कैसे करु अभ्यर्थना
कैसे करु ? मै क्यो करु ? किसकी करु अभ्यर्थना।
यो किसलिए ? कब तक करु, है अनुत्तर अभिव्यजना॥
द्वैत मे अद्वैत हू मै, भेद मे अविभेद हू
वेद मे निर्वेद हू मै, छेद मे विच्छेद हू
केत मे समुपेत हू पर श्वेत मे अश्वेत हू
सन्केत हू त्रिनेत हू इसलिए अनिकेत हू
स्वय ही मै स्वय की कैसे करु फिर अर्चना॥
काल मे त्रिकाल हू मै, भाव मे समभाव हू
द्र्व्य मे विशाल हू मै क्षेत्र मे अतिभाव हू
ग्रन्थ हू, निर्ग्रन्थ हू मै,छन्द मे निर्बन्ध हू
ज्ञान हू,विज्ञान हू मै, ध्यान मे स्वच्छन्द हू
महाप्राण का प्रण मै फिर क्यो करु अभिवदना॥
सत्य का सन्धान हू मै, सृष्टि का वरदान हू
कर्म का सम्मान हू मै, भाग्य का भगवान हू
भक्ति का परिधान हू मै, भक्ति का अवधान हू
अर्हत अरमान हू मै, ध्यान कि पहचान हू
बून्द बन मै अर्चना की, क्यो करु फिर कल्पना॥
-मुनि जयकुमार द्वारा (युवादृष्टि) हे प्रभु द्वारा प्रस्तुत
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सुन्दर प्रस्तुति.
ultimate ...superb ...
aap bahut achchha likhte hain
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
यह तो पराकाष्टा हो गयी. अति सुन्दर. आभार.
अति सुंदरतम स्तुति, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
bahut sundar ,sahaj,satvik bhav
Naman hai mera
Saadar !!!
बेहतरीन प्रस्तुति........
मन मोहती सुन्दर पंक्तियाँ ! बहुत आभार !
सुन्दर, जितना पढ़ता हूं, उतना जैन-हिन्दू में भेद लगता ही नहीं!
सत्य का सन्धान हू मै, सृष्टि का वरदान हू
कर्म का सम्मान हू मै, भाग्य का भगवान हू
भक्ति का परिधान हू मै, भक्ति का अवधान हू
अर्हत अरमान हू मै, ध्यान कि पहचान हू
बून्द बन मै अर्चना की, क्यो करु फिर कल्पना॥
अति सुंदरतम स्तुति.....!!