संवत्सरी का आत्म चितन

Posted: 01 सितंबर 2011
संवत्सरी का आत्म चितन 


खामेमि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्व-भूएसु, वेरं मज्झ न केणइ।।

मनुष्य बहिमुर्खी है ! उसकी सभी इन्द्रिया बहिमुखी होने के कारण मन के संकेत पर मनुष्य बाहर ही बाहर देखता है, दुसरो के गुण दोषों की मीमासा मे ही अपना अधिक समय लगाता है ! अंतर मे झाकने की उसे आदत नही, अभ्यास नही ! पर्युषण पर्व के आठ अथवा दस दिन बाहरी भागदौड,  बहिमुखता त्याग कर अंतरमुखी बनने के दिन है ! संवत्सरी  का परम पावन तीर्थ क्षमा , मैत्री एव प्रेम की त्रिवेणी  मे स्नान कर शुद्ध होने का क्षण है !

आएये, हम अपने आपको निहारे -देखे ! दुसरो के अवगुण बहुत देखे ! दुसरो मे बुराइयों और कमिया ढूढने मे ही सारा समय और शक्ति लगादी , किन्तु अपने अंतर मे झांककर हमने नही देखा  की कितनी कषाय रूपी कचरा एकत्र होता जा रहा है !जांचा ही नही की कितनी गांठे ही गांठे हमे रुग्ण बनाती जा रही है ! हमने महसूस ही नही किया की हमारी तथाकथित धार्मिकता ढोंग , पाखंड आदि विकृतियों से सडकर बदबू बिखेर रही है ! इसलिए आइये , पर्युषण के पावन पर्व पर संवत्सरी के दिन प्राणीमात्र से  क्षमायाचना  करते एवम क्षमा देते हुए आत्म निरिक्षण कर स्वय को मांजकर पवित्र बनाये !!

कही ज्ञान  का अंहकार तो मुझ मे नही बढ़ रहा है ? कही पद और सत्ता के नशे मे तो मै झूम नही रहा ? वाणी और लेखनी से दो शब्द लिख बोल सकने की टूटी - फूटी आदत को लेकर अभिमान मे तो नही झूल रहा ? धन का दर्प, रूप यौवन का गर्व मुझे भटका तो नही रहा है ?  मैंने अपने अंहवश , लोभवश 
पद पर चिपके रहने की भावना से आस-पास विरोधियो की भीड़ तो एकत्र नही कर ली है न ? मेरी सामायिक , मेरी तपस्या और त्याग कही मुझे महान और दुसरो को तुच्छ तो नही समझने लगे है , सार्वजनिक, परिवारिक एवम व्यावहारिक जीवन मे मै किसी का दमन , शोषण और उत्पीडन तो नही कर रहा हूँ !

अनेक प्रश्न है , अनेक कोण है, जिनके समाधान और आयामों को हमे पूरी ईमानदारी के साथ ढूढना होगा ! स्वय के साथ भी हम छल करते है ! दुसरो को ठगते , धोखा देते है लिकिन अपने आपको भी भुलावे मै रखने, ठगने  मै हम माहिर हो गए है !  हमारे मन मै कुछ है, जुबान पर कुछ और व्यवहार मै कुछ ! कथनी और करनी की समानता खो चुका आजका आदमी परायो को ही नही बल्कि खुद को भी ठगता है ! अंतर मै कपट, लोभ, मोह और माया से भरा हुआ मै जब बाहर वीतराग , उदार बनने का ढोंग करता हूँ, तो  पर्युषण  पर्व में संवत्सरी के दिन पश्चाताप से भर उठता हूँ! अभिमान को स्वाभिमान कहता हूँ, लोभ को जरूरत बताता हूँ और कपट को कुशलता मानकर जीवन भर खुश होता रहा हूँ ! ढगाई चतुराई मानी जाती है , छल डिप्लोमेसी कहलाता है, हिंसा  क्रान्ति के नाम पर बेचीं जाती है ! तो लगता है की आइये हम सब निज को निहारे, पूर्ण इमानदारी से निहारे और निर्मल बने ! हमारे जीवन में दम्भ न हो----हमारे मन में गांठे न रहे और हम मुखौटा लगाकर नकली जिन्दगी जीने में शान न समझे !"

