जैन:प्राचीन इतिहास-20

Posted: 16 फ़रवरी 2010
गतांक से आगे.......
गुजरात-काटियाबाड़ में जैनधर्म -
ई. सन् की प्रथम शताब्दी के लगभग काठियाबाड़ में भी एक जैन केन्द्र सुप्रतिष्ठित हुआ पाया जाता है। षट्खंडागम सूत्रों की रचना का जो इतिहास उसके टीकाकार वीरसेनाचार्य ने दिया है, उसके अनुसार वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष की श्रुतज्ञानी आचार्यों की अविच्छिन्न परम्परा के कुछ काल पश्चात् धरसेनाचार्य हुए, जो गिरिनगर (गिरिनार, काठियाबाड़) की चन्द्रगुफा में रहते थे। वहीं उन्होंने पुष्पदंत और भूतवलि नामक आचार्यों को बुलवाकर उन्हें वह ज्ञान प्रदान किया, जिसके आधार पर उन्होंने पश्चात् द्रविड़ देश में जाकर षट्खंडागम की सूत्र-रूप रचना की। जूनागढ़ के समीप अत्यन्त प्राचीन कुछ गुफाओं का पता चला है जो अब बाबा-प्यारा का मठ कहलाती हैं। उनके समीप की एक गुफा में दो खंडित शिलालेख भी मिले हैं जो उनमें निर्दिष्ट क्षत्रपवंशी राजाओं के नामों के आधार से तथा अपनी लिपि पर से ई. सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के सिद्ध होते हैं। मैंने अपने एक लेख में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सम्भवतः यही गुफा धरसेनाचार्य की निवासभूमि थी और सम्भवतः वहीं उनका समाधिमरण हुआ, जिसकी ही स्मृति में वह लेख लिखा गया हो तो आश्चर्य नहीं। लेख जयदामन् के पौत्र रुद्रसिंह (प्र.) का प्रतीत होता है। खंडित होने से लेख का पूरा अर्थ तो नहीं लगाया जा सकता, तथापि उसमें जो केवलज्ञान, जरामरण से मुक्ति आदि शब्द स्पष्ट पढ़े जाते हैं, उनसे उसका किसी महान् जैनाचार्य की तपस्या व समाधिमरण से संबंध स्पष्ट है। उस गुफा में अंकित स्वस्तिक, भद्रासन, मीनयुगल आदि चिह्न भी उसके जैनत्व को सिद्ध करते हैं। ढंक नामक स्थान पर की गुफाएं और उनमें की ऋषभ, पार्श्व, महावीर व अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएं भी उसी काल की प्रतीत होती हैं। गिरनार में धरसेनाचार्य का उपदेश ग्रहण कर पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों के द्रविड़ देश को जाने और वहीं आगम की सूत्र-रूप रचना करने के वृत्तान्त से यह भी सिद्ध होता है कि उक्त काल में काठियावाड़-गुजरात से लेकर सुदूर तामिल प्रदेश तक जैन मुनियों का निर्बाध गमनागमन हुआ करता था।

