्राप्त किया। अग्रेजी एवम प्राकृत भाषा को भी अपने अध्यन का विषय बनाया।
विक्रम सवत २०२२ माध शुक्ला ५ को आचार्य तुलसी ने मुनिश्री नथमलजी को "निकाय सचिव का दायित्व सोपा। जो तेरापन्थ धर्म सध मे गोरिमापुर्ण स्थान था।
विक्रम सवत २०३५ माध शुक्ला सप्तमी, राजलदेसर ग्राम (राज) मे तेरापन्थ धर्म सध के आठवे आचार्य युगप्रधान, अणुव्रत अधिशास्ता, आचार्य तुलसी ने निकाय सचिव मुनिश्री नथमलजी को अपना उतराधिकारी धोषित किया और युवाचार्य (भावीआचार्य) के रुप मे प्रतिष्ठित किया। पन्द्रह वर्षो तक युवाचार्य श्री नथमलजी (महाप्रज्ञजी) द्वारा युवाचार्य पद को सुशोभित करने का मोका मिला। विक्रम सवत २०५० माधशुक्ला सप्तमी को राजस्थान के सुजानगढ नगर मे आचार्य तुलसी ने एक लाख लोगो कि उपस्थिति मे युवाचार्य महाप्रज्ञजी को स्वय का आचार्य पद प्रदान करते हुऐ कहा "भिक्षु स्वामी( तेरापन्थ के निर्माता एवम प्रथम आचार्य) व भारमलजी स्वामीजी( तेरापन्थ के दुसरे आचार्य) साथ-साथ रहे। तुम्हे युवाचार्य बनाऐ १५ वर्ष हो गये है पर पुरा कार्य मै ही कर रहा हू। तुम कार्यक्षम होते हुऐ भी दूसरे कार्यो मे लगे रहे । इसलिए अब मै आचार्यपद तुम्हे सोप रहा हू, हस्तान्तरित कर रहा हू। मै इस दायित्व को तुम्हे सोपकर अपनी साधना और मानवजाति के लिऐ व्यापक कार्यक्रम मे लग रहा हू। "
नवमनोनित जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ सघ के ९५० साधु- साध्वीयो-मुमुक्ष -मुमुक्षिकाऐ एवम करोडो श्रावको के दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने अपने गुरु को तत्काल "गणाघिपती" सज्ञा से सज्ञापित किया। जैन धर्म मे भगवान महावीर स्वामी के काल से अब तक मे यह सर्वणीम युग बन गया, जब आचार्य तुलसी "गणाघिपती" पद को सुशोभित कर रहे थे। जैन इतिहास मे यह विरली घटना थी।
गणाधिपति तुलसी के निर्देशानुसार श्री महाप्रज्ञ ने "प्रेक्षा-ध्यान पद्धति",का अनुसधान किया। शिक्षा जगत के लिऐ "जीवन-विज्ञान" का प्रणयन किया। अहिसा एवम शान्ति मे विश्वास रखने वाले व्यक्तियो और सस्थाओ को साथ जोडकर अहिन्सा के कार्यक्रमो को प्रभावी बनाने के लिऐ आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने "अहिसा-समन्वय" प्रारम्भ किया।
५ दिसम्बर२००१ सुजानगढ नगर से "अहिसा-यात्रा" का शुभारम्भ किया उसके दो उदेशय निर्धारित किये गऐ- (१) अहिसक चेतना का जागरण, (२) नैतिक मुल्यो का विकास। |
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आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने अध्यन के साथ साहित्य- सृजन का कार्य भी प्रारम्भ कर दिया। पुज्य गुरुदेव गणाधिपति तुलसी के वाचना प्रमुखत्व मे जैन आगमो के सम्पादन का कार्य शुरु किया । यह कार्य काफी कुछ सम्पन्न हो चुका है। इसके अतिरिक्त योग,ध्यान,दर्शन आदि अनेक विषयो पर साहित्य तेरापन्थ धर्म सघ मे प्रचुर मात्रा मे उपल्ब्ध है। आचार्य श्री महाप्रज्ञजी का साहित्य अध्यात्म और विज्ञान का समन्वित रुप है। उनके मोलिक विचारो ने सामान्य जनता को ही नही, देश-विदेश के शीर्षस्थ महानुभवो और अपने अपने धर्म सम्प्रदायो मे विश्वास रखने वालो को प्रभावित किया .