 हम पर्युषण की पावन बेला में अंतर ह्रदय से अपनी कमियों, दुर्बलताओ को स्वीकार ते हुए संकल्प करते है की क्रमश : इनसे मुक्त  होने के लिए जागरूक रहेंगे ! सार्वजनिक जीवन में प्रतिवर्ष सैकड़ो  व्यक्तियों से मिलना होता  है , सभा समारोह में जाना, बोलना पड़ता है , लेखन पत्रकारिता का दायित्व भी है !पूज्य आचार्यो , साधू- साध्वियो एवम चारित्रिक धार्मिक आत्माओं के चरणों में बैठने के सुअवसर भी मिलते  रहते है ! समाज का  एवम सोसल नेटवर्किंग फेस बुक के पेज जैन तेरापंथ आई प्राउड टू बी / जैन तेरापंथ न्यूज ब्योरो  एवम हिंदी ब्लॉग हे प्रभु यह तेरापंथ के हजारो दोस्तों का असीम प्यार सम्मान और स्नेह मिला है , मिल रहा है ! 

अत: यदि स्नेह और प्यार के अभिमान में हमने किसी की अवेहलना की हो, किसी को तुच्छ समझा हो तो क्षमा याचना ! पूज्य आचार्यो एवम साधू साध्वियो , समण- समणी, उपासक उपासिका , के प्रति अविनय हुआ हो , तो विनय पूर्वक क्षमा याचना ! भाषण लेखन, रूप सत्ता , पद का अभिमान अथवा प्रमाद आया हो तो  तस मिच्छामी दुक्द्दम !! सम्पादकीय   लेखन में भावावेश में आकर मेने किसी व्यक्ति संस्था , धर्म आदि के प्रति कटु शब्द   या कटु सत्य भी लिखा हो तो विनयपूर्वक क्षमा याचना !

निज को निहारना बड़ा कठिन है ! स्वय के साथ पक्षपात से बचना, अत्यंत दुष्कर है ! हमने सामाजिक , धार्मिक, साहित्यिक क्षेत्र के व्यक्तियों को जाने अनजाने तन मन से किसी प्रकार का क्लेश पहुचाया हो तो ऋजुतापूर्वक  हम क्षमा याचना करते है ! क्षमा मागना एक पक्ष है  और क्षमा देना दुसरा पक्ष  ! दोनों ही पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है ! किसी से विनय पूर्वक झुककर अपनी भूल को स्वीकार करते हुए क्षमा मागना वीरता है , किन्तु क्षमा देना धीरता , उदारता  और सरलता है  ! हम अपनी और से सबके प्रति क्षमा भाव रखते हुए मैत्री की कामना करते है ! उनसे मैत्री और प्रेम भावना भाते है !

हमारा, "मै" हमे बहुत भटकता है , परेशान करता है कर्मो का बंधन कराता है ! आइये , हम कामना करे की हमारा यह  " मै " मिटे और  "हम " जन्मे ! हम परस्पर एक दुसरे से विगत की भूलो के लिए क्षमा देते लेते हुए भविष्य के लिए संकल्प करे की केवल पर्युषण  के दिनों में ही नही बल्कि प्रतिदिन निज को निहारते रहेंगे ! 

खामेमि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्व-भूएसु, वेरं मज्झ न केणइ।।

-लेखक याचक 
(महावीर बी सेमलानी "भारती ")
जैन तेरापंथ न्यूज ब्योरो (मुम्बई ) 
हे प्रभु यह तेरापंथ (हिंदी ब्लॉग )
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2 comments:

  1. सुज्ञ 02 सितंबर, 2011

    खमत खामणा

  2. रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक 06 अक्तूबर, 2011

    मैं आपके ब्लॉग का अनुसरण कर्त्ता नहीं बन पा रहा हूँ. काफी अच्छा है.

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