आगामी शताब्दियों में गुजरात में जैनधर्म का उत्तरोत्तर प्रभाव बढ़ता हुआ पाया जाता है। यहाँ वीर निर्वाण के ९८० वर्ष पश्चात् वलभीनगर में क्षमाश्रमण देवर्द्धिगणि की अध्यक्षता में जैन मुनियों का एक विशाल सम्मेलन हुआ जिसमें जैन आगम के अंगोपांग आदि वे ४५-५० ग्रंथ संकलित किये गये जो श्वेताम्बर परम्परा में सर्वोपरि प्रमाणभूत माने जाते हैं, और जो अर्द्धमागधी प्राकृत की अद्वितीय उपलभ्य रचनाएं हैं। सातवीं शती के दो गुर्जनरेशों, जयभट (प्र.) और दड्ड (द्वि.) के दान पत्रों में जो उनके वीतराग और प्रशान्तराग विशेषण पाये जाते हैं, वे उनके जैनधर्मावलम्बित्व को नहीं तो जैनानुराग को अवश्य प्रकट करते हैं। इस प्रदेश के चावडा (चापोत्कट) राजवंश के संस्थापक वनराज के जैनधर्म के साथ सम्बन्ध और उसके विशेष प्रोत्साहन के प्रमाण मिलते हैं। इस वंश के प्रतापी नरेन्द्र मूलराज ने अपनी राजधानी अनहिलवाड़ा में मूलवसतिका नामक जैन मंदिर बनवाया, जो अब भी विद्यमान है। श्रीचन्द्र कवि ने अपनी कथाकोष नामक अपभ्रंश रचना की प्रशस्ति में कहा है कि मूलराज का धर्मस्थापनीय गोष्ठिक प्राग्वाटवंशी सज्जन नामक विद्वान् था, और उसी के पुत्र कृष्ण के कुटुंब के धर्मोपदेश निमित्त कुंदकुंदान्वयी मुनि सहस्रकीर्ति के शिष्य श्रीचन्द्र ने उक्त ग्रंथ लिखा। मुनि सहस्रकीर्ति के संबंध में यह भी कहा गया है कि उनके चरणों की वंदना गांगेय, भोजदेव आदि नरेश करते थे। अनुमानतः गांगेय से चेदि के कलचुरि नरेश का, तथा भोजदेव से उस नाम के परमारवंशी मालवा के राजा से अभिप्राय है। उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला (ई. सं. ७७८) के अनुसार गुप्तवंशी आचार्य हरिगुप्त यवन राज तोरमाण (हूणवंशीय) के गुरू थे और चन्द्रभागा नदी के समीप स्थित राजधानी पवैया (पंजाब) में ही रहते थे। हरिगुप्त के शिष्य देवगुप्त की भी बड़ी पद-प्रतिष्ठा थी। देवगुप्त के शिष्य शिवचन्द्र पवैया से विहार करते हुए भिन्नमाल (श्रीमाल, गुजरात की प्राचीन राजधानी) में आये। उनके शिष्य यज्ञदत्त व अनेक अन्य गुणवान शिष्यों ने गुर्जर देश में जैनधर्म का खूब प्रचार किया, और उसे बहुत से जैन मन्दिरों के निर्माण द्वारा अलंकृत कराया। उनके एक शिष्य वटेश्वर ने आकाश वप्र नगर में विशाल मन्दिर बनवाया। वटेश्वर के शिष्य तत्वाचार्य कुवलयमालाकार क्षत्रिय वंशी उद्योतनसूरि के गुरू थे। उद्योतन सूरि ने वीरभद्र आचार्य से सिद्धान्त की तथा हरिभद्र आचार्य से न्याय की शिक्षा पाकर शक संवत् ७०० में जावालिपुर (जालोर-राजपुताना) में वीरभद्र द्वारा बनवाये हुए ऋषभदेव के मन्दिर में अपनी कुवलयमाला पूर्ण की। तोरमाण उस हूण आक्रमणकारी मिहिरकुल का उत्तराधिकारी था जिसकी क्रूरता इतिहास-प्रसिद्ध है। उस पर इतने शीघ्र जैन मुनियों का उक्त प्रभाव पड़ जाना जैनधर्म की तत्कालीन सजीवता और उदात्त धर्मप्रचार-सरणि का एक अच्छा प्रमाण है।