श्री महाप्रज्ञ ने तीन उपासनाओ के द्वारा अपने व्यक्तित्व व कर्तृत्व को मुखर बनाया है। ज्ञानपासना, आनन्दोपासना और शक्त्युपासना। * ज्ञानपासना:- मे उन्होने ज्ञान की अविराम आराधना की है। आगमो, विभिन्न शास्त्रो का अनेक बार स्वाध्याय किया है। और अनेक रत्नो को प्राप्त किया है। इतना ही नही उन प्राप्त रत्नो को निरन्तर बॉटने का प्रयत्न भी कर रहे है। *स्वाध्याय और ध्यानः- के द्वारा भी महाप्रज्ञ ने जिस आनन्द को प्राप्त किया है अथवा आनन्द की उपासना की है, वह दुर्लभ है। *श्री महाप्रज्ञ ने शक्ती की उपासना और साधना के लिऐ दीर्धकाल तक अनेक मन्त्रो कि साधना की और अभी भी कर रहे है। जीवन मे शक्ति का बहुत महत्व होता है । शक्तिशाली व्यक्ति ही दुनिया को कुछ दे सकता है। शक्ति की उपासना सर्वत्र और काम्य होती है। |
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श्री महाप्रज्ञ का सोम्य एवम शान्त स्वभाव तथा मृदुतापूर्ण व्यवहार उनकी विशिष्ट सन्तता का परिचायक है, और अहिसामय प्रशासन का एक निदर्शन है। उनके नेतृत्व मे तेरापन्थ धर्म-सन्घ ने एक विशिष्ट पहचान बनाई है। ऐसे महापुरुष की छत्र्-छाया प्राप्त कर सघ धन्यता का अनुभव कर रहा है।
श्री महाप्रज्ञ एक बहु-आयामी व्यक्तित्व के घनी है। उनसे जनता को जीवनौपयोगी पथदर्शन प्राप्त हो रहा है और लम्बे काल तक प्राप्त होता रहे।
नोटः- जैन साधुओ-साध्वीयो का समस्त यात्रा पैदल होती है। मात्राओ-शब्दो- वचनो के लिखाई मे त्रुटी हो तो मै क्षमा चाहता हु। |
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अच्चा लगा ऐसे महनीय व्यक्तित्व के बारे में पढ़कर !
वाकई श्रेष्ठ .
जैन धर्म में तपस्वियों/साधु-संतों के प्रति श्रद्धा भाव बरकरार है। यह बड़े संतोष का विषय है। अन्यथा हिन्दुत्व का यत्र-तत्र पराभव तप त्याग और स्वाध्याय के प्रति उपेक्षा और भौतिकता में गहन होती आसक्ति में दीखता है।
आपने पोस्ट अच्छी लिखी है जी।
बहुत ही अच्छा लगा, जेन धर्म के तपस्वियों/साधु-संतों के बारे जानकार.
धन्यवाद
महान आत्मा दुसरों का कल्याण करने ही अवतरित होती हैं. धन्यवाद इस लेख के लिये.
रामराम.
Param Poojniya Acharya Mahapragya Ji is a big dignitary. His ideas are eye openers for everyone. you can listen on media and read his articles in print media and I guarantee it that if one follows the path shown by MAHAPRAGYA JI , he or she can learn how to live life.
DR. MUKESH RAGHAV
मेरे पति दीपक जैन धर्म से हैँ और आपके आलेख को उन्हेँ भी पढवा रही हूँ आचार्य श्री जी के बारे मेँ जानकारी देने के लिये आपका हार्दिक आभार -
- लावण्या
dateMon, Apr 6, 2009 at 1:23 AM
जानकर अच्छा लगा कि आप पत्रकार है
क्लिक करे
http://citykingnews.blogspot.com/2009/03/blog-post_1886.html