चालुक्य नरेश भीम प्रथम में जैनधर्म का विशेष प्रसार हुआ। उसके मंत्री प्राग्वाट वंशी विमलशाह ने आबू पर आदिनाथ का वह जैनमंदिर बनवाया जिसमें भारतीय स्थापत्यकला का अति उत्कृष्ट प्रदर्शन हुआ है, और जिसकी सूक्ष्म चित्रकारी, बनावट की चतुराई तथा सुन्दरता जगद्विख्यात मानी गई है। यह मंदिर ई. सन् १०३१ अर्थात् महमूंद गजनी द्वारा सोमनाथ को ध्वस्त करने के सात वर्ष के भीतर बनकर तैयार हुआ था। खरतरगच्छ पट्टावली में उल्लेख मिलता है कि विमल मंत्री ने तेरह सुलतानों के छत्रों का अपहरण किया था; चन्द्रावती नगरी की नींव डाली थी, तथा अर्बुदाचल पर ऋषभदेव का मंदिर निर्माण कराया था। स्पष्टतः विमलशाह ने ये कार्य अपने राजा भीम की अनुमति से हीं किये होंगे और उनके द्वारा उसने सोमनाथ तथा अन्य स्थानों पर किये गये विध्वंसों का प्रत्युत्तर दिया होगा। चालुक्यनरेश सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल के काल में जैनधर्म का और भी अधिक बल बढ़ा। प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्र के उपदेश से कुमारपाल ने स्वयं, खुलकर जैनधर्म धारण किया और गुजरात की जैन संस्थाओं को खूब समृद्ध बनाया, जिसके फलस्वरूप गुजरात प्रदेश सदा के लिए धर्मानुयायियों की संख्या एवं संस्थाओं की समृद्धि की दृष्टि से जैनधर्म का एक सुदृढ़ केन्द्र बन गया। यह महान् कार्य किसी धार्मिक कट्टरता के बल पर नहीं, किन्तु नाना-धर्मों के प्रति सद्भाव व सामंजस्य-बुद्धि द्वारा ही किया गया था। यही प्रणाली जैनधर्म का प्राण रही है, और हेमचन्द्राचार्य ने अपने उपदेशों एवं कार्यों द्वारा इसी पर अधिक बल दिया था। धर्म की अविच्छिन्न परम्परा एवं उसके अनुयायियों की समृद्धि के फलस्वरूप ई. सन् १२३० में सोम सिंहदेव के राज्यकाल में पोरवाड वंशी सेठ तेजपाल ने आबूपर्वत पर उक्त आदिनाथ मंदिर के समीप ही वह नेमिनाथ मंदिर बनवाया जो अपनी शिल्पकला में केवल उस प्रथम मंदिर से ही तुलनीय है। १२ वीं १३ वीं शताब्दी में आबू पर और भी अनेक जैनमंदिरों का निर्माण हुआ था, जिससे उस स्थान का नाम देलवाड़ा (देवलवाड़ा) अर्थात् देवों का नगर पड़ गया। आबू के अतिरिक्त काठियाबाड़ के शत्रुंजय और गिरनार तीर्थक्षेत्रों की ओर भी अनेक नरेशों और सेठों का ध्यान गया और परिणामतः वहां के शिखर भी अनेक सुन्दर और विशाल मंदिरों से अलंकृत हो गये। खंभात का चिंतामणि पार्श्वनाथ मंदिर ई. सन् ११०८ में बनवाया गया था और १२९५ में उसका जीर्णोद्धार कराया गया था। वहाँ के लेखों से पता चलता है कि वह समय समय पर मालवा, सपादलक्ष तथा चित्रकूट के अनेक धर्मानुयायियों के विपुल दानों द्वारा समृद्ध बनाया गया था।
 
क्रमश .....21
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इसके मूल लेखक है...........
डॉ. हीरालाल जैन, एम.ए.,डी.लिट्.,एल.एल.बी.,
अध्यक्ष-संस्कृत, पालि, प्राकृत विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय;
म. प्र. शासन साहित्य परिषद् व्याख्यानमाला १९६०
भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान

2 comments:

  1. ताऊ रामपुरिया 16 फ़रवरी, 2010

    बहुत सुंदर जानकारी. आभार.

    रामराम.

  2. Apanatva 19 फ़रवरी, 2010

    jaankaaree ke liye dhanyvad.